भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद शीला दीक्षित, दिल्ली के बेहतर मुख्यमंत्रियों में से एक रही है। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी के भीतर, वह उन लोगों में से एक है जिन्होंने विद्रोह का सामना करने के बावजूद स्वयं के लिए एक मजबूत स्थान बनाया और कई उपलब्धियां हासिल की।
15 वर्षों के उनके दिल्ली पर शासन के दौरान दिल्ली में बहुत बदलाव आये। चाहे वो सीएनजी बसें हों, या अनेको फ्लाईओवर या दिल्ली मेट्रो या सड़क नेटवर्क में सुधार हुआ या फिर राष्ट्रमंडल खेलों को सफलतापूर्वक आयोजन।
दिल्ली में शीला दीक्षित का कार्यकाल तब समाप्त हुआ जब अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को बहुत बड़े अंतर से जीत मिली। दिल्ली में इस अभूतपूर्व उलटफेर का कारण क्या रहा – केजरीवाल के आकर्षक वादे या भ्रष्ट नेता के रूप में शीला दीक्षित की कुख्यात छवि, यह बहस का मुद्दा है। परन्तु उस हार ने शीला दीक्षित के राजनीतिक जीवन का समापन कर दिया।
जैसा कि ” सेवानिवृत्ति’ के बाद ” आत्मकथा लेखन का आज कल प्रचलन है उसी का पालन करते हुए, शीला दीक्षित ने सिटिज़न दिल्ली: माई टाइम्स, माई लाइफ़ नाम से अपनी आत्मकथा लिखी है।
तीन दशक से अधिक के राजनीतिक कैरियर में, यह तो अवश्यम्भावी है कि कई आश्चर्यजनक बातें ऐसी ज़रूर होंगी जिनका खुलासा शीला दीक्षित करेंगी। ऐसा ही एक तथ्य है शाह बानो केस का, शीला दीक्षित ने इस विवादास्पद कानून के बारे में, लिखा है, जिसे शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को खत्म करने के लिए बनाया गया था । शीला दीक्षित उस समय कन्नौज से लोकसभा के लिए चुनी गईं थीं।
शीला दीक्षित बताती हैं कि राजीव गांधी ने उन्हें मुस्लिम महिला बिल के लिए पार्टी के सभी विधायक और सांसदों की सहमति पाने के लिए कहा था। शीला दीक्षित आगे बताती हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जब शाह बानो को रखरखाव के लिए हकदार घोषित किया गया, तब मुस्लिमों के स्वघोषित “स्पीकर” और भारतीय संघ मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) के नेता गुलाम मोहम्मद महमूद बनथवाला ने एक निजी बिल पेश किया था जिसमें मुस्लिम महिलाओं को सीआरपीसी की धारा 125 से बाहर करने की मांग की जिसके तहत शाह बानो ने राहत मांगी थी। शीला दीक्षित ने लिखा है कि राजीव गांधी ने तब गृह मंत्री, आरिफ मोहम्मद खान को संसद में शाह बानो के फैसले का मजबूत प्रतिवाद करने के लिए कहा और आरिफ ने राजीव गांधी को निराश नहीं किया।
स्थिति से निपटने के लिए, मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) बिल पेश किया गया था और सभी कांग्रेस सांसदों को इसके पक्ष में बोलने के लिए कहा गया था। शीला दीक्षित का कहना है कि कांग्रेस पार्टी में भी कई लोग इस तरह के बिल की आवश्यकता पर संदेह कर रहे थे और इसके बारे में उनके विचार राजीव गाँधी से अलग थे, लेकिन फिर भी उन्हें अनुशासन का प्रदर्शन करने के लिए राजीव गाँधी का समर्थन करना पड़ा था ।
शीला दीक्षित की किताब इस जानकारी के साथ एक दिलचस्प समय पर बाहर आ रही है। ऐसे समय में, जब ट्रिपल तलाक बिल सुर्ख़ियों में है और कांग्रेस इसका पुरजोर विरोध कर रही है और कांग्रेस ने लोक सभा में पारित होने के बाद इसे ऊपरी सदन में स्थगित कर दिया है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस हमेशा से ही तुष्टिकरण की राजनीती की प्रणेता रही है, यह सिलसिला अभी भी जारी है । चाहे वह तब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को खारिज करना हो या फिर अब ट्रिपल तालक बिल का विरोध करना हो, यह अगर घटिया धार्मिक तुष्टीकरण नहीं है तो क्या है? यह किस समझदार, आधुनिक, उदारवादी और शिक्षित व्यक्ति का अभिप्राय होगा कि एक अशिक्षित, तलाकशुदा बूढ़ी औरत को उसका रखरखाव नहीं मिलना चाहिए या कि कोई व्यक्ति तीन बार तलाक बोल के दांपत्य के दायित्व से छुटकारा पा सकता है?
अगर धार्मिक तुष्टीकरण कांग्रेस की नीति है तो फिर कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता का नारा क्यों लगाते हैं?
एक सूक्ष्म लेकिन महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि अगर इन दोनों एपिसोड पर प्रकाश डाला जाए तो पता चलता है की कांग्रेस किस तरह से देश की महिलाओं का अपमान करती है। यह दोनों कानून मुख्य रूप से महिलाओं से जुड़े हुए हैं और सीधे उनके सशक्तिकरण से जुड़े हुए हैं और कांग्रेस दोनों मौकों पर मुस्लिम महिलाओं के समर्थन में खड़े रहने में विफल रही है।