ज़ुबान या कलम से निकले सभी शब्दों में सबसे भावभीनी विदाई अगर पूर्व राष्ट्रपति, श्रीमान प्रणब मुखर्जी को किसी ने दी है, तो वो आश्चर्यजनक रूप से कभी काँग्रेस के माने हुये सूरमा रहे, मणि शंकर अय्यर के कलम से निकली। जितना इनहोने पढ़ा है, जितना इनका विदेशों से प्राप्त अनुभव है, और साथ ही साथ इन्ही के शब्दों में जितने यह संविधान के प्रहरी रहे हैं, उस हिसाब से इन्हे प्रणब द को एक आम काँग्रेस वाले की हैसियत पर ला पटकने से पहले एक बार सोचना भी चाहिए था। 2012 से पहले इनका राजनैतिक मोह चाहे जो रहा हो, प्रणब दा उससे ऊपर उठते हुये भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति बने।
राजनीति में अपने विशाल अनुभव के कारण प्रणब दा ने इस बात का सदैव ध्यान रखा की राजनैतिक मतभेदों में वो थोड़ी समझदारी दिखा सकें। जनता इन्हे इसलिए नहीं पूजती क्योंकि ये काँग्रेसी थे, बल्कि इसलिए की ऐसे उछिद्र संगठन से इतने वर्षों तक जुड़े रहने के बावजूद इनहोने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार का कुशल मार्ग निर्देशन किया। अटल बिहारी वाजपयी को कई लोग गलत पार्टी में सही बंदा बताते थे, और शायद यही बात प्रणब दा पर भी सटीक रूप से बैठती है।
1969 से 2012 तक, लगभग 43 साल तक प्रणब मुखर्जी ने काँग्रेस और गांधी वंश को अपनी सेवाएँ प्रदान की। इन्दिरा गांधी द्वारा अपने प्रशासनिक कौशल के लिए चुने गए प्रणब दा ने तब भी इन्दिरा जी का साथ दिया जब उन्होने लोकतन्त्र पर आघात करते हुये आपातकाल लागू करवाया। धीरे धीरे अपने कद और रसूख में बढ़ते हुये प्रणब दा इन्दिरा गांधी की हत्या होते होते वित्त मंत्री के पद तक पहुँच गए थे। क्योंकि वे सबसे वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री थे, और इन्दिरा गांधी के चहेते भी थे, इसीलिए ये धारणा थी की प्रणब दा ही अब ये पद संभालेंगे। हालांकि प्रणब दा ने इस बात से हमेशा इंकार किया है की उन्हे प्रधानमंत्री के पद की लालसा थी, पर इससे कोई इंकार नहीं करेगा की उन्हे बुरा लगा होगा, जब उनसे कम योग्य और कम अनुभवी, राजीव गांधी को वो कुर्सी प्रदान की गयी। दोनों में कभी भी नहीं बनी। यहाँ तक की इन्दिरा गांधी की कैबिनेट के सबसे महत्वपूर्ण सदस्यों में से एक प्रणब मुखर्जी को राजीव गांधी के मंत्रालय में मंत्री पद के लायक ही नहीं समझा गया। उन्हे बंगाल काँग्रेस के मुखिया के तौर पर भेजा गया, और फिर वो पद भी उनसे छीन लिया गया। एक समय तो इन्हे पार्टी से ही निष्कासित कर दिया गया था।
काँग्रेस पार्टी के बाहर तब प्रणब दा की किस्मत इतनी मजबूत न थी, और उन्हे आखिरकार राजीव गांधी से थोड़ी सुलह के बाद पार्टी में वापस आना ही पड़ा। जब राजीव गांधी की हत्या हुई, तब अफवाहें फिर उड़ने लगी की प्रणब दा को प्रधानमंत्री की कुर्सी मिलने वाली है। पर इस बार एक वयोवृद्ध नेता, पमुलपारथी वेंकट नरसिम्हा राव ने बाज़ी मार ली। वरिष्ठ मंत्री पद तो छोड़िए, इन्हे योजना आयोग के उपाध्यक्ष के पद की पेशकश की गयी, जिसे तब एक राजनैतिक रिटायरमेंट की पोस्ट मानी जाती थी।
प्रणब दा के साथ इस नाइंसाफी पर कभी मणिशंकर अय्यर के मुख से कोई बोल, या आँसू, या विरोध के स्वर नहीं निकले।
ये प्रणब दा ही थे जिनहोने सोनिया गांधी के कद को काँग्रेस में बढ़वाया, जब शरद पवार जैसे लोग सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर पार्टी छोड़ रहे थे। 2004 में जब काँग्रेस सत्ता में वापस आई, तब भी यह था की प्रणब दा इस पद के सबसे बड़े उम्मीदवारों में से एक होंगे। पर इस बार भी उनकी वफादारी को धता बताते हुये सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह को चुना, जो उनके ज़्यादा करीब [और चापलूस] थे। 10 जनपथ से चलायी जाने वाली सरकार में एक बार फिर प्रणब दा नंबर 2 पर रह गए। हैरानी की बात है की इतना होने के बावजूद मणिशंकर अय्यर और उनके जैसे कई काँग्रेस नेताओं ने इस बर्ताव पर विरोध तक नहीं किया। शायद प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद के लिए चुनकर सोनिया गांधी काँग्रेस से उस एक आवाज़ को हटाना चाहती थीं, जो लूट खसोट के युग में भी सद्भावना और अंतरात्मा की आवाज़ समान प्रतीत होती थी।
इसीलिए मैं चौंक जाता हूँ जब ये देखता हूँ की मणिशंकर अय्यर अब चाहते है की प्रणब मुखर्जी काँग्रेस को इस रसातल से पुनः शिखर पर ले जायें। जो पार्टी वंशवाद को योग्यता या अनुभव के ऊपर रखती हो, उसमें ये असंभव है की प्रणब दा के शब्द कोई मायने रखेंगे। जब तक काँग्रेस के वे सदस्य थे, तब तो कभी ऐसा नहीं हुआ। ‘प्रणब दा आपका स्वागत है’ के झंडे लहराने के बजाए मणिशंकर अय्यर को देखना चाहिए की प्रणब मुखर्जी जैसे प्रतिभावान नेता के साथ गांधी काँग्रेस ने इतना बुरा बर्ताव कैसे किया। प्रणब मुखर्जी किसी मणि के समान अमूल्य है, ये सभी जानते हैं। बात तो यह गौर करने लायक है की काँग्रेस के साथ इतने साल तक जुड़े रहने के बावजूद उन्होने अपनी चमक बरकरार जो रखी थी।