सैनिटरी नैपकिन पर 12% जीएसटी के पीछे का गणित

सैनिटरी नैपकिन जीएसटी

सैनिटरी नैपकिन पर 12% GST

सरकार द्वारा जुलाई में जीएसटी को बड़े धूम-धड़ाके और उत्साह के साथ लागू किया गया। लेकिन बाद में यह बहुत ही जटिल मुद्दा बन गया जिसके कारण सरकार को काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। सैनिटरी नैपकिन पर सरकार द्वारा 12% कर लगाने वाले निर्णय का काफी विरोध हुआ, खासकर जब बिंदी और सिंदूर को 0% जीएसटी ब्रैकेट में रखा गया। इस विवादित मुद्दे के बारे में बहुत कुछ लिखा गया और सरकार को पुरुष-प्रधान बताकर कई आरोप लगाए गए। तो सरकार इस आवश्यक वस्तु पर कर क्यों लगा रही है? क्या वास्तव में जीएसटी को समाप्त करके, ग्रामीण इलाकों की बाजारों में सैनिटरी नैपकिन को पहुँचाने में मदद मिलेगी?

शुरुआत से ही, भाजपा ने खुद का बचाव करते हुए इस तथ्य का हवाला दिया है कि पिछली कर व्यवस्था के तहत, सैनिटरी नैपकिन पर 13% कर लगाया जाता था और वास्तव में, जीएसटी के द्वारा सैनिटरी नैपकिन पर Tax कम कर दिया गया है।

परन्तु सैनिटरी नैपकिन पर जीएसटी के लॉजिक को या तो मीडिया द्वारा ठीक से दिखाया नहीं गया या तो सरकार द्वारा इसे ठीक से व्यक्त नहीं किया गया। सैनिटरी नैपकिन पर 12% ब्रैकेट के तहत, एक इनपुट टैक्स क्रेडिट दिया जाता है।

सैनिटरी नैपकिन पर इनपुट टैक्स क्रेडिट का अर्थ

इनपुट टैक्स क्रेडिट का मतलब है कि एक बिजनेस आउटपुट (अंतिम प्रोडक्ट) पर दिए जाने वाले टैक्स से इनपुट (रॉ मटेरियल) पर दिए गए टैक्स को घटा सकता है।इसलिए उपभोक्ताओं को सैनिटरी नैपकिन पर 12% जीएसटी का भुगतान नहीं बल्कि लगभग ३-४ % जीएसटी का भुगतान ही करना पड़ता है क्यूंकि सरकार इस पर इनपुट क्रेडिट का लाभ दे रही है।

अब एक तर्क यह भी हो सकता है कि पीरियड्स के दौरान प्रयोग किए जाने वाले सैनिटरी नैपकिन पर 3-4% कर का भुगतान भी महिलाएं क्यों करें? जबकि इस तथ्य को ध्यान में रखा जाय कि रक्तस्राव महिलाओं के हाथ में नहीं है।

अगर सरकार सैनिटरी नैपकिन से जीएसटी को हटा देती है, तो नैपकिन और अधिक महंगी हो जाएगी। अगर जीएसटी हटा दी जाती है, तो उत्पादक ख़रीदे गए कच्चे माल पर इनपुट टैक्स क्रेडिट का लाभ प्राप्त नहीं कर पाएंगे। उत्पादक इसे बनाने के लिए कॉटन आदि को 18% कर की दर पर खरीदते हैं, इसलिए सैनिटरी नैपकिन को बनाने के लिए लागत में वृद्धि होगी।

इसलिए उपभोक्ता को और अधिक कीमत चुकानी पड़ सकती है। सरकार कच्चे माल पर कर व्यवस्था को नहीं हटा सकती क्योंकि यह पता लगाना संभव नहीं है कि कॉटन का प्रयोग कपड़ा उद्योग में किया जाना है या सैनिटरी नैपकिन को बनाने में।

साथ ही साथ, देश में चीनी सामान की भरमार आ जाएगी। आयात पर अब सिर्फ 12% आईजीएसटी (एकीकृत जीएसटी) शुल्क लगाया जाता है, सीमा शुल्क अब लगता नहीं है। इसके अलावा चीन से निर्यात होने वाले चीनी उत्पादों को अपने देश में निर्यात शुल्क से छूट दी गई है। इसलिए भारत में बने सैनिटरी नैपकिन की तुलना में चीन में बने सैनिटरी नैपकिन बहुत सस्ते होते हैं।

सभी चीनी उत्पादों की गुणवत्ता बेहतरीन नहीं होती है और भारत जैसे देश में जहाँ सार्वजनिक स्वच्छता कि बहुत आवश्यकता है वहां कम गुणवत्ता वाले सैनिटरी नैपकिन इस समय की आवश्यकता नहीं हैं। साथी जैसी स्टॉर्ट अप योजनाएं और भारत के पद्मन अरुणाचलम मुरुगनंतम जैसे लोग, कम दाम में उच्च गुणवत्ता और पर्यावरण के अनुकूल सैनिटरी नैपकिन बनाने का लक्ष्य रखते हैं।

नेपकिन को 12% स्लैब में रखने का कारण!

सरकार के द्वारा सिंदूर और चूड़ियों को 0% स्लैब में रखने पर मीडिया के कुछ वर्गों ने आरोप लगाया है कि यह भाजपा सरकार की ठेठ प्राचीन हिंदुत्व मानसिकता है। जीएसटी को सुचारू रूप से लागू करने के लिए कुछ वस्तुओं पर जीएसटी कर को पूर्व जीएसटी कर के जितना करीब रखा जा सकता था उतना करीब रखा गया है।

पिछली सरकार में भी सिंदूर और चूड़ियाँ 0% स्लैब के तहत थीं। लुटियन की मीडिया ने तब अपने प्रिय राहुल गाँधी से ये सवाल क्यों नहीं किये, जो हर चुनाव से पहले उसी मीडिया वर्ग द्वारा नए अवतार में दर्शाए जाते हैं? सिंदूर और बिंदी असंगठित व्यापार क्षेत्र के अंतर्गत आती हैं इसलिए इन वस्तुओं पर कर लगाना इन क्षेत्रों की बर्बादी का कारण बन सकता है।

बरखा दत्त जैसे वरिष्ठ पत्रकारों ने कंडोम पर शून्य प्रतिशत स्लैब के कारण सरकार पर पक्षपातपूर्ण निर्णय लेने के आरोप लगाए, कंडोम को पुरुषों द्वारा (क्योंकि इनके हिसाब से कंडोम केवल पुरुषों के लिए लाभकारी है) इस्तेमाल किए जाने वाली वस्तु बताई। हाँ, कंडोम मुख्य रूप से गर्भनिरोधन के लिए इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन क्या ये यौन संचारित बीमारियों और एचआईवी की रोकथाम के लिए आवश्यक नहीं, जो दोनों लिंगों को सामान रूप से प्रभावित कर सकता है।

इससे जनसंख्या पर नियंत्रण भी किया जा सकता है। भेदभाव के आरोप लगाने के बजाय जीएसटी दरों को करीब से देखने से यह पता चलेगा कि महिलाओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले डायाफ्राम और ग्रीवा कैप जैसी सभी गर्भनिरोधक दवाएं शून्य प्रतिशत स्लैब के अंतर्गत आती हैं। तो लगाए आरोपों में महिलाओं से भेदभाव कैसे?

10 सैनिटरी नैपकिन के पैक की एमआरपी!

पिछली कर प्रणाली में, एक बहुराष्ट्रीय ब्रांड के 10 पेटी वाले सैनिटरी नैपकिन के पैक की एमआरपी 85 रुपये थी और कर जोड़े जाने से पहले इसकी कीमत ७६ रूपये के आसपास थी। तो इस प्रकार शून्य रेटिंग सैनिटरी नैपकिन से 10 नैपकिंस के पैकेट पर केवल ९ रुपये का अंतर है। क्या यह उन लोगों का तर्क है, जो 0% शुल्क के लिए पक्षधर हैं, जो इसकी कीमत प्रति पैकेट 85 रूपये से 96 रूपये करना चाहते हैं।

अब 10 सैनिटरी नैपकिन के पैक का एमआरपी 80-85 रुपये है। (सैनिटरी नैपकिन के प्रकारों में कई रूपांतरों के कारण सटीक मूल्य उपलब्ध नहीं है और साथ ही जीएसटी अभी भी प्रारंभिक दौर में है) वर्तमान कराधान व्यवस्था के तहत कीमतों में मामूली गिरावट आई है जबकि इसको लागू करने से पूर्व कीमतों के बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा था।

ध्यान रखें कि यह बहुराष्ट्रीय ब्रांडों की सैनिटरी नैपकिन की कीमत है, जो कम आय वाली महिलाएं संभवतः शून्य प्रतिशत कर के साथ भी नहीं खरीद सकतीं। वे स्थानीय रूप से निर्मित सैनिटरी नैपकिन पर ही भरोसा करती हैं, जिसकी लागत 10 पैड प्रति पैकेट के लिए 50-55 रुपये के आसपास है।

वहीं यदि सैनिटरी नैपकिन को शून्य प्रतिशत स्लैब के तहत रखा जाए तो उनकी निर्माण इकाइयों की कीमतों को बढ़ाना पड़ेगा। इस प्रकार कम-आय वाले समूह जहाँ पहले से ही गंदगी के कारण जनजीवन अस्त-व्यस्त है वह और भी ज्यादा बदतर हो जाएगा।

वित्त मंत्री ने 12% स्लैब का किया बचाव

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सैनिटरी नैपकिनों पर 12 प्रतिशत जीएसटी को लागू करने का बचाव करते हुए कहा कि ये आक्रोश “दुर्भावनापूर्ण” सूचना के कारण है। और बात सच ही है क्योंकि मीडिया ने नैपकिन पर लागू इनपुट टैक्स क्रेडिट को आसानी से अनदेखा किया और देश भर में गलत सूचना फैलाई।

ऐसा ही एक उदाहरण महिला पत्रकार मिस फाया डिसूजा का हो सकता है, जिन्होंने अपनी एक ट्वीट की श्रंखला में 12 प्रतिशत जीएसटी के खिलाफ गुस्सा दिखाते हुए कहा कि पिछले कर निर्धारण व्यवस्था के तहत सैनिटरी नैपकिन पर वैट 4.5% से लेकर 13.86% प्रतिशत तक अलग-अलग था क्योंकि कुछ राज्यों जैसे गुजरात, दिल्ली आदि ने सैनिटरी नैपकिन पर कम वैट लगाया था।

उन्होंने आरोप लगाया कि इन क्षेत्रों कि महिलाओं को उतनी ही नैपकिन्स के लिए अधिक खर्च करना होगा। हालांकि, वह एक महत्वपूर्ण विवरण भूल गईं। पहले से लागू वैट, जीएसटी से 5% से 14.5% तक भिन्न था और एमआरपी में 6% का एक उत्पाद शुल्क जोड़ा जाना था, इस प्रकार आज की व्यवस्था के तहत ये नैपकिंस और भी महंगे होते।

साथ ही, इस तथ्य के बावजूद अधिकांश मामलों में घटा हुआ वैट निर्माताओं द्वारा उपभोक्ताओं तक नहीं पहुँचाया गया था। भारत में सैनिटरी नैपकिन की बाजार में पहुँच केवल १६ प्रतिशत है, जो कि कुछ अफ्रीकी देशों की तुलना में भी कम है। केन्या में इनकी बाजार में पहुँच 30 प्रतिशत है। मासिक धर्म की स्वच्छता एक गंभीर मुद्दा है, जिस पर आवश्यक ध्यान नहीं दिया गया।

क्या सेनेटरी नेपकिन को 0% स्लैब में रखना सही होगा?

लेकिन सेनेटरी नैपकिन को शून्य जीएसटी में रखना क्या सही विकल्प है? बेशक नहीं। कीमत के अलावा, मासिक को लेकर मिथक और पाबंदियां, मासिक धर्म की स्वच्छता के लिए भारत के रास्ते में बड़ा रोड़ा हैं। सभी महिलाओं को कम लागत, उच्च गुणवत्ता वाले सैनिटरी पैड प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए।

शायद स्कूलों में मासिक धर्म की स्वच्छता की आवश्यकता के बारे में शिक्षण एक बड़ा कदम होगा। शायद ही कोई स्कूल मासिक धर्म की स्वच्छता के बारे में सिखाता है या उस पर चर्चा करना चाहता है। सरकार को स्थानीय निर्माताओं को और अधिक प्रोत्साहन देना चाहिए और ताकि वे कम लागत वाली सैनिटरी नैपकिन बना पाए और साथ ही साथ उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से मासिक धर्म की स्वच्छता के लाभ और आवश्यकता का प्रसार करना चाहिए।

आज का देश इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक बहस की मांग कर रहा है। भारत में मासिक धर्म की स्वच्छता की स्थिति के लिए केवल खेद प्रकट करते हुए इसे हल्के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए।

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