बीते दिनों की बात हो गयी जब आपको त्यौहार की तिथि देखने के लिए कैलेंडर का रुख करना पड़ता था अब सोशल मीडिया के ज़माने में त्योहारों की तिथि एक माह पहले ही पता चल जाती है | जब एक महीने पहले से लातूर का सूखाग्रस्त कुंवा और उसके आसपास जमी भीड़ वाली सालों पुरानी ब्लैक एंड वाइट फोटो दिखा कर इमोशनल करके समझाया जाता है की महाराष्ट्र के किसान सूखे से मर रहे है ऐसी पोस्ट तथाकथित नवनिर्मित स्वघोषित पर्यावरणवादियों द्वारा सोशल मीडिया पर दिखें तो समझ जाइये अब होली आने वाली है | दूध भगवान पर चढ़ाकर नाश करने से अच्छा है उन गरीब बच्चों को दान करने वाली पोस्ट करके साथ में गरीब बच्चो की फोटो चिपकाये हुए पोस्ट आने लगे तो समझ जाइए महाशिवरात्रि आने वाली है | यही नहीं यही लिबरल्स गैंग जब अचानक से पर्यावरणवादी बन जाए चिकन कबाब खाते हुए पोस्ट लिखे की पशुओं की रक्षा करे तो समझो दक्षिण में जलिकट्टू होनेवाला है | और पर्यावरण, प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण की बात करने लगे तो समझिये दिवाली आ रही है | सब कुछ कितना तो आसान कर दिया इन लोगो ने बिना कैलेंडर देखे आप को सब त्यौहार पता चल जाते है | ऐसा ही कुछ कुछ देखने को मिल रहा है जब पिछले दस दिनों से सोशल मीडिया में दिवाली के महापर्व सम्बन्ध में सन्देश, पोस्ट आने लगी है |
फिर जैसे ही करवा चौथ आने वाला होता है एक सप्ताह पहले यह पर्यावरणवादी अचानक से नारीवादी होने लगते है | पर्यावरण को भूल कर नारीवाद पर पोस्ट करने लगते है | पति के लिए उपवास करना इन्हें रास नहीं आता क्यूंकि ये तो प्रतिगामी यानी की regressive सोच है | मानसिक गुलामी समझा जाने लगता है | फिर महाशिवरात्रि पर आ जाइए तो आपको यही लोग कहेंगे भगवान शंकर की पूजा तो करिए लेकिन शिवलिंग पर दूध मत चढ़ाइए | दूध चढाने से भगवान खुश नही होगे बल्कि यही दूध आप गरीबों में बाँट दीजिये कहकर आपको हर सिग्नल चौराहे पर बैठे गरीब भूखे बच्चों की याद दिलाई जाएगी | फिर सालभर इन्हें वो बच्चे कभी नजर नहीं आते है | दूसरी गौर करने वाली बात यह है की येह सब सन्देश सिर्फ आपको सभी हिन्दू त्योहारों के दो सप्ताह पहले से ही आना शुरू हो जायेगे फिर आपको ईद, क्रिसमस, अंग्रेजी न्यू इयर, बकरी ईद, रमजान के मौके पर कभी नहीं दिखेंगे | मजेदार बात यह है की जो लोग दूध न चढाने की और पटाखे न फोड़ने की सलाह देंगे और ऐसे सन्देश भेजेंगे वही लोग आपको बकरी ईद पर क्रिसमस पर बधाई देते हुए नजर आएंगे |
यह लिबरल्स मानसिकता जनवरी के त्योहारों से शुरू होकर दिवाली तक तीव्र होने लगती है, दशहरा और दिवाली तक यह मानसिकता अपने पूरे चरम पर होती है | ब्राह्मण का विरोध करने वालों को दशहरे के रावण में इन्हें हीरो नजर आता है | जिन्हें पानी का वैज्ञानिक फार्मूला तक नहीं पता वो लोग भी आपको यह बतायेंगे की दिवाली के पटाखों से प्रदूषण में कितने प्रतिशत नाइट्रोजन और कार्बन होता है | यह साबित कर ही देंगे की पूरे साल में पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान दीवाली के दिन फोड़े जाने वाले पटाखों से निकलने वाली गैस से ही होता है। भले इन्हें दुर्गा नवमी और राम नवमी का अंतर न पता हो (कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी जी को सच में नहीं पता था) लेकिन यह आपको यह बताने से नहीं चुकेंगे की रावन क्यों महान था और कितना ज्ञानी था और श्रीराम ने कैसे रावण पर अत्याचार किया था | इसे कहते है तथाकथित बुद्धिजीवियों की पुरोगामी माने प्रोग्रेसिव सोच !
दिवाली है हिन्दुओं का महत्वपूर्ण त्यौहार :
दिवाली आने वाली है दिवाली उत्साह और दीयों का त्यौहार है | रौशनी का यह पर्व अँधेरे से उजाले की तरफ जाने का त्यौहार है | इसी दिन भगवान श्रीराम रावण का वध कर धर्म की स्थापना कर अयोध्या लौटे थे और उनके सम्मान में पूरे अयोध्या राज्य दीयों की रौशनी से जगमगा गया था | दरअसल ये त्यौहार सिर्फ रौशनी का ही नहीं बल्कि अधर्मियों पर धर्म की विजय के उत्साह का त्यौहार है यह त्यौहार सकारात्मकता का है | ऐसे में दिवाली की शुभकामनाएं भरे सन्देश आने शुरू हो जायेंगे | इसके एक सप्ताह पहले कुछ सन्देश आयेंगे जिसपर विचार करने की जरुरत है | यह सन्देश होते है दिवाली में क्रैकर्स यानी पटाखे न जलाने के क्योंकि पटाखों से, वायु प्रदूषण बढ़ जाता है ऐसा इस संदेश में दर्शाया जाता है | बहुत ही होशियारी से आपको सहमत करा दिया जाता है की पटाखे पर्यावरण के लिए कितने ख़राब है और इससे प्रदूषण होने पर कितना खतरनाक हो सकता है |
दिवाली जैसे महा पर्व पर इनका यह पर्यावरण वाद प्रचंड चरम पर होता है | इन्हें साल भर जिस प्रदूषण का ख़याल नहीं आया अचानक से दिवाली पर ऐसे लगने लगेगा मानो पुरे ब्रह्माण्ड का तापमान सिर्फ दिवाली के दिन से ही बढ़ गया हो, ओजोन की लेयर दिवाली के पटाखों से ही कमजोर हुई हो, एक दिन के ध्वनि प्रदूषण के जैसे सबके कान के परदे ही फटने वाले हो और पूरा ब्रह्माण्ड धुंआ-धुंआ हो रखा हो वरना क्रिसमस और नए साल के पटाखे तो इको-फ्रेंडली होते है बिना धुएं और बिना आवाज के फिजाओं में एक्स्ट्रा ऑक्सीजन छोड़ रहे होते है | दिवाली में कम खर्च करें पटाखे न चलाकर पर्यावरण को बचाने में सहयोग करें कम खर्च करके बचे पैसे समाज कार्य में लगायें जैसे पोस्ट से सोशल मीडिया भरा पड़ा है | लेकिन मजेदार बात यह है की दिवाली पर कम खर्च करने की मुफ्त सलाह देनेवाले यह लोग खुद कैफ़े कॉफ़ी डे में तीन सौ रुपये की कॉफ़ी की चुस्कियां लेते हुए अपने 60 हजार रुपये के आई फोन पर यह पोस्ट कर रहे होते है | लेकिन आप इन्हें यह नहीं पूछ सकते की 10 की कॉफ़ी तीन सौ रुपये में पीने की क्या जरुरत है क्योंकि यह तो अभिव्यक्ति की आज़ादी पे खतरा माना जायेगा | यही तो है इनकी मॉडर्न लिबरल प्रोग्रेसिव सोच |
आखिर क्या एजेंडा है ऐसी पोस्ट करने के पीछे :
अपनी संस्कृती को खोकर कोई भी समाज या राष्ट्र अपना सम्पूर्ण विकास नहीं कर सकता और अगर किसी राष्ट्र को या समाज को तोडना है, उसे बांटना है तो उसकी जड़ पर यानी उसकी बरसों पुरानी संस्कृती, रीती-रिवाजों पर वार करना होता है | ठीक वैसे ही हजारों वर्षों पुराने इस राष्ट्र को विश्व गुरु बनने से रोकना हो और तोडना हो तो सदियों पुरानी हमारी वैज्ञानिक संस्कृती और सनातन धर्म की रीती-रिवाजों पे वार करना होगा | हिन्दुओं को उनके जड़ से अलग करना होगा उन्हें उनके वैज्ञानिक धर्म, प्रथा, त्यौहार, रीती-रिवाज से अलग करना होगा | बस यही अलग करने की अगली कड़ी है जिसमें कभी पर्यावरण, कभी पानी की कमी, कभी पेड़-पौधों का वास्ता देकर भोले हिन्दुओं पर इमोशनल अत्याचार कर उन्हें उनकी त्योहारों से दूर किया जाए ताकि आगे चलकर हिन्दू अपनी ही संस्कृती का पतन होता देख खुश हो और उन्हें दिग्भ्रमित किया जाए | जिससे इस राष्ट्र को तोड़ने का एजेंडा कामयाब हो | इसे ही ‘फेस्टिवल शेमिंग’ भी कहा जाता है | और इसे यह लिबरल्स पर्यावरणवादी प्रोग्रेसिव बता कर बरगलाते नजर आते है ताकि हिन्दुओं को अपने ही त्योहारों पर शर्म आने लगें |
कभी करवा चौथ पर महिलाओं के अधिकारों के लिए इनका अंतर्मन जाग उठता है लेकिन जैसे बहु-विवाहो, तीन-तलाक और बुरका-प्रथा की बात आती है यह सब त्यौहार इन्हें प्रोग्रेसिव नजर आने लगता है | भारत जैसे देश को नारीवाद का पाठ पढ़ाने वालों को यह नहीं भुलाना चाहिए की यहाँ सदियों से नारियों ने हुकूमतें चलाई है यहाँ युगों से नारियों को पूजा गया है | हिन्दुओं को पर्यावरण संतुलन का पाठ पढ़ाने वाले शायद ये नहीं जानते की यह सनातन धर्म ही है जिसमें प्रकृति को ही धर्म माना गया है, जहाँ धरती नदियाँ पशु और पौधों को भी मां का दर्जा दिया गया है जहाँ कण कण में शंकर है, जहाँ पौधों में भगवान् बसते है | जहाँ पेड़ पौधों धरती नदियों को इतना महत्व दिया गया है की उसे विज्ञान से जोड़ने के लिए इन्हें भगवान का दर्जा तक दिया गया जिससे रोजमर्रा की जीवन में हम इसे अपना सकें भगवान के रूप में ही सही, आज उसी हिन्दुओं को कुछ मुट्ठीभर हिन्दू विरोधी तत्व पर्यावरण का पाठ पढ़ाते नजर आते है तो इनकी नियत पर शंका होना अपरिहार्य है |
हिन्दू त्योहारों पर ही पर्यावरणवाद को ढकोलसा क्यूँ?
क्या कारण हो सकता है की जिन लोगों को क्रिसमस के पटाखों से डर नहीं लगता लेकिन दिवाली के पटाखों से लगता है | न्यू इयर के पटाखे प्रदूषण नहीं फैलाते है लेकिन दिवाली के पटाखे ब्रह्माण्ड भर को प्रदूषित कर देते है | होली पानी के बर्बादी का त्यौहार लगता है लेकिन ईद पर बर्बाद पानी प्रोग्रेसिव सोच लगती है | जलिकट्टू क्रूर रिवाज लगता है, लेकिन बकरी ईद पशु प्रेमी त्यौहार माना जाता है | दही हांड़ी पर मानवाधिकार याद आने लगता है लेकिन आतंकी हमला भटके हुए नौजवान द्वारा किया गया मजाक लगता है | जब पर्यावरण वाद का चोला पहन हिन्दू त्योहारों पर ही सेलेक्टिव आउटरेज हो तो संदेह होना लाजिम है और इन्हें समय रहते पहचानना होगा की आखिर ये कौन लोग है और इन्हें इनके मकसद में कामयाब न होने देने की कसम खानी होगी |
कैसे बचें हिन्दू विरोधी तत्वों से :
ये सिर्फ आपके त्योहारों तक प्रश्न नहीं है बल्कि यह प्रश्न है आपकी सोच आपकी हजारों वर्षों की परंपरा सदियों के स्वर्णिम इतिहास का और आपके आन बान शान आपके भारत राष्ट्र का | यह आपके संस्कृति पर आघात करने का एक मकसद है इसे पहचानिये | हमें चाहिए की अपने त्योहारों को और जोर शोर से मनाएं, अपनों और परिजनों के लिए उपहार भी खरीदें, पर्यावरण की चिंता एक दिन ही नहीं पूरे साल करें | मिटटी के दीयों का इस्तेमाल करें | गरीबों को दान भी करें | पानी भी बचाएं पर्यावरण का ख़याल भी रखें लेकिन दिवाली जरुर मनाएं | खुद के संस्कृती को खोकर और मूल्यों को दांव पर रख हमें पर्यावरण बचाने के पीछे इनके मकसद को पहचानना होगा | त्यौहार मनाने के तरीके बदले जा सकते है लेकिन त्योहारों को न बदलिये |
क्योंकि आज इन्हें पटाखों से तकलीफ है कल इन्हें मिठाइयों से भी परेशानी होगी, इन्हें मूर्ति पूजने से तकलीफ होगी, इन्हें लक्ष्मी आरती से भी तकलीफ होंगी और वो दिन दूर नहीं होगा जब इन्हें दिवाली से ही परेशानी होगी दर असल तकलीफ इन्हें त्योहारों से नहीं है अस्तित्व से है और हमें इस मानसिकता के पीछे के मकसद को समझने की जरुरत है |