श्राप क्या है? इससे सम्बंधित कथा
जो लोग दशहरा का उत्सव मनाते हैं वो अच्छे से जानते हैं कि इसे क्यों मनाया जाता है। इसे बुराई के प्रतीक लंकापति रावण के ऊपर अच्छाई के प्रतीक श्री राम के जीत के रूप में दर्शाया गया है। भगवान विष्णु के 7वें अवतार के रूप में श्री राम ने रावण और कुम्भकरण जो भगवान विष्णु के ही द्वारपाल (जया-विजया) के अवतार थे और 4 कुमारों द्वारा मिले श्राप से उनको मुक्त कराने के लिए इक्ष्वाकु कुल में जन्म लिया था।
भागवत पुराण में इस कथा का बेहतर विवरण किया गया है। चार कुमार सनक, सनंदन, सनातन और सनतकुमार जो उच्च आध्यात्मिक योग्यता वाले व्यक्ति थे, वो वैकुण्ठ में भगवान विष्णु के निवास पर आये थे। अपने उच्च आध्यात्मिक तपस्या के कारण उनकी उम्र अधिक नहीं लगती थी किन्तु वे अत्यधिक बुद्धिमान पुरुष थे। उन्हें कम उम्र के बच्चें समझ भगवान विष्णु के द्वारपाल जया-विजया ने उन्हें भगवान से मिलने नहीं दिया। इस पर क्रोधित होकर उन 4 कुमारों ने जया-विजया को देवत्व खोकर सामान्य मनुष्य के रूप में जन्म लेने का श्राप दिया था।
उनके जाने के पहले भगवान विष्णु वहाँ पहुँच गए और उन्होंने चारों कुमारों से श्राप वापस लेने का निवेदन किया। भगवान विष्णु के आने से उनका गुस्सा शांत हुआ और उन्होंने जया-विजया को दो विकल्प दिए। पहला यह कि भगवान विष्णु के भक्त के रूप में 7 जन्म लें या दूसरा यह कि भगवान विष्णु के दुश्मन के रूप में 3 जन्म लें, इसके बाद ही वो वैकुण्ठ में पुनः अपनी स्थिति को हासिल कर सकेंगे। उन दोनों ने ही कम जन्म को देखते हुए दुसरे विकल्प को चुना था।
सतयुग में अपने पहले जीवन में वो हिरण्यक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में दो भाई बनकर पैदा हुए। और भगवान विष्णु वराह और नरसिंह अवतार द्वारा क्रमशः दोनों का वध हुआ। इसके बाद त्रेतायुग में रावण और कुम्भकरण के रूप में यह भाई बनकर पैदा हुए। जिसमें विष्णु के 7वें अवतार भगवान श्री राम द्वारा इनका वध किया गया। तीसरा जन्म इनका द्वापर युग में शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में हुआ था। इन भाइयों के रूप में जन्में इनके ताकत में लगातार गिरावट देखी जा सकती है, जहाँ भगवान विष्णु को हिरण्यक्ष और हिरण्यकश्यप को मारने के लिए अलग-अलग अवतार लेना पड़ा लेकिन उसके बाद रावण और कुम्भकरण को उनके एक ही अवतार (भगवान राम) द्वारा मार गिराया।
कलयुग में जया-विजया अपने श्राप से मुक्त हैं और पुरी और तिरुपति समेत सभी विष्णु मंदिर के द्वार पर आपको देखे जा सकते हैं।
इस पुरे प्रकरण में सनातन धर्म द्वारा उच्च बुद्धि और आध्यात्मिक योग्यता वाले पुरषों के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है, और यह बताया गया है कि वो जो भी भविष्यवाणी करते हैं वो वास्तविकता बन जाता है चाहे वो सर्वोच्च भगवान से भी क्यों ना जुड़ा हो।
हमारे शास्त्रों में श्राप के महत्त्व को परिभाषित करती चार कुमारों और जया-विजया की कहानी एकमात्र नहीं है। उच्च आध्यात्मिक योग्यता वाले पुरुषों और महिलाओं द्वारा मानव जाति के भाग्य को आकार देने के लिए कई बार श्राप दिए गए हैं। अर्जुन द्वारा उसके प्रणय निवेदन को ठुकराने पर उर्वशी ने उसे ‘किन्नर’ बनने का श्राप दिया था जो बाद में ‘अज्ञातवास’ के दौरान अर्जुन के काम आया जिसमे अर्जुन विराटराज के राज्य में किन्नर ब्रिहन्नलला के रूप में दिखा।
परशुराम ने कर्ण को जाति के बारे में झूठ बोलने का दोषी पाया था। जिसके बाद भगवान परशुराम द्वारा कर्ण को दिया गया श्राप उसके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई में अंततः उसकी मृत्यु का कारण बना।
ऋषि भृगु त्रिमूर्ति देवों में श्रेष्ठ देव का आकलन करने निकले, एक एक करके वो ब्रह्मा, विष्णु और महेश के निवास पहुंचे। सबसे पहले वे ब्रह्मा के निवास पहुँचेे। भगवान ब्रम्हा उस समय अपनी पत्नी को वीणा सीखा रहे थे इस वजह से ऋषि भृगु अपनी उपेक्षा से इतने खिन्न हुए कि उन्हें श्राप दिया कि कलयुग में वो धरती के किसी भी मन्दिर में नहीं पूजे जायेंगे।
इसके बाद उन्होंने भगवान शिव के निवास का दौरा किया जहाँ उन्हें भगवान नंदी द्वारा रोक लिया गया। वहाँ उन्होंने श्राप दिया कि शिव को सिर्फ लिंग के रूप में ही पूजा जाएगा।
आखिर जब वह वैकुण्ठ में भगवान विष्णु के निवास स्थान पर पहुँचे, तो वो भगवान विष्णु को सोते देख क्रोधित हो गए और ऋषि भृगु ने उनके छाती पर अपना पैर रख दिया। देवी लक्ष्मी के लिए अपने पति का यह अपमान असहनीय था, और उन्होंने हमेशा ब्राह्मणों को त्यागने का श्राप दिया।
हम इन श्राप का असर समझ सकते हैं कि पुष्कर के अलावा भगवान ब्रम्हा का कोई मंदिर नहीं है, भगवान शिव को हमेशा ‘शिवलिंग’ के रूप में ही पूजा जाता है, और हर कहानी जो हम सुनते हैं उसमें गाँव के ‘गरीब ब्राह्मण’ की बात होती है।
इसीलिए ‘श्राप’ की अवधारणा सनातन धर्म के इतिहास में महत्वपूर्ण घटनाओं की अग्रदूत रही है। यह सनातन धर्म में ‘कर्म’ को दिए सर्वोच्च महत्त्व को भी बताता है, और इसके प्रभाव से सर्वशक्तिमान भगवान भी नहीं बच सकते। ऋषि जो सामान्य सी बात पर श्राप देते हैं वो खुद आवेगी व्यवहार होने पर नहीं बच सकते। उनको तब अपनी गलतियों का अहसाह होता है और उसके बाद वह कुछ उपाय या तपस्या कर उसके निवारण का सुझाव देते हैं।
किसी श्राप का प्रभाव और उसकी अवधि श्राप देने वाले व्यक्ति के आध्यात्मिक योग्यता के स्तर पर निर्भर करता था, और यही एकमात्र योग्यता थी जिसके मदद से दिया हुआ श्राप उस व्यक्ति के जीवन में वास्तविक आकार लेता था। श्राप की शक्ति अक्सर आध्यात्मिक योग्यता हासिल करने पर ही आती थी जो वास्तव में उसकी शक्ति का आधार थी। इसीलिए जो व्यक्ति श्राप देता है वो भी सहता है, जैसे मेनका द्वारा विश्वामित्र की तपस्या भंग करने पर विश्वामित्र ने मेनका को श्राप दिया था जिसके बाद उनकी आध्यात्मिक शक्ति कम हुई थी, वरना वर्षों के तपस्या से अर्जित की हुई ऊर्जा से वह भगवान इंद्र के सिंहासन तक को छीन सकते थे।
तो हम यह मान सकते हैं कि ‘श्राप’ की अवधारणा सनातन धर्म में सही कर्म के महत्त्व को कम करने पर रेखांकित की गई है। एक खुश और सामान्य जिंदगी का रहस्य अच्छे कर्म करने में ही निहित है और बुरे कर्म से कोई परिणाम उत्पन्न होते हैं तो कोई रोना नहीं चल सकता।