संसद के इसी सत्र में लेगा ‘तीन तलाक’ का रिवाज अपनी आखिरी सांस

तीन तलाक

तीन तलाक का मुद्दा मुस्लिम महिलाओं के आज़ादी और आत्मसम्मान से जुड़ा है। यह पुरानी एवं एक रूढ़िवादी प्रथा है जिससे मुस्लिम महिलाओं को अनेक तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता रहा है। लेकिन अब देश में मुसलमानों में प्रचलित तीन तलाक पर रोक लगाने के लिए मोदी सरकार कानून बनाने पर विचार कर रही है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में तीन तलाक पर रोक लगाने के लिए विधेयक पेश कर सकती है।

कोर्ट इस मामले में दखल नहीं देगी, सरकार कानून बनाएं

कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक साथ तीन तलाक पर रोक लगाते हुए सरकार को कानून बनाने की सलाह दी थी। चीफ जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस नजीर ने अल्पमत में दिए फैसले में कहा था कि तीन तलाक धार्मिक मसला है, इसलिए कोर्ट इसमें दखल नहीं देगा। सरकार इसमें हस्तक्षेप कर कानून बनाएं।

तीन तलाक का मुद्दा मुस्लिम महिलाओं के आत्मसम्मान से जुडा तो है ही लेकिन ये अब इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक बताया था और इसे एकतरफा और कानून की दृष्टि से खराब करार दिया था। उत्तराखंड की शायरा बानो ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाईं थी और तीन तलाक कहने और निकाह-हलाला के चलन की संवैधानिकता को चुनौती दी थी।

पांच सदस्यीय ‘सेक्युलर’ बेंच ने दिया था फैसला

पिछली सुनवाई में न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर ने कहा था कि तीन तलाक अगर धर्म का हिस्सा है तो अदालत दखल नहीं देगी। पहले हम ये समीक्षा करेंगे कि तीन तलाक धर्म का अभिन्न अंग है या नहीं? इन दोनों मुद्दों को महिला के मौलिक अधिकारों से जोड़ा जा सकता है या नहीं? क्या कोर्ट इसे मौलिक अधिकार करार देकर कोई आदेश लागू करा सकता है या नहीं? सुनवाई में कपिल सिब्बल तीन तलाक के पक्ष में न्यायलय के समक्ष अपना पक्ष रख रहे थे और उनके साथ कांग्रेस नेता और वकील सलमान खुर्शीद भी शामिल थे।

दिलचस्प बात ये है कि इस बेंच को सेक्युलर दिखाने के लिए बेंच में अलग-अलग धर्मों से जुड़े पांच जजों को रखा गया था माने सिख, ईसाई, पारसी, हिंदू और मुस्लिम जज इस पीठ का हिस्सा थे। जिसमें चीफ जस्टिस जे. एस. खेहर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस आर. एफ. नरिमन, जस्टिस यू. यू. ललित और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर शामिल है। राजनैतिक पार्टियाँ तो इसपर अपनी रोटियां सेंक ही रही है लेकिन सुप्रीम कोर्ट भी इसे धर्म के चश्मे से देखने लगा है इसलिए गेंद सरकार के पाले में डाल दी थी।

सरकार का पक्ष है एकदम साफ़

इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार अपना पक्ष पहले ही रख चुकी है। केंद्र की ओर से एएसजी पिंकी आनंद ने कहा था, सरकार याचिकाकर्ता के समर्थन में है कि ट्रिपल तलाक असंवैधानिक है। बहुत सारे देश इसे खत्म कर चुके हैं। सरकार तीन तलाक को मानव अधिकारों के विरुद्ध मानती है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम धार्मिक नेताओं से मुलाकात में अपील की थी कि तीन तलाक के मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा न बनने दें और इसमें सुधार में अग्रणी भूमिका निभाएं।

एआईएमपीएलबी ने बताया था अंदरूनी मामला

हर डिबेट की तरह आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के मौलवी जैसे हर टीवी डिबेट में इसे धार्मिक मामला घोषित करते फिरते है वैसे ही यहाँ भी AIMPLB ने साफ़ सुप्रीम कोर्ट को कह दिया था ये उनका धार्मिक मामला है सरकार और कोर्ट इसमें हस्तक्षेप न करें। बड़ा ही अजीब कानून है इस देश का जो सब के लिए बराबर होने की दुहाई तो देता है लेकिन मुस्लिम महिलाओं को अपना आत्मसम्मान दिला पाने में भी सक्षम नहीं है। माने पुरुष तीन तलाक दे सकते है बिना कोर्ट और जरूरी करवाई के लेकिन महिला नहीं दे सकती क्योंकि वो कमजोर होती है… गजब का तर्क है !

कोर्ट बाकी धर्मों में हस्तक्षेप कर सकती है लेकिन तीन तलाक में नहीं

इस देश के न्यायलय को ये बताने का अधिकार है कि दही हांडी की उंचाई कितने फीट होनी चाहिए, ये बताने का अधिकार है की जलिकट्टू खेला जाना चाहिए या नहीं ये भी बताने का अधिकार है की शनि शिन्ग्नापुर मंदिर में महिलाओं को प्रवेश देना चाहिए या नहीं क्योंकि ये सब तो धर्म से जुड़े मसले नहीं है ये तो समाज को सुधारने के लिए है लेकिन ट्रिपल तलाक में महिलाएं घुट-घुट के आत्मसम्मान के लिए लडती रहें, समाज में बराबरी मांगें तो ये समाज का नहीं धर्म का मामला हो जाता है। हाजी अली में महिलाओं का प्रवेश धर्म से जुड़ा मामला है उसमें न्यायलय का क्या काम? यही तो है मेरे देश की न्याय व्यवस्था !

इस देश में जब-जब मुस्लिम समाज को मुख्य धारा में लाने के लिए या समाज में व्याप्त बुराइयों को मिटाने के लिए आवाजें उठती है तो इस देश की सरकारें और मीडिया ही नहीं इस देश के अदालतों के मुंह पर भी ताले लग जाते है। जैसा की फिर एक बार हुआ माननीय सुप्रीम कोर्ट खुद पूछती है पर्सनल लॉ बोर्ड से की पहले ये तय करेंगे की ये धर्म से जुड़ा मसला है या नहीं, अगर है तो फिर अदालत इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी मतलब महिलाएं अब भी 17 वहीं सदी में जी रही है तो जायें लेकिन हम हस्तक्षेप नहीं करेंगे। तो फिर बराबरी की दुहाई देनेवाला कोर्ट सिर्फ पुरुषों के लिए ही है क्या? महिलाओं का क्या? वे कहाँ जाएगी न्याय के लिए?

ये पूरी तरह महिला के मौलिक अधिकारों से जुड़ा है, उनके आत्मसम्मान से जुड़ा है, उनकी समाज में आजादी और उनके गर्व से जुड़ा है। ये सब ध्यान में रखकर ही सरकार को जल्द ही कानून बनाना चाहिए न की ये देखकर की इस कानून से किस धर्म को फर्क पड़ता है। सरकार आने वाले शीत सत्र में कानून बनाने की दिशा में आगे बढ़ सकती है। कानून बनने के बाद एक बार में तीन तलाक अपराध की श्रेणी में आ जाएगा। अगर समाज और देश को बदलना है तो उसमें व्याप्त बुराइयों को मिटाना ही होगा चाहे वो किसी भी धर्म से जुड़ा मसला हो।

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