बीजेपी वो पार्टी है जो नेताओं की युवा नेताओं को बड़े करीने से तराशती है। और देवेन्द्र फड़नवीस एक ऐसे ही युवा नेता है जो अपने समकालीन युवा नेताओं की अगली पंक्ति में है। इनमें बुद्धिमता कूट-कूट कर भरी हुई है। ये बोलते भले ही कम हों, पर इनके दिमाग की धार कुछ और ही किस्से बयां करती है। इनके चेहरे पर हमेशा मुस्कान की एक झलक मौजूद रहती है।
जब भाजपा ने ऐसे एक युवा, और स्वच्छ छवि वाले चेहरे को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पे नियुक्त किया, तो चर्चाओं का बाज़ार काफी गरम हो गया था। राजनैतिक पंडितों को एक बार फिर मुंह की खानी पड़ी थी। पूर्व नागपुर महापौर और तीन बार के विधायक, 44 वर्षीय देवेन्द्र फड़नवीस, जो महाराष्ट्र के राजनैतिक पटल पर इतने जाने माने नाम नहीं थे, को अचानक से महाराष्ट्र के राजनीति की मुख्य धारा में ला पटका गया। पर धीरे धीरे ही सही, फड़नवीस साहब ने सिद्ध कर दिया की आखिर मोदी और शाह की जोड़ी ने उन्हें महाराष्ट्र की कमान क्यों सौंपी थी।
पर देवेन्द्र फड़नवीस की नेतृत्व क्षमता की असल परीक्षा तब हुई जब इन्हे बीएमसी चुनावों में अपने सबसे कठिन प्रतिद्वंदी, शिव सेना का सामना करना पड़ा। पूरा फड़नवीस अभियान सुशासन, पारदर्शिता, विकास और छत्रपति शिवाजी महाराज के आह्वान पर केन्द्रित था, और बीएमसी विजय अपनी नीतियों को करीने से अमल में लाने का बेजोड़ नमूना था। सीएम फड़नवीस ने बीएमसी चुनाव नाम की मुसीबत का डटकर सामना भी किया और इस चुनाव को इन होने अपने राज्य सरकार के लिए एक रेफेरेंडम के तौर पर परिवर्तित भी किया। उन्होंने उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल किया, जिनके विशेषज्ञ नरेंद्र मोदी बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्होंने शिव सेना के प्रपंच को अकेले ही दम धराशायी कर दिया और फिर खुद ही विनम्रता से सेना को कमान संभालने की दरख्वास्त की, ताकि गठबंधन बनी रहे।
इनकी इसी प्रशासनिक कुशलता को समझते हुए प्रधानमंत्री मोदी जी और अमित शाह जी ने इन्हें एक असंभव से लग रहे युद्ध के सेनापति के तौर पर नियुक्त किया है। जी हाँ, सीएम फड़नवीस अब 2019 में केरल के चुनाव अभियान की कमान संभालेंगे।
केरल – वो दक्षिणी वामपंथी किला जिसके बारे में दो बातें बड़ी मशहूर हैं – वहाँ जारी वामपंथियों और आरएसएस स्वयंसेवकों में भिड़ंत और काँग्रेस और वामपंथियों के बीच व्याप्त वो मौन साझेदारी, जो ये सुनिश्चित करे की भाजपा इस राज्य में कोई सेंध न लगा पाये। पर इनके सारे मंसूबों पर एक तरह से पानी फिर गया, जब वाम मोर्चा और संयुक्त राज्य मोर्चा के गठजोड़ को मात देते हुए राजग ने इस बार विधानसभा चुनावों में अपने लिए खाता खोला। भाजपा ने इस बार एजहवा समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाली भारत धर्म जनसेना, जनथिपथ्य राष्ट्रीय सभा [आदिवासी नेता सीके जानु के नेतृत्व वाली], केरल काँग्रेस [पीसी थॉमस गुट वाली] और जेएसएस [राजन बाबू] जैसे दलों के साथ मिलकर गठबंधन बनाया। नेमोम से अप्रत्याशित प्रदर्शन करते हुये भाजपा उम्मीदवार ओ राजगोपाल ने भाजपा को केरल में पहली बार विजय भी दिलाई।
अब चूंकि केरल में सेंध बना ही ली है, इसीलिए अब वाम मोर्चा के लिए भाजपा भविष्य में एक कड़ी चुनौती बनता प्रतीत हो रही है, और विपक्षी गुट का दर्जा हासिल करने को बेताब खड़ा है। भाजपा का वोट प्रतिशत काफी हद तक बढ़ा है, पर ये उसे यह सीट में नहीं परिवर्तित कर पाये हैं। अब वाम मोर्चा और संयुक्त मोर्चे के गठजोड़ से राजग को एक वैचारिक लड़ाई लड़नी पड़ रही है। पर जब से राज्य में ओ राजगोपाल ने सेंध लगाई है, तब से इस राज्य में मानो भगवा रंग बहार बन कर आई है। हाल ही में आरएसएस प्रमुख मोहन भगवत द्वारा फहराया गया झण्डा इसी बदलाव का सूचक है।
कमजोर होती काँग्रेस और घमंड में फूली वाम मोर्चा भाजपा के लिए केरल में एक स्वर्णिम अवसर के समान है। शायद इसीलिए सीएम फड़नवीस को मोदी शाह की जोड़ी ने यह ज़िम्मेदारी सौंपी है। लोगों से इनका जुड़ाव अच्छा है, इनके प्रशासनिक योग्यताओं का कोई सानी नही, पर जिसमें ये सर्वथा उपयोगी हैं, वो है चुनाव प्रचार। अभी भी केरल में जड़ें जमाने के लिए भाजपा के पास पर्याप्त समय बचा है, और ड्राइविंग सीट में फड़नवीस के साथ होने से अब उम्मीद और भी ज़्यादा उज्ज्वल लग रही है।