चलो भाई, आखिरकार किसी ने तो अल्पसंख्यक संस्थानों द्वारा कबजाई गयी सम्पत्तियों में न्यूनतम हस्तक्षेप के हास्यास्पद फैसले को दरकिनार करने का बीड़ा उठाया है। एक साहसिक फैसले में उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य में फैले समस्त शिया और सुन्नी वक्फ बोर्ड भंग करने का फैसला लिया है।
राज्य में मुसलमानों की संपत्तियाँ, जैसे कब्रिस्तान, सामूहिक केंद्र इत्यादि के लालन पालन का अधिकार अमूमन इन्ही बोर्डों के पास होता है। या तो इन्हे भूमि दान में [इनके लहजे में ज़कात] मिलती थी, या फिर राज्यों या व्यक्तिगत निधि के तौर पर। वक्फ बोर्ड को इन भूमियों के रखरखाव और इनसे राजस्व कमाकर राज्य कोष को सौंपने का जिम्मा दिया गया था। हालांकि यूपी में कहानी कुछ डिफ़्रेंट थी।
राज्य वक्फ बोर्ड पूर्व वक्फ मंत्री आज़म खान के निजी संगठन की तरह काम करती थी। इन बोर्ड द्वारा संदिग्ध भूमि हस्तांतरण में शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी का भी अहम हाथ माना जाता है। केन्द्रीय वक्फ परिषद द्वारा बिठाये गए अन्वेषन समिति ने इन दोनों के काले करतूतों का काफी हद तक पर्दाफाश भी किया है, की कैसे मौलाना जौहर अली ट्रस्ट बनाकर अपने मंत्रित्व काल में आज़म खान ने वक्फ सम्पत्तियों का अपने भूमि पर मौलाना जौहर अली विश्वविद्यालय चलाने के नाम पर हर नियमावली को ताक पर रखकर उन सम्पत्तियों से अकूत काला धन निकाला।
अब ज़ाहिर है, जब इनकी रोज़ी रोटी पे योगी का भगवाधारी डंडा चलेगा, तो चिल्लपों तो मचेगी ही। नहीं तो और क्या कारण है, की महज तीन महीने में ही आज़म खान और अखिलेश यादव योगी सरकार की मिट्टी पलीद करने में लगे हुये हैं?
हालांकि इस नौटंकी का एक निहितार्थ भी है जिसे जानबूझकर विपक्ष दबाने पर तुला हुआ है, और वो है अयोध्या विवाद में इनकी भूमिका। इलाहाबाद हाइ कोर्ट के लखनऊ पीठ ने विवादास्पद जन्मभूमि का एक तिहाई हिस्सा इसी वक्फ बोर्ड को सौंपा था। अभी हाल बेहाल ये केस सुप्रीम कोर्ट में अधीन है, जहां तीनों याचिकाकर्ताओं में समान रूप से भूमि बांटने के निर्णय के खिलाफ आवाज़ उठाई गयी है।
अगर कोई उत्तराधिकारी नामित नहीं हुआ, तो वक्फ बोर्ड की याचिकाकारता या विवादी के तौर पर स्थिति अपने आप ही हटा ली जाएगी।
अब इससे होगा क्या, की एक लंबित कानूनी मुकदमे में एक वर्ग विशेष को ज़रूरत से ज़्यादा दिया गया लाड़ प्यार भी राज्य द्वारा हटा लिया जाएगा। सभी दल जो इसमें शामिल है, उन्हे उनके उचित अवसर भी मिलेंगे, और सुनवाई और त्वरित होगी। साफ शब्दों में नफरत की दुकानें लगाने वालों की दुकानों पर अब योगी आदित्यनाथ स्वयं ताला लगाने के लिए कमर कस चुके हैं।
यह आश्चर्यजनक था की एक पंथनिरपेक्ष देश में एक वर्ग विशेष, यानि कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए इतनी लंबी लड़ाई खींची जा रही थी। और देश को बांटने का इल्ज़ाम लगता है नरेंद्र मोदी पे। सरकार की इस मुक़दमेबाज़ी में सक्रिय भागीदारी इस देश की संप्रभुता पर मज़ाक समान थी, क्योंकि इस मुक़दमे का सारा पैसा हमारे कर चुकाने वाले भाइयों और बहनों के खून पसीने की कमाई से ही आता था। इससे भी ज़्यादा हास्यास्पद यह तथ्य की एक महज राज्य पोषित संस्था एक केन्द्रीय सरकार द्वारा अधिकृत भूमि के कब्जे के लिए लड़ रही है। मतलब क्या इनका मजहब हमारे देश से इतना ऊपर हो गया क्या?
आखिर में, बाबरी की संरचना खुद इन दोनों बोर्डों के गले की फांस बनकर अटकी हुई है। मस्जिद तो कथित रूप से मंदिर ढहाकर बाबर के शिया सेनापति बीर बाकी ने बनवाई थी, तो उस हिसाब से ये तो निस्सन्देह शिया वक्फ बोर्ड की संपत्ति होनी चाहिए। पर सुप्रीम कोर्ट में केस कौन लड़ रिया है? सुन्नी वक्फ बोर्ड!
मतलब साफ है, की राम मंदिर के निर्माण की तरफ राज्य सरकार ने आमूल चूल परिवर्तन आरंभ कर दिया है, जो उनके घोषणापत्र में भी साफ लिखा था, यानि कानूनी दायरे में राम मंदिर का निर्माण। हम यही प्रार्थना करते हैं की राजनाथ सिंह और राम प्रकाश गुप्ता की तरह इस सरकार के इस नेक कार्य को कोई कुदृष्टि ना लगे।