अमित शाह को गुजरात में हराने की अहमद पटेल की कुटिल चाल (जो शायद चल भी जाए)

अमित शाह, अहमद पटेल, गुजरात

केवल कुछ महीने पहले ही गुजरात में कांग्रेस संगठन गिरने की कगार पर था। शंकरसिंह वाघेला जो एक समय में भाजपा के ही विद्रोही थे उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह का झंडा फहराया था। जब गांधी परिवार के वफादार अहमद पटेल ऊपरी सदन में लौटने के लिए छटपटा रहे थे, उसी समय कांग्रेस के विधायकों ने महत्वपूर्ण राज्य सभा चुनावों के दौरान पार्टी से दूर होना शुरू कर लिया था। राज्य के बाढ़ में फंसे होने के बाद भी कांग्रेस अपने विधायकों को कर्नाटक ले गई थी। यही वो समय था जब गुजरात हाल के समय में सबसे भयंकर बाढ़ से जूझ रहा था। सब कुछ ऐसा लग रहा था कि गुजरात चुनाव में तैयार होने से पहले ही कांग्रेस की बर्बादी हो चुकी है। ऐसा लग रहा था कि मोदी के जाने के बाद से जो जगह खाली हुई है वह वापस पूरी हो गई और शायद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह द्वारा निर्धारित मिशन 150 का लक्ष्य प्राप्त कर लिया जाएगा। पार्टी आनंदीबेन के कमजोर प्रशासन और विजय रूपानी की कम करिश्माई छवि के बावजूद मजबूती से टिकी रही क्योंकि विपक्ष कांग्रेस सत्तारूढ़ भाजपा की तुलना में बदतर स्थिति में थी। और फिर धीरे धीरे चीज़ें बदलने लगी।

अमित शाह ने अहमद पटेल को राज्यसभा सीट हराने के लिए सारे कार्ड दांव पर लगा दिए। शंकर सिंह वाघेला के विद्रोह और कांग्रेस के विधायकों के टूटने के बाद यह सुनिश्चित नहीं था कि 57 विधायकों के समर्थन वाली कांग्रेस अहमद पटेल को अपने ही घर में जिताने के लिए 45 वोट इकट्ठा करने में सक्षम होगी। लेकिन, भाग्यवश अहमद पटेल की जीत हुई। लंबे समय से कांग्रेस के चाणक्य के रूप में मान्यता प्राप्त अहमद पटेल 45 सदस्य के मत प्राप्त कर राज्यसभा वापस पहुँचे। अमित शाह की रणनीतियों ने निश्चित रूप से कांग्रेस को डरा कर रखा था, परन्तु वह अहमद पटेल ही थे जो अंततः जीतकर राज्य सभा पहुंचे।

अमित शाह और अहमद पटेल के बीच बेहद हुए इस बेहद निजी रणनीतिक युद्ध के कारण गुजरात कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में कुछ उत्साह ज़रूर आया।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि भाजपा गुजरात में मतदाताओं के बीच डिफॉल्ट विकल्प है, यही कारण है कि पार्टी राज्य में इतनी सफल रही है। कांग्रेस ने भाजपा का मुकाबला करने के लिए लगभग भाजपा के तरह की रणनीति को ही अपनाया। अर्थात दक्षिणपंथी सक्रियता, सॉफ्ट हिंदुत्व इत्यादि। बिलकुल भाजपा की तरह। यह प्रक्रिया कांग्रेस पार्टी को कुछ मायनों में नीचे ले आई, मोटे तौर पे कहें तो कांग्रेस गुजरात में ऐसे प्रचार करती रही जैसे वह भाजपा की डुप्लीकेट हो। मतदाताओं ने अपनी समझ से डुप्लीकेट के बजाय असली के लिए वोट देने को प्राथमिकता दी इस प्रकार भाजपा ने बिना किसी परेशानी की 20 साल का लंबा सफर तय किया। जाहिर है नरेंद्र मोदी का करिश्मा और प्रभावी प्रशासन की इन सब में समान रुप से बड़ी भूमिका थी। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने अपनी इस मूर्खता अंततः महसूस किया। बहुत से कांग्रेसी यह देखकर खुश थे कि शंकर सिंह वाघेला पार्टी छोड़ रहे हैं। उनके नेतृत्व के तहत कांग्रेस गुजरात में स्थाई विपक्षी दल भूमिका में बस कर रह गयी थी। अब ऐसा लगता है कि अहमद पटेल गुजरात में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने की योजनाओं में गहराई से शामिल हैं।

नरेंद्र मोदी के दिल्ली पहुंचने के बाद से हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी गुजरात में विरोध प्रदर्शन के चेहरा रहे हैं। जहां हार्दिक पटेल ने आरक्षण के लिए अपनी मांगों में पाटीदार समुदाय की अगुवाई की और ठाकोर ने ओबीसी के लिए वहीं मेवाणी ऊना में हुए दलित विरोध प्रदर्शन का मुख्य चेहरा थे और अपने समुदाय के सुरक्षा के उपायों के मांग कर रहे थे। ऐसा लगता है कि कांग्रेस में गुजरात में सत्ता से भाजपा को विस्थापित करने के एकमात्र उद्देश्य के साथ तीनों नेताओं के साथ औपचारिक/अनौपचारिक साझेदारी किया है। हालांकि अल्पेश ठाकोर, जिनके पिता कांग्रेस नेता थे, औपचारिक तौर पर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए हैं वहीं मेवाणी को भी कांग्रेस के चिन्ह के साथ चुनाव लड़ने के लिए तैयार माना जा रहा है।

हार्दिक पटेल, जो कि हर पार्टी के लिए नफरत और चुनावी प्रक्रिया के लिए घृणा के भाव रखते हैं, कांग्रेस के फायदे के लिए भाजपा के खिलाफ सक्रिय रूप से प्रचार कर रहे हैं। इन ‘यंग टर्क’ का शामिल होना राज्य में कांग्रेस की संभावनाओं को काफी हद तक बढ़ावा देगा। हालांकि यह “इंद्रधनुषी गठबंधन”, भाजपा के खिलाफ आंशिक रूप से सफल हो सकता है, परन्तु इस गठबंधन के अंदर ही उसके खत्म होने के बीज विद्यमान हैं। पाटीदार, ओबीसी और दलितों की मांग पारस्परिक रूप से विरोधी है और उनका मिलना असंभव है। यह शायद बाद में एक चुनौती होगी, लेकिन अभी के लिए अहमद पटेल गांधीनगर में बैठे कांग्रेसी मुख्यमंत्री को देखने के लिए बेताब होंगे।

भाजपा ने भी ये महसूस किया है कि गुजरात चुनाव आसान नहीं होने वाले। जहाँ एक तरफ पार्टी 20 सालों के लंबे समय के शासन के बाद एंटी इनकंबेंसी से जूझ रही है वही पार्टी के पास एक स्थानीय करिश्माई चेहरा नहीं है जो मतदाताओं को बाहर निकलकर भाजपा के लिए वोट देने के लिए प्रेरित कर सकता है। विमुद्रीकरण और जीएसटी जैसे पहल ने गुजरात के व्यापारी समुदाय के बीच भाजपा के बीच मिली जुली राय बनाई है।

राज्य के विभिन्न हिस्सों में “कमल का फूल हमारी भूल” जैसे नारे सुने जा सकते है। यह जीएसटी काउंसिल द्वारा “खाखरा” पर हाल ही में जीएसटी दर कम किए जाने के पीछे भी शायद यही कारण था। भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह द्वारा भी रोड शो और रैलियां करवाई। ऐसी ही एक रैली में मोदी ने “गुजराती अस्मिता” के लिए वोट देने के लिए मतदाताओं को प्रोत्साहित किया। एक अन्य रैली में उन्हें गुजराती में संबोधित करते देखा गया था, जो उनके दिल्ली जाने के बाद से कहीं गुम सा हो गया था। गुजरात में योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं की तैनाती से पता चलता है कि पार्टी कोई चांस नहीं लेना चाहती। हाल ही के दिनों में यहां तक कि सुषमा स्वराज भी गुजराती महिलाओं के लिए आयोजित रैली में भाग लेने वाली थी, जो नहीं हो पाया। इससे स्पष्ट है कि भाजपा गुजरात चुनाव को हल्के में लेने के मूड में नहीं है।

अगर कांग्रेस भाजपा से गुजरात को छीन लेती है तो यह 2019 में होने वाले चुनाव में दिल्ली की सत्ता के लिए पार्टी की विजय यात्रा शुरू हो जायेगी। भाजपा अगर गुजरात में सत्ता बनाए रखती है और अपने मिशन 150 के जितने करीब पहुँचेगी उतने ही अमित शाह देश में सर्वोच्च राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में उभरेंगे और प्रधानमन्त्री मोदी की लोकप्रियता और मजबूत होगी।

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