सुनिए शशि थरूर के बोल बचन, ग़ुलामी का ऐसा जस्टिफ़िकेशन और कहीं नहीं मिलेगा

शशि थरूर मुस्लिम

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थिम्फू के माउंटेन एकोस लिटेररी फेस्टिवल में अपने शब्दों से मानो शशि थरूर ने बरईय्ये के छत्ते में हाथ डाल दिया है। जिन शब्दों से राजनैतिक इरादों की बू साफ निकल रही थी, थरूर ने कहा की उनका मानना है की भारत को अंग्रेजों ने अपना ग़ुलाम बनाया था जबकि नरेंद्र मोदी के लिए भारत की ग़ुलामी उपमहाद्वीप पर इस्लामिक शासन से ही शुरू हो गयी थी। उन्होने अपने बचकाने बोल के समर्थन में ये बोला कि अंग्रेज़ तो भारत का धन और संपत्ति लूटकर अपने साथ ब्रिटेन ले गए, जबकि इस्लामिक शासकों ने वो पैसा भारत में ही खर्च किया, सो इसलिए इन्हे साम्राज्यवादी की संज्ञा नहीं दी जा सकती। इनहोने यह भी कहा की जो सदियों पहले पाप हुये हैं, उनका प्रायश्चित करना नामुमकिन है, और जिन लोगों का इन सब से कोई लेना देना नहीं है, उन्हे उनके पूर्वजों के पापों के लिए परेशान करना कोई अच्छी बात नहीं है।

संक्षेप में कहें, तो शशि थरूर ने यह समझाने की कोशिश की भले ही भारत पर इसलामियों ने आक्रमण किया हो, पर इसके लिए भारत को इसका विरोध नहीं करना चाहिए, और इसे नियति की करनी मानकर इसके साथ जीना होगा, और सिर्फ और सिर्फ ब्रिटिश हुकूमत की ग़ुलामी का विरोध करना चाहिए। कोई ऐसा मनुष्य, जो धर्मनिरपेक्षता की पराकाष्ठा पार कर चुका हो, वही इस बचकाने बोल और इसके पीछे की बचकानी सोच को नज़रअंदाज़ करेगा।

सुनन्दा पुष्कर थरूर हत्याकांड में हाथ होने की प्रसिद्धि के अलावा शशि थरूर अपनी ऑक्सफोर्ड यूनियन डेबेट के लिए काफी प्रसिद्ध हैं, जहां उन्होने इन दावों की धज्जियां उड़ा दी की साम्राज्यवाद से भारत का भला हुआ है। अपने कुशल तर्क, सुलझे तथ्य, शब्दों के अपने सही चयन और उनके तर्कों की प्रतिबद्धता ने वहाँ उपस्थित सभी दर्शकों का दिल जीत लिया। उनके भाषण की एक यूट्यूब विडियो काफी वाइरल भी हुई, और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके भाषण की तारीफ की। पर जिस राजनैतिक संस्था से शशि थरूर जुड़े हैं, वो राष्ट्रवाद से अब इतना विमुख हो चुका है, की पूछिये ही मत। अब तो शशि थरूर का वो भाषण इनकी नज़रों में किसी पाप से कम न होगा। उन्हे भारतियों की उपलब्धियों का गुणगान किया, जिसका डंका अंग्रेजों के भारत आगमन से पहले पूरे विश्व में बजता था। उन्होने इसका भी बखान किया की कैसे अंग्रेजों की वजह से  मानो भारत की समृद्धि को एक ग्रहण सा लग गया – कैसे अर्थव्यवस्था ढह गयी, कैसे सूखे और अकाल आम बात हो गयी, और कैसे समाज की प्रगति को रोका गया, इत्यादि।

जिसने ग़ुलामी के दंश के मसले पर भारत की बात को इतनी दक्षता से दुनिया के सामने रखा हो, ऐसे में ये हैरानी की बात है की इनकी भारत के इतिहास के सबसे काले दौर, यानि इस्लामिक शासन पर इनके बेतुके तर्क पर अभी तक कोई विशेष विरोध नहीं हुआ है, और न ही किसी का इस पर खून खौलता है। और कोई समय हो न हो, 12वीं से 18वीं सदी के बीच का समय अराजकता, अनंत युद्ध, सामाजिक दरिद्रता और आध्यात्मिक पतन का प्रतीक था भारतीय सभ्यता के लिए। शशि थरूर और उनके जैसे इतिहासकारों ने इनका चाहे जितना महिमामंडन किया हो, पर अधिकांश इस्लामिक शासक धूर्त, नीच और लुटेरे से ज्यादा कुछ नहीं थे।

अरबों का आप उदाहरण लीजिये, जिनहोने सिंध और पंजाब के कुछ हिस्सों पर 8वीं से 10वीं सदी के बीच आक्रमण किया। वो नियमित रूप से मंदिर लूटते, गैर मुस्लिमों पर कर लगाते और हमेशा लड़ाई भिड़ाई में मशगूल रहते। मुल्तान का सूर्य मंदिर की रक्षा अरब सिर्फ इसलिए करते थे, ताकि इससे वे हिंदुओं को अपने काबू में रख सके, ये धम्की देकर की पवित्र मूर्ति को नष्ट कर दिया जाएगा। इस मंदिर से राज्य को लगभग 30% का राजस्व भी मिलता था, जिसका इस्तेमाल ‘काफिरों’ के विरुद्ध युद्ध में किया जाता था। जब मंदिर का काम पूरा हो गया, तो उसे बड़ी बेरहमी से गिरा दिया गया।

नालंदा विश्वविद्यालय का भी आप उदाहरण ले सकते थे, जो पूरी तरह गैर लड़ाकों से भरा हुआ था, पर जिसे बख्तियार खिलजी ने बड़ी बेरहमी से जला दिया। जितने मंदिर और मस्जिद मुस्लिमों ने जलाए हैं, उनकी संख्या हजारों में होती है। बौद्ध और जैन धर्म का तो लगभग इसलामियों ने सफाया ही कर दिया। सनातन धर्म लगभग अपनी परछाई मात्र रह गयी थी, जिस पर अनावश्यक, रीतियों, रूढ़ियों और वर्जनाओं का ग्रहण सा लग गया था। सांस्कृतिक रूप से भारतीय सभ्यता इस्लामिक आक्रमणकारियों के आगे झुक सी गयी थी।

इन आक्रमणकारियों के लिए भारत सिर्फ इनकी तिजोरियाँ भरने के लिए एक अकूत ज़मीन थी।

इनकी वफादारी और इनकी पूजनीय वस्तुएँ मिडिल ईस्ट में स्थित थी, न की भारत में। इसलिए जब घजनावी के महमूद ने भारत पर आक्रमण किया, तो उन्होने सोमनाथ मंदिर बर्बाद कर दिया और उससे लूटा खजाना इनहोने अपने वतन, अफ़ग़ानिस्तान को वापस भेजा। यही कहानी मुहम्मद घोरी और अहमद शाह अब्दाली और नादिर शाह जैसे अनेक आक्रमणकारियों की थी, जिनहोने भारत में उत्तरी पश्चिम सीमा से आक्रमण किया।

यहाँ तक की मुग़ल, जिनके सुशासन की मिसालें दी जाती हैं, इन अरबों और तुर्कों से कहीं से भी अलग नहीं थे। राजपूत राज्यों पर निरंतर हमले होते रहते थे और राजपूत औरतों को मजबूरन मुस्लिम सैनिकों और मंत्रियों की बीवियाँ बनना पड़ता था। जौहर की रीति इसलिए इतनी कुख्यात हुई, क्योंकि राजपूत औरतें अपने आत्मसम्मान की बलि कतई नहीं चढ़ा सकती थी। दस प्रथा मुग़ल काल में भी व्याप्त रहती थी। जहाँगीर ने लगभग 2 लाख ग़ुलाम ईरान भेजे थे। लगभग सभी मुग़ल शासकों और मंत्रियों की विशाल हरमें होती थी, जहां हजारों दासियाँ रहती थी। यहाँ तक की टीपू सुल्तान, जिसे एक प्रकार के राष्ट्रवादी प्रतिबिंब के तौर पर देखा जाता है, ने हजारों हिंदुओं को पकड़कर उन्हे जबरन इस्लाम में परिवर्तित करवाया था। सभी इस्लामिक अभियान में लूट का थोड़ा सा हिस्सा खलीफा को भेजा था, और थोड़ा हिस्सा मक्का मदीना की तरफ जाता था। संक्षेप में कहें, तो जो भी लूट इस्लामिक शासक इकट्ठा करते थे, वो अपने गोद ली गयी भूमि के विकास के लिए तो कदापि नहीं करते थे।

ऐसे तो वैश्विक रूप से कितने हिन्दू आक्रमणकारी इस्लामिक शासकों द्वारा मारे गए हैं, इसका कोई लिखित उल्लेख नहीं है, पर अनुमान के मुताबिक आंकड़ा लाखों में दौड़ता है। कई हजारों को ग़ुलाम बना लिया गया, और कईयों के साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार हुआ।  हिंदुकुश [वास्तविक अर्थ ही है हिंदुओं का संहार करने वाला] पहाड़ों का नाम ही इसलिए पड़ा क्योंकि यहाँ कई हिन्दू, जिनहे ज़बरदस्ती अफ़ग़ानिस्तान और इस्लामी दुनिया के दूसरे हिस्सों में घसीटा जा रहा था, यहाँ मारे गए या वीरगति को प्राप्त हुये, अगर कोई इतने वीर थे तो। इसी मानव लागत में आप आक्रमण, विध्वंस और लूट की सामाग्री का अंकलन कीजिये। इसके साथ ही साथ सांस्कृतिक नुकसान का भी अनुमान लगा लीजिये। भारतीय सभ्यता अगर आज दबी कुचली सी दिखती है, तो इसी कारण। जिस समाज में महिलाओं को संतों और योद्धाओं की तरह पूजा जाता था, अब उन्हे पर्दे में रखने को विवश होना पड़ता है, और सम्मान के लिए कभी कभी उन्हे आग में भी झोंक दिया जाता है। भारत पर इस्लामिक आक्रमणों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक लागत का अनुमान लगाना लगभग नामुमकिन समान है।

इसलिए श्रीमान शशि थरूर, अगर हम उन गलतियों का प्रायश्चित नहीं कर सकते, तो उन गलतियों को छुपाना भी कोई समझदारी का काम नहीं है।

सच तो यह है की अंग्रेजों के भारत आने से पहले ही भारत के ग़ुलामी की इबारत लिखी जानी शुरू हो गयी थी। ये तब हुआ था जब अरब आक्रमणकारियों ने सिंध पर 8वीं सदी में हमला किया था, और उसका असर अभी तक हमारे देश में दिखता है।

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