वर्ष 2004 में जब युवा राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में अमेठी से चुनाव लड़कर भारतीय राजनीति में प्रवेश किया था, तभी से वे भारतीय मीडिया की आंखों का तारा बन गए थे। मीडिया ने राहुल गांधी को एक स्वाभाविक राजनीतिज्ञ और नेहरू-गांधी वंश के असली उत्तराधिकारी के रूप में पेश करने में अपनी सारी ताकत लगा दी और उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रुप में प्रदर्शित किया जो भारतीय राजनीति की दिशा को बदलकर रख देगा। मीडिया ने राहुल गांधी को कांग्रेस के लिए एक ईश्वरीय अवतार के रूप में खूब बढ़ा चढ़ा कर दिखाया और हार्वर्ड एवं कैम्ब्रिज से प्राप्त शिक्षा को उनके शान्त आचरण का आधार बताया। बाद में स्वामी ने राहुल गांधी की शिक्षा का खुलासा किया और उनके शांत आचरण को उनके सामान्य ज्ञान की कमी का प्रत्यक्ष परिणाम माना गया। लेकिन मीडिया ने राहुल गांधी को शानदार तरीके से राजनीति में प्रवेश कराने के लिए अपनी तरफ से कोई भी प्रयास बाकी नहीं छोड़ा।
राहुल गांधी को सत्ता में आए हुए 13 साल हो चुके हैं लेकिन अभी भी उनका लांच ही हो रहा है।
अनुकूल परिस्थितियाँ होने के बावजूद भी कांग्रेस, गुजरात में जीत हासिल करने में नाकाम रही है, फिर भी राहुल गाँधी को मीडिया द्वारा एक नैतिक विजेता के रूप में दिखाया गया है। राहुल गाँधी क्रिकेट के उस गेंदबाज की तरह हैं जिसे अपने पहले ओवर की पहली पांच गेंदों पर 5 छक्कों का सामना करना पड़ा है, लेकिन वे बल्लेबाज पर एक नैतिक जीत हासिल करने का दावा करते हैं क्योंकि वे अपने उसी ओवर की छठी गेंद को डॉट कराने में कामयाब रहे।
बात सिर्फ राहुल गांधी की ही नहीं बल्कि कोई भी नेता, जो मोदी के विजय रथ को रोक सकने का हौसला दिखाता है, मीडिया उसे मसीहा के रूप में दिखाता है।
अरविंद केजरीवाल, एक तरीके से मीडिया के कारण ही राजनीतिक अस्तित्व में आये। दिल्ली के कैज़ुअल मुख्यमंत्री, जिन्हें फिल्मों की समीक्षा करने की आदत है, को उनके शुरुआती समय में एक होनहार राजनेता के रूप में महिमामंडित किया गया। अरविंद केजरीवाल को मीडिया द्वारा एक उद्धारकर्ता के रूप में पेश किया गया, जो भारत की गंदी राजनीति से भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और अन्य वाद-विवादों के कीचड़ को साफ करेंगे। हालांकि, केजरीवाल उसी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के लिए राजी हो गए जो प्रचार अभियान के दौरान उनकी सबसे बड़ी दुश्मन थी। जल्द ही यह स्पष्ट हो गया था कि केजरीवाल कोई प्रशासक नहीं थे। ममता और मुलायम की तरह धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने से लेकर ज्ञात माओवादियों से जुड़े लोगों से नजदीकियां बढाने और खालिस्तानियों से संपर्क करने की शर्मनाक हरकत तक, केजरीवाल सिर्फ एक बुरे प्रयोग की तरह ही नहीं बल्कि एक खतरनाक व्यक्ति की तरह उभर कर सामने आये।
इसके बाद कन्हैया कुमार आए, जो जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगाने के कारण रातोंरात सनसनी बन गए। मीडिया ने इस गरीब छात्र कन्हैया कुमार को ऊपर उठाने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया, यह एक ऐसा गरीब छात्र है जो अपने आप को गरीब बताने के लिए आईफोन का सहारा लेता है और यात्रा करने के लिए सिर्फ हवाई जहाज का ही इस्तेमाल करता है। कन्हैया ठोस चुनौती नहीं, बल्कि फुस्स बम साबित हुए और जल्द ही मीडिया की सुर्ख़ियों से धुंधले होते चले गये क्योंकि उसी समय मोदी को उनके घरेलू मैदान पर चुनौती देने वाला कन्हैया जैसा ही एक और ‘एंग्री यंग मैन’ का उदय हो रहा था। कन्हैया जैसी कई समानताओं के अलावा हार्दिक में एक और दिलचस्प समानता दिखी। ये महाशय (हार्दिक) भी देशद्रोह के आरोप में धरे गए, जिससे वे चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिए गये। ऐसा माना गया कि हार्दिक, गुजरात में लंबे समय से चली आ रही भाजपा की सत्ता को समाप्त कर देगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस पार्टी के साथ चुनाव से पहले गठबंधन करने के बावजूद, हार्दिक चुनाव में कोई भी छाप छोड़ने में नाकाम रहे और भाजपा ने बढे हुए मत प्रतिशत के साथ बाजी मार ली। फिर कुंठाग्रस्त हार्दिक ने अपनी हार का ठीकरा ईवीएम के सर पर फोड़ दिया जो कि पिछले एक साल से चुनाव में हारने के बाद एक बहाना सा बन गया है। हार्दिक पटेल मीडिया का एक ऐसा गुब्बारा साबित हुए जो उड़ने से पहले ही फट गया।
नीतीश कुमार के बिहार में लालू यादव और उनकी पार्टी को अप्रत्याशित ढंग से छोड़ने के बाद, मीडिया ने लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे के रूप में अपने एक नए चहेते की खोज की, तेजस्वी यादव ने एक भाषण दिया जिसको मीडिया ने ‘जोरदार’ का लेबल लगा कर पेश किया। तेजस्वी यादव द्वारा दिया गया भाषण, जिसे जोरदार बताया गया था, एक पार्टी के नेता द्वारा चिल्ला चिल्लाकर बखारी गयी शेखी से अधिक कुछ भी नहीं था और ये भाषण एक अत्यंत चतुर राजनीतिक प्रतिद्वंदी द्वारा दी गयी मात की एक अवसादग्रस्त प्रतिक्रिया मात्र था।
मीडिया में बिहार आरजेडी रैली के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई- “विपक्षी एकता के शो में तेजस्वी का उदय”। द टेलीग्राफ ने तेजस्वी की प्रशंसा में एक लेख प्रकाशित किया जिसका शीर्षक “बॉस, ए बॉय ग्रोस अप – द बर्थ ऑफ ऐन अपोजीशन स्टार” रखा।
अजेय मोदी को हरा सकने वाले नेता की खोज में बुरी तरह असफल होने के बाद मीडिया का नवीनतम प्रयोग जिग्नेश मेवाणी है।
जुलाई 2016 के मध्य में, गुजरात के ऊना शहर की एक घटना का एक वीडियो सामने आया, जिसमें चार दलित युवाओं को गाय के शव को उठाकर ले जाने की वज़ह से भीड़ द्वारा पीटा जा रहा था। इस घटना के खिलाफ राज्य में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुआ। जिग्नेश मेवाणी, एक 35 वर्षीय वकील और सक्रिय कार्यकर्ता, इन विरोध प्रदर्शनों का एक नेता बन गया। उसने दलितों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों से लड़ने वाली एक समिति ‘ऊना दलित अत्याचार लडत समिति’ का गठन किया। अभी तक तो सब अच्छा था लेकिन जिग्नेश मेवाणी की महत्वाकांक्षाएं तब उजागर हुईं जब वह कांग्रेस में शामिल हुए, एक ऐसी पार्टी जिसने आजादी के बाद से दलितों के लिए कुछ भी नहीं किया है। लगभग 70 वर्षों से देश पर शासन करने के बावजूद वे दलितों के जीवन में बदलाव लाने में नाकाम रहे।
जिग्नेश मेवाणी ने जल्द ही अपनी भूमिका निभाते हुए जनता के बीच जाकर मायावती, जिसने अपनी राजनीतिक सत्ता को बरकरार रखने के लिए दलित कार्ड का इस्तेमाल किया, की तरह बात करना प्रारंभ कर दिया। हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव मायावती के लिए एक कठोर झटके के रूप सामने आए हैं, क्योंकि आप लंबे समय तक समाज के एक वर्ग को बेवकूफ नहीं बना सकते हैं।
पहली बार विधायक बने जिग्नेश मेवाणी ने बेहूदगी दिखाते हुए प्रधानमंत्री मोदी को सठियाया हुआ बूढा आदमी कहा और ये भी कहा कि उनको राजनीति से सन्यास ले लेना चाहिए और हिमालय पर जाकर अपनी हड्डीयों को गला देना चाहिए, और ये सब उन्होंने लाइव टेलीविजन पर कहा। एक एमएलए सीट जीतकर, जिग्नेश मेवाणी उस लोकतांत्रिक ढांचे का एक छोटा सा हिस्सा बन गये हैं, जिसके मुखिया प्रधानमंत्री मोदी हैं परन्तु अपनी भद्दी टिप्पणियों से उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि उनमें एक अच्छे नेता के कोई भी गुण विद्यमान नहीं हैं।
लेकिन मीडिया जिग्नेश मेवाणी को अत्यंत मुखर युवा नेता और दलितों का मसीहा कहने से नहीं रुकी। द वायर, जो बीजेपी पर घटिया टिप्पणी करने के लिए जाना जाता है, उसने जिग्नेश मेवाणी की प्रशंसा में एक लेख प्रकाशित किया।
शेखर गुप्ता द्वारा शुरू की गई बुटीक मीडिया आउटलेट द प्रिंट ने मेवाणी को भाजपा के लिए एक बुरा सपना बताया है।
डेली ओ ने जिग्नेश मेवाणी की जीत को दलितों की जीत बताया है।
इसलिए यह एक बार फिर स्पष्ट हो गया है कि मीडिया एक और ऐसा नेता बनाने की कोशिश कर रही है जो नरेंद्र मोदी को हरा सके। जिग्नेश मेवाणी कर्नाटक में भी चुनाव प्रचार करेंगे। आइए देखते हैं कि मीडिया का यह नया प्रयोग भारतीय राजनीति में कितने समय तक सुर्खियों में बना रहेगा।