स्मृति ईरानी में वो सारे गुण उपस्थित हैं, जो लुटयेंस मीडिया की आँखों में नासूर है। चालीस की उम्र पार करने से पहले ही इनहोने दो क्षेत्रों में अपने लिए खूब नाम कमा लिया – शो बिज़ और राजनीति, वो भी बिना किसी विरासत या माँ बाप के। लुटयेंस मीडिया तो योग्यता से कोसों दूर भागती है। गांधी परिवार को खुली चुनौती देते हुये इनहोने ‘युवराज’ को इनकी अमेठी वाली गद्दी से 2014 में लगभग हटा ही दिया था, और 2019 में अपना बदला पूरा करने का भी प्रण लिया है।
लुटयेंस मीडिया को गांधी नेहरू परिवार और उनके चमचों ने वर्षों से पाला पोसा, और संरक्षित रखा। इसलिए उनके आधार पर कोई हमला करे, ये उन्हे बर्दाश्त नहीं। सीधे प्रसारण पर ईरानी जी ने बरखा और राजदीप जैसे पत्रकारों तक को नाकों चने चबवाने पर विवश किया। अब भला अपने स्टार चापलूसों की बेइज्जती लुटयेंस मीडिया कैसे बर्दाश्त करे? इनके हिसाब से तो इन हस्तियों [जिनको देखने वाले चौराहे के दमदमा बजाने वालों से भी कम होंगे] को भारत के कोमलांगी सामाजिक बुनियाद का प्रहरी होना चाहिए। साफ शब्दों में कहे तो भारत का प्रतिनिधित्व करने का ठेका इन जैसे कन्दमूलों ने अपनी बपौती समझ ली है। पर स्मृति ईरानी तो इनके उम्मीदों के ठीक विपरीत निकली, बेझिझक और निस्संदेह राष्ट्रवादी।
लुटयेंस मीडिया तो अब भाई अमन की आशा जैसे अभियान चलावे, पाकिस्तानी जिहादियों से खूब प्यार पावे और कभी कभी तो अपने ही सैनिकों की बलि चढ़ा [जैसे बरखा रानी ने कार्गिल और 26/11 में किया था] इन जिहादियों को सहायता भी दिलावे! ऐसे में जिनके स्मृति ईरानी जैसी पहचान हो, तो लुटयेंस मीडिया वालों के हिसाब से इन्हे तो संसद के आसपास भी नहीं फटकना चाहिए, मंत्री बनाना तो बहुत दूर की कौड़ी ठेहरी। पर फिर भी, इन्हे अपने विरोधियों की पुंगी बजाने की ज़िम्मेदारी माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने प्रेम सहित सौंपी है! खेल तो अब शुरू हुआ है!
इसके अलावा की यह निर्णय अपने आप में दैवीय न्याय के समान है, स्मृति ईरानी को जिस उद्देश्य से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया है, वो भी अनदेखा नहीं करना चाहिए।
इससे पहले ये मंत्रालय था श्री वेंकैया नायडू के पास, जो अब भारत के उपराष्ट्रपति बनने के लिए पूरी कमर कस चुके हैं। स्मृति ईरानी को इस मंत्रालय का भार सौंपने के पीछे के प्रमुख कारणों में से एक यह है की नायडू जी ने जिस तरह इस मंत्रालय को संचालित किया था, वो अपेक्षाओं के अनुरूप कहीं भी नहीं ठहरा। इनकी कार्यशैली न देश के काम आई, और न ही सरकार के। ऐसे में एक नयी कार्यशैली, निस्संदेह, आवश्यक प्रतीत हो रही थी।
अटल बिहारी वाजपयी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भी नायडू पार्टी की मुख्यधारा के एक अभिन्न अंग रहे है। एक युग से दूसरे युग में आने के बावजूद नायडू बाबू ने पार्टी के पुराने उसूलों की एक आत्मघाती विशेषता को साथ रखा – लुटयेंस मीडिया को ज़रूरत से ज़्यादा ऊंचा दर्जा देना। मोदी, ईरानी या योगी की तरह इन्हे कभी भी इस मीडिया के स्याह पहलू के दर्शन नहीं हुये थे, और न कभी इन्हे इस मीडिया की निराधार और मनहूस बेइज्जती का सामना करना पड़ा था। ऐसे में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की कमान ऐसे व्यक्ति को सौंपना, निस्संदेह मोदी और शाह की चुनिन्दा भूलों में से एक थी।
हमारा खून तो अब भी खौल उठता है, जब हमें याद आता है की कैसे बेधड़क प्रणय रॉय और विष्णु सोम धड़ धड़ाते हुये नायडू के मंत्रालय में घुस आए और एनडीटीवी पर लगा प्रतिबंध हटवा लिया। ये प्रतिबंध इसलिए लगा था क्योंकि अपनी पुरानी रीति के अनुसार, इनहोने पठानकोट एयरबेस पर हुए आतंकी हमले में संवेदनशील सूचना मुहैया करा एक तरह से आतंकियों की ही मदद कर रही थी, जिसके कारण लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन उपाध्याय को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
ये सही वक़्त है ऐसे मंत्री को सामने लाने का, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बने लुटयेंस मीडिया को समझ सके, और उसी हिसाब से त्वरित कारवाई भी करे।
स्मृति ईरानी की प्रशासनिक और राजनैतिक बुद्धिमता एक प्रमुख कारण है की उन्हे कपड़ा मंत्रालय से ज़्यादा योग्य पद मिलना चाहिए। राजनैतिक रूप से इनहोने 2014 के चुनावों का इस्तेमाल अपने आप को बलि के बकरे से एक राजनैतिक शक्ति में परिवर्तित करने के लिए किया। ठीक है, उन्होने अमेठी से चुनाव नहीं जीता, पर दशकों में पहली बार किसी ने गांधी नेहरू परिवार को उनही के गढ़ में नाकों चने चबवाने पर मजबूर कर दिया। तबसे इस चुनावी क्षेत्र को इनहोने अपनी कर्मभूमि बना ली है। यहाँ ये नियमित रूप से दौरा भी करती है और विकास संबंधी कार्यों को हरी झंडी भी दिलवाती है। मुमकिन है की राहुल गांधी यहाँ से चुनाव ही न लड़ें 2019 में, अगर कुछ भी गैरत हो उनमें।
इनकी बोली का क्या कहना, कई बार संसद में इनहोने अपने विपक्षियों को मुंह छुपाने पर विवश किया है। प्रशासनिक रूप से इन्हे कई लोग असफल कह सकते हैं क्योंकि इनहोने शैक्षणिक क्षेत्र में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं किए। पर इनके मंत्रालय संभालने पर जिस तरह इनकी शैक्षणिक योग्यता पर विपक्ष ने कीचड़ उछाला है, उसके बावजूद ये अपने शिक्षित, सर्वगुण सम्पन्न और डॉक्टरेट धारक पूर्वजों से तो कहीं बहतर निकली। यकीन नहीं होता न? खुद ही देख लीजिये इनकी उपलब्धियां:
दो साल में इनहोने जो बदलाव किए हैं, उन्हे तो कोई साठ साल में नहीं ला पाया। जिन स्कूलों में एक भी शौचालय नहीं था, वहाँ तक इनहोने शौचालय बनवाए, और बालिकाओं के पंजीकरण के लिए इनहोने विशेष रूप से 2 लाख से ज़्यादा शौचालय बनवाए। सीबीएसई और एनसीईआरटी के जितने भी टेक्स्ट बुक्स हैं, उन सभी के ऑनलाइन संस्करण इनहोने मुफ्त में उपलब्ध करवाए। इनहोने कई केन्द्रीय विश्वविद्यालय खुलवाए, और भारतीय कॉलेजों को वैश्विक स्तर तक लाने के लिए कई व्यापक सुधार करवाए। आधार कार्ड से छात्रवृत्ति लिंक करवाई गयी, तकनीक और कौशल का उपयोग कर युवाओं को कुशल बनाने की एक सार्थक मुहिम शुरू की गयी, और शायद इनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी एक नई शिक्षण नीति का निर्माण, जो भारत के शिक्षण क्षेत्र की जल्दी ही कायापलट कर देगा। वर्षों के कुप्रबंधन और ठहराव के बाद आखिरकार भारत को इस अनचाहे दलदल से निकालने का एक सुअवसर मिल सकता है, जिसे महज कुछ महीनों में निपटाना हास्यास्पद प्रतीत होगा।
अपनी नयी भूमिका में स्मृति ईरानी को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। चाहे वो एजेंडा चालित फ़ेक न्यूज़ हो, या विषैले टेलिविजन चैनल, या फिर इन लोगों को न्याय की चौखट के लिए एक उचित प्रणाली का अभाव, इनका निवारण करना इनके लिए किसी चुनौती से कम न होगा। पर क्योंकि इनहोने टीवी इंडस्ट्री में कामयाबी की कई सीढ़ियाँ नापी है, और कई खबरी दलालों का डटकर सामना भी किया है, बतौर शिक्षा मंत्री, तो इनके लिए ये कोई नई बात नहीं है। आशा करते हैं की स्मृति जी अपने विपक्षियों को उसी तरह निपटाए जैसे वे करती आई हैं।