कुछ दिनों पहले मध्यप्रदेश में कथित किसान आन्दोलन का एक नया बखेड़ा खड़ा किया गया। पुलिस फ़ायरिंग में कुछ लोगों की जानें भी गईं। इस कथित “किसान आन्दोलन “के सम्बन्ध में जो ख़बरें आई उनसे तो ये समग्र घटनाक्रम सिरे से अविश्वसनीय और अप्रत्याशित ही दिखायी देती है। लोकतान्त्रिक अनुशासन में रहकर जनता द्वारा किये गये सभी आग्रह और हठ तभी तक एक स्वस्थ और सविनय आन्दोलन बने रहते हैं जब तक उनमें दलीय राजनीति की विषाक्त धारा प्रवाहित नहीं होती है।
अभी बहुत अधिक समय नहीं बीता है महेन्द्र सिंह टिकैत के किसान आन्दोलन को,असंख्य किसान इस आन्दोलन में शामिल थे। किसानों की अगुआई करने वाले उनके अपने नेता थे, वे भी किसान थे, उनकी माँगें थीं , फिर सरकार से कई दौर की बातचीत के बाद आन्दोलन का निराकरण भी हो गया। लेकिन मध्य प्रदेश के इस कूट रचितकिसान आन्दोलन के जो फ़ुटेज सामने आए हैं वे दुर्भाग्यपूर्ण और विस्मयकारी हैं।
हाथों में लाठियाँ और आगज़नी का सामान लिये जो लोग तोड़ फोड़ कर रहे थे वे उनके काम और उनकी वेशभूषा से क़तई किसान नहीं थे , इन्हीं असामाजिकों द्वारा देखते ही देखते अनेक ट्रकों और अत्याधुनिक और बेशक़ीमती बसों और दूसरे वाहनों को जला दिया गया, बडी ही निर्ममतासे शासकीय संम्पत्ति नष्ट कर दी गई। बसो में बैठी स्त्रियों ने और बच्चों ने गिड़गिड़ा कर किसी तरह इन गुंडों से मुक्ति पायी । छोटे छोटे व्यापारियों को, उनकी दुकानों को लूटा गया। मार धाड़, लूटपाट और आगज़नी का ऐसा खुला ताण्डव?
क्या ये सब किसानों द्वारा किया गया है ? या ये काम ऐसे उबाऊ और अतिशेष हो रहे राजनितिक दलों तथा उसके कार्यकर्ताओं का था ? यदि राजनितिक असहिष्णुतावश सरकार को अस्थिर करने और प्रशांत समाज जीवन में विप्लव मचाने की दुर्बुद्धि से किया गया कृत्य है?
दोनों ही स्थितियों में ये गम्भीर रोग लक्षण है। गौहत्या और गौमांस भक्षण की राष्ट्रीय अपकीर्ति अर्जित करने के बाद किसान आन्दोलन की शक्ल में किया गया यह निरन्तर दूसरा राजनितिक और हिंसक उपद्रव है।
ये सच है कि दुनिया भर के देशों में हमारा देश एक ऐसा देश है जहां सबसे ज़्यादा देशद्रोही और ग़द्दार पैदा होते हैं,पाले जाते हैं। कईयों को तो पुरस्कार और दूसरे अवार्ड भी दिये गये हैं या यों कहिये कि भौंथरी बुद्धी के गिरमिटिया नेताओं के सामने त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णु बोल कर कईयों ने अवार्ड हासिल करने की जुगाड़ें कीं हैं ।
आज हमारा देश स्वतन्त्र है लेकिन हम स्वच्छन्द हैं, देश की राजनितिक पार्टियों के नेतागण विशेषकर गिरमिटिये(कांग्रेसी)वामिये, माओवादी, नक्सली, बड़ी बिन्दी गिरोह, अवार्ड वापसी गैंग, मौक़ापरस्त लालची और बेहद डरपोक सेक्युलर, कन्हैया जैसे लपुट जेनुए, पाकिस्तानियों की इच्छा न होते हुए भी अकारण अथवा किसी गुप्तकारण से उनके सामने पूर्ण दासत्व भाव धारण कर अपनी मातृभूमि से द्रोह करने वाले मणिशंकर अय्यर, जिन्हें कभी भी, किसी के भी विषय में , कुछ भी कहने का जन्म सिद्ध अधिकार है ऐसे हमारे राजा सा‘ब, मस्खरे लालू, मस्जिदों में बैठकर देश के संविधान का और अपने ही धर्म का मज़ाक़ उड़ाते हुए किसी को भी जान से मारने या उसका सर क़लम करने का फ़तवा जारी करने के बेहद शौक़ीन मूर्ख मुल्ले-मौलवी, दिल्ली की जामा मस्जिद में बैठा हुआ इमाम, अपनी संदिग्ध कार्रवाइयों और बद ज़ुबानी से हमेशा शक के घेरे में रहने वाला फ़ारूख अब्दुला, मौक़ा मिलते ही ज़बरन चर्चा में आने के लिये इस देश और संस्कृति के विरुद्ध गलिच्छ से गलिच्छ और मलिन वक्तृता से बाज़ नहीं आनेवाली अरुन्धती राय, शोभा डे।
इस देश में असंख्य तथाकथित और छद्म प्रगतिशील हिन्दु बुद्धिजीवी हैं जिन्हें समग्र प्रगतिशीलता हमेशा, हिन्दु धर्म, दर्शन,संस्कृति, कला, साहित्य औरपरम्पराओं तथा देश के विरूद्ध गंदा व अविचारपूर्वक बोलने में ही दिखाई देती है।दुर्भाग्य से ये देश ऐसे लोगों से पटा पड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि एक घटिया स्तर के केन्द्रीय विश्वविद्यालय को तो जैसे देशद्रोही पैदा करने के लिए ही सरकारी अनुदान प्राप्त हो रहा है। अब तो राजनितिक लोग सेना और सेनानायक पर भी अभद्र फब्तियॉं कसने लगें हैं। राजनितिकदलों के अपरिपक्व और मनचले मुस्टण्डे सेनाप्रमुख को ‘डायर‘ और ‘गली का गुंडा‘कहने की जुर्रत कर चुके हैं। उन्हें इल्म तक नहीं होगा कि वे किस अनैतिक आचरण में लिप्त हुए है? सार्वजनिक क्षमायाचना कर वे अपनी कृति के इस अवांच्छित दोष और उससे आती दुर्गन्ध को धो सकते है लेकिन खेद है कि मानव जाति की जीवित पीढ़ीयों में अपने कलुषित कृत्य पर भी लज्जित होने का भाव तो जैसे है ही नहीं ।
विचारणीय है कि आख़िर किन ग़लतियों के ये सर्वथा अनिच्छित परिणामहैं? क्या ये दुर्लभ स्वात्यन्त्र और सर्वोच्छित लोकतन्त्र की स्याह बाज़ूएं है? राज्य के पास इस राष्ट्रव्यापी विष के शमन की प्रेरणा क्या है? अन्तर्विरोध, मत वैभिन्य और कृतघ्नता के सहज आचरण की सम्भावनाएँ सदैव रहेंगी ही किंतु राज्य द्वारा राष्ट्रहित मेंउनका निर्मम और नियमित दमन भी अनपेक्षित नहीं है।