अमित शाह 2010 में पहली बार चर्चा में आए, जब मीडिया के दलालों ने इनका गृह मंत्री पद से इस्तीफा मांगा। केंद्र में सत्तासीन काँग्रेस सरकार तब इन्हे गृहमंत्री के तौर पर एक फर्जी एंकाउंटर के झूठे आरोप में फंसाना चाहते थे। बेशर्मों की जो टोली इनकी [काँग्रेस सरकार की] चापलूसी करती थी, उन्होने एक मीडिया ट्रायल करा शाह के राजनैतिक मृत्यु की इबारत लिख दी थी।
कमियाँ चाहे जो भी हो, एक बात के लिए काँग्रेस पार्टी की दाद देनी पड़ेगी, उन्हे अपने विरोधी की खूब अच्छी पहचान है। जब यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है, तो इन्हे हटाने के सबसे वाहियाद और कुटिल तरीके अपनाए जाते हैं।
भारतीय जनता पार्टी से बहुत पहले इन्होने नरेंद्र मोदी और अमित शाह की प्रतिभा और राजनैतिक विद्वत्ता को पहचान लिया था, पर इतना करने में भी काँग्रेस पार्टी को बहुत देर हो चुकी थी।
इस जोड़ी, जिसमें प्रशासनिक बल मोदी के पास है और बुद्धि अमित शाह के पास, ने कॉंग्रेस पार्टी और उसके वातावरण की सबसे उचित तरीके से धज्जियां उड़ा के रख दी हैं। कुछ लोग इसे दैवीय न्याय भी कहते हैं।
2013 में तत्कालीन गुजराती मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया गया था। हर गंभीर उम्मीदवार की तरह इनके भविष्य की कुंजी भी उसी राज्य में थी, जिससे देश की किस्मत तय होती है, यानि उत्तर प्रदेश। मोदी के सेनापति माने जाने वाले अमित शाह को उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गयी। पार्टी को इससे कोई दिक्कत नहीं थी, क्योंकि मोदी के किस्मत का फैसला आधार में अटका था, और ये जोखिम उठाने का माद्दा मोदी जी में खूब था। मुख्य मीडिया के कुछ प्रहरियों ने अपनी अस्वीकृति ज़ाहिर की, वहीं कईयों ने इस बात का मज़ाक उड़ाया की भाजपा ने गुजरात के एक नेता को उत्तर प्रदेश में भेजकर अपने भाग्य को बदलने चली थी।
जो इनपर हंस रहे थे, वो या तो पूरी तरह अंजान थे, या फिर उनकी याददाश्त बड़ी कमजोर थी। लुटयेंस मीडिया अपने कूप मंडूक से बाहर निकलती, तो उन्हे पता चलता न की कैसे मोदी के नेतृत्व में गुजरात राज्य में काँग्रेस के अत्याचारी शासन की रीढ़ तोड़ी गयी थी। उन दिनों जिला जिला घूमकर मोदी और शाह बड़ी सफाई से काँग्रेस पार्टी की धुलाई कर रहे थे। जिस सशक्त और आत्मविश्वास से परिपूर्ण भाजपा को आज आप गुजरात में देखते हैं, जो बड़े आराम से हर बार चुनाव जीत जाता है, ऐसे ही नहीं एक रात में बन गया था।
अगले साल के चुनावों के लिए अमित शाह 2013 में ही उत्तर प्रदेश पहुँच गए थे, जिससे वहाँ की विजय के लिए भूमि खड़ी कर सके। कभी उत्तर प्रदेश की आबोहवा ने लेने वाले अमित शाह सिर्फ शास्त्रीय ज्ञान लेकर ही यहाँ थे। कभी कद्दावर रही इस पार्टी की राज्य इकाई अब दो क्षेत्रीय सुरमाओं के बीच फंसी हुई थी। मैं इनके कायापलट के बारे में कुछ भी लिखूँ, वो कम पड़ेगा।
अमित शाह ने यहाँ का लहजा ही बदल दिया। तब अल्पसंख्यक समुदाय का राज्य में सिक्का चलता था और अखिलेश यादव के नेतृत्व में हुये मुजफ्फरनगर दंगे इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण थे। शाह ने समस्त बहुसंख्यक समुदाय को एक ही छतरी के अंदर ला खड़ा किया और जाति आधारित राजनीति पर अपनी तलवार चलाते हुये क्षेत्रीय सूरमाओं की रोजी रोटी ही उनसे चीन ली। उन्होने अपने अभियान सबसे दूर दराज़ के गांवों में भी चलाये, जहां छोटे छोटे ट्रक मोदी के विकास का सँदेसा ले जाते थे। उन्होने पार्टी को मोदी जी के बनारस से चुनाव लड़ने की इच्छा के लिए मनवाया, जो भारत के इतिहास, संस्कृति और धर्म के हिसाब से इस शहर की अहमियत समझते हुये एक अहम संदेश दिया गया था। फिर क्या था, इनहोने अस्सी सीटों में से 73 पर अपना कब्जा जमा लिया।
अमित शाह अब सामने आ चुके थे। 16 मई 2014, को पूरे हिंदुस्तान ने दो नेताओं को राष्ट्रिय मंच पर अहम नेता बनते हुये देखा। एक प्रधानमंत्री बनेगा और दूसरा भारत के राजनैतिक पटल को ही बदलने में अपना समस्त समय व्यतीत करेगा। जैसे ही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, अमित शाह पार्टी अध्यक्ष बन गए। पार्टी, और बाकी सभी को इस बात का पूरा ज्ञान था की इनसे योग्य इस पद के लिए कोई नहीं।
अमित शाह के अंतर्गत महाराष्ट्र में पहली बार भाजपा ने सरकार बनाई। पूरे चुनावी रणनीति का ताना बाना अमित शाह ने खुद बुना, और अभी हाल में ही हुए निकाय चुनावों की बात की जाऊए, तो पार्टी ने राज्य में लंबे समय के लिए अपना वर्चस्व जमा लिया है। इनहि के नेतृत्व में सरकार ने पूर्वोत्तर में पहली बार अपनी सरकार बनाई, जब इनहोने असम तक अपना विजय रथ चलाया। फिर हरियाणा में भी पहली बार इनकी सरकार बनी, और जम्मू कश्मीर के चुनाव में जम्मू क्षेत्र में इनहोने तो सूपड़ा ही साफ कर दिया। झारखंड, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश तीनों में इनहोने वापस अपनी सत्ता हासिल की और आम आदमी के दिलों में भी जगह बनाई। उत्तर प्रदेश में विजय इसलिए भी प्रभावशाली थी, क्योंकि इससे यह संकेत जा रहा था की 2014 जैसे समर्थन में कोई कमी नहीं आई है। योगी आदित्यनाथ की नियुक्ति ने तो सारा गेम ही पलट डाला और काँग्रेस वातावरण के पेट पे एक और लाट पड़ी। .
अमित शाह के कौशल पर लोग तभी पकड़ बना पाते हैं जब इनके चुनावी शतरंज की चालों से इतर की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला जाता है। काँग्रेस से गोवा और मणिपुर में कम सीटें जीतने के बावजूद ये समझने पे के किसी दल के पास पूर्ण बहुमत नहीं है, शाह ने तुरंत अपनी चालें चली। दोनों राज्यों में तुरंत गठबंधन बनाते हुये इनहोने काँग्रेस पार्टी के पलक झपकने के पहले ही सरकारें बना दी, और बहुमत के दर से ऊपर भी निकल गए। राष्ट्रपति चुनावों में इनहोने एक ऐसे उम्मीदवार को चुना, जो दलित तो था ही, और साथ में कोई पार्टी उसका खास विरोध न कर सके। न चाहते हुये भी कईयों को मजबूरन कोविन्द का समर्थन करना पड़ा और वे धूम धड़ाके के साथ राष्ट्रपति बने। पर इनहोने जो बिहार में दंगल खेला, उसका तो अभी तक कोई तोड़ नहीं दिखा।
लोग कहते हैं की अमित शाह एक चुनाव को तब तक हारा हुआ नहीं समझते, जब तक वो खत्म न हो गया हो। चुनाव हारने के बाद तक यह किसी राज्य को हारा हुआ नहीं समझते। नितीश कुमार की लालू के साथ संधि के बाद की बेचैनी का फायदा उठाते हुये इनहोने महागठबंधन को ही अझेल बना दिया। जिस शाम नितीश गरजे, उस समय कार्यवाहक राज्यपाल शहर में थे और लालू की रांची में अगली सुबह एक कोर्ट की सुनवाई थी। भाजपा के विधायक स्टैंड बाइ मोड में थे। 5 बजे शपथ लेने की अफवाहें काफी गरम चल रही थी और इससे घबराकर राजद ने ठीक सुबह ग्यारह बजे राज्यपाल से समय मांगकर सरकार बनाने का दावा पेश किया। पर दिक्कत यह थी की शपथ समारोह का समय ही सुबह दस बजे, क्यों नितीश बाबू अपना दावा रात के बारह बजे ही ठोंक चुके थे। अब भाजपा बिहार सरकार का हिस्सा है, जदयु अब भाजपा शासित केंद्र सरकार का हिस्सा बनेगी और उनके सांसद अब संसद की दुष्टों से रक्षा भी करेंगे। आखिरकार लालू यादव को उनही की माँद में बुरी तरह पछाड़ा गया।
अमित शाह ने जो उपलब्धियां गिनाई हैं, वो अपने आप में अद्भुत हैं। हर राज्य में भाजपा अपनी पैठ जमा रही है, जहां कभी एक कुशल खिलाड़ी बनने की नहीं सोची, वहाँ पर अपने वोट शेर की अकल्पनीय प्रगति की साक्षी बन रही है, चाहे वो पश्चिम बंगाल हो, केरल हो, तमिल नाडु हो, या तेलंगाना। पार्टी कुछ ही समय में उदिशा में बीजद की और त्रिपुरा में लाल सलाम के किले गिराने को पूरी तरह तैयार है। देश के एक हिस्से में शाह अधिक समय तक नहीं टिकते। हर राज्य का हर दिन ये दौरा करते रहते हैं। पर जहां भी रहते हैं ये, वहाँ से ये दुनिया की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी की कमान संभालते हैं। इनहोने ही तत्परता से सदस्यता अभियान को चलाया था, और अब पार्टी के 11 करोड़ सदस्य है। ये हर प्रकार के काम करने में कुशल है, और इनकी कर्म ही इनकी पूजा है। एक समय ये उत्तर प्रदेश में अपने कैडरों को संबोधित कर विपक्षी विधायकों का भाजपा में स्वागत करेंगे और योगी आदित्यनाथ के साथ आगे का खाका बुनेंगे। पर उसी वक़्त, अमित शाह अपने शत्रु अहमद पटेल को चकमा देते हुये उन्हे राज्य सभा की सीट दिलवाने से वंचित भी करेंगे और बिहार में काँग्रेस विधायकों की नब्ज़ टटोलते हुये मेघालय में सरकार परिवर्तन की नींव रखेंगे।
राजनेता तो एक क्षेत्र या राज्य अपने कब्जे में नहीं रख पाते, यहाँ तक की उनमें सबसे चतुर लोगों का भी अपना काल उन्हे निगलने के लिए तैयार रहता है। अमित भाई इस बात से कतई अंजान नहीं थे, उन्हे भी पता था की मोदी जब भारतीय राजनीति के शिखर पे पहुँच जाएंगे, तो उसके बाद उस सीधी पर अगला कदम उस करिश्मे को संभालना होगा। जिस तरह भाजपा ने अपने आप को संभाला है, और अपनी क्षमताओं का प्रचुर उपयोग करते हुये इनहोने हर क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित किया है, इतना की कभी पूरे देश को अपनी गिरफ्त में रखने वाली काँग्रेस पार्टी के कब्जे में अब सिर्फ पाँच राज्य ही बचे हैं:- कर्नाटक, पंजाब, हिमाचल, मेघालय और मिज़ोरम।
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