जब हिन्दू मुसलमान की राजनीति फ्लॉप हो गयी तो यही एक रास्ता रह गया है तथाकथित सेक्युलरों के पास

सहारनपुर भीम सेना दलित

जोगेंद्र नाथ मंडल आजादी के समय के बड़े दलित नेता थे। उनका मत था कि मुसलमानों की तरह है दलित भी स्वतंत्र भारत में हिंदू बहुसंख्यक देश में नहीं रह पाएंगे। जोगेंद्र मुस्लिम लीग की अलग देश की दलित समर्थक आवाज थे। उन्होंने आजादी के बाद पाकिस्तान में रहना स्वीकार किया और पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री भी बने लेकिन उनका ये भ्रम जल्दी ही टूट गया। धीरे धीरे पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं और दलितों पर हुए अत्याचार को देखते हुए कुछ ही सालों में उन्होंने भारत में शरण ले ली। दलितों को जोगेंद्र नाथ मंडल की जीवन से सीख जरूर लेनी चाहिए। दलितों के साथ सदियों तक शोषण हुआ और अब भी देश के कई हिस्सों हालात काफी बुरे हैं। भारत में जाति व्यवस्था को कोई झुठला नहीं सकता। लेकिन इस का फायदा उठाकर क्या उन्हें प्रतिक्रियावादी बनाया जा सकता है। क्या दलित पार्टियों की महत्वाकांक्षा की भेद चढ़ सकते हैं। क्या जय भीम के बाद जय मीम या लाल सलाम जोड़ने के लिए उन्हें मोहरा बनाया जा रहा है।

देश में राजनीति उफान पर है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार आने के बाद दो महीनों के भीतर ही जातीय संघर्ष चर्चा के केंद्र में है। साल 2002 के गुजरात दंगों से लेकर साल 2014 के लोकसभा चुनाव तक एक तबके द्वारा नरेंद्र मोदी की छवि मुस्लिम विरोधी बताई गई। ये कितना सच था या कितना गलत वो अलग चर्चा का विषय हो सकता है। लेकिन इसके बाद कई चुनाव में बीजेपी की जीत ने ये तय कर दिया कि बीजेपी को खाली सांप्रदायिक बताकर हराना मुश्किल है। जिस तादाद में बीजेपी को वोट पड़ रहे हैं सेंधमारी की वहां जरूरत है। इसके बाद राजनीतिक बिसात को सांप्रदायिक-धर्मनिरपेक्ष से हटाकर दलित-स्वर्ण बनाया जा रहा है। जिन राज्यों में बीजेपी सत्ता में है वहां धीरे धीरे जातीय संघर्ष को हवा दी जानी शुरू की गई। लोकतंत्र में पार्टियों का जीतना या हारना सामान्य सी बात है। लेकिन अगर सरकार को विकास और सर्वसमाज के मुद्दों से हटकर ऐसे मुद्दों पर घेरा जाए जो सामाजिक ताने बाने को तोड़े तो उसकी कीमत कोई राजनीतिक पार्टी नहीं समाज उठाता है।

महाराणा  प्रताप पूरे जीवन समाज के अंतिम पायदान पर खड़े भीलों को साथ लेकर मुगलों से लोहा लेते रहे लेकिन उनकी जन्मतिथि राजपूत समाज और दलित समाज में संघर्ष का कारण बन गई। ये संघर्ष दो महीने तक रह रहकर सुलगता रहा जबतक इसकी तपिश पूरे देश ने महसूस नहीं कर ली। सरकार से नाराजगी जनता में हो सकती है लेकिन विरोध कब सरकार से हटकर समुदाय के खिलाफ हो जाए इसकी चिंता हमेशा रहनी चाहिए। पिछले दिनों मीडिया में आए एक वीडियो में भगवान हनुमान के चित्र के साथ जो अपमान किया गया क्या उसका कोई औचित्य हो सकता है। हनुमान जी ना तो सरकार और ना ही बीजेपी के सदस्य है। फिर विरोध के केंद्र में वो कैसे आ सकते हैं।

दरअसल जो जहर धीरे धीरे दलित समाज में बोया जा रहा है। उसका असर इसी तरह दिखना है। दलितों के साथ सदियों जो भेदभाव हुआ उसको कोई नकार नहीं सकता और ना ही उसकी कोई माफी हो सकती है। लेकिन सामाजिक समरसता बदले के भाव से बनी नहीं रह सकती है।

इसके कुछ उदाहरण स्पष्ट देखने को मिलते हैं। पिछले दिनों टीवी चर्चा के दौरान भीम आर्मी के एक सदस्य ने अपने संगठन के मुखिया के नाम में रावण लगाने को सहीं बताया। उनसे पूछने पर की रावण तो ब्राह्मण था उन्होंने कहा कि हम रावण को ब्राह्मण नहीं मानते। रावण राम के खिलाफ लड़ा था। राम रामराज्य का प्रतीक है जो आज के जमाने में हिंदू राष्ट्र है। ये सामान्य बात नहीं है। अगर राम हिंदू राष्ट्र के प्रतीक है तो रामराज्य तो गांधीजी भी चाहते थे तो क्या उन्हें भी हिंदू राष्ट्र का समर्थक माना जाए। अगर समाज दो भागों में बंटेगा कि एक राम को पूजनीय माने और दूसरा रावण को तो ये चिंता जगाता है। कोई दलित अगर हिंदू धर्म छोड़ना चाहता है तो वो छोड़ सकता है लेकिन हिंदू देवी-देवताओं का अपमान सिर्फ समाज में और तल्खी बढ़ाएगा। जिस तेजी से दलितों के मन में मूलनिवासी की थ्योरी भरी जा रही है। ये भी कम घातक नहीं है अगर समाज का एक तबका दूसरे तबको को बाहरी मानना शुरू कर देगा तो टकराव की स्थिति पैदा होनी ही होनी है।

हिंदू समाज को चाहिए के वो अपने अंदर झूठे जातीय दंभ को खत्म करें। जो दलित स्वयं को हिंदू मानते हैं उन्हें अपनी बराबर का समझे वहीं दलित जो खुद को हिंदू मानते हैं वो अपने धर्म पर अपना बराबर का हक माने। कानून उनके पक्ष में है किसी भी तरह का भेदभाव बिल्कुल ना सहे। और जो दलित खुद को हिंदू नहीं मानते वो अपना रास्ते चुनने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन किसी दूसरे के धार्मिक विश्वास और ईश्वर का अपमान ना करें।

चमड़े का काम करने वाले संत रविदास को ब्राह्मण कुल में जन्मे रामान्नद सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरू रामानन्द ने अपना शिष्य स्वीकार किया था और इन्हीं संत रविदास को सिसोदिया वंश की राजकुमारी मीरा ने अपनी गुरू माना था। इन सबको अपना पूर्वज मानने वाले हम लोग अगर इनकी सीख से आगे नहीं बढ़ सकते तो कम से कम पीछे तो ना हटे।

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