उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनाव ने विपक्षी खेमे में एक बार फिर से उम्मीद को बढ़ाया है । हालांकि, बाद में राज्यसभा चुनाव में बीजेपी ने जोरदार वापसी की लेकिन, उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनाव में हार ने बीजेपी विरोधी ताकतों का हौसला जरुर बढ़ाया और यही वजह है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बीजेपी विरोधी मोर्चा खोल लिया है। वह अभी अपने 4 दिवसीय दिल्ली दौरे पर हैं और यहां उन्होंने बीजेपी विरोधी मोर्चा खोलने की प्रक्रिया को तेज कर दिया है।
आधिकारिक तौर पर, अपने दिल्ली दौरे के दौरान ममता बनर्जी एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार द्वारा आयोजित एक डिनर में शामिल होंगी और वहां उनके पार्टी के सांसदों से मिलेंगी। जब कई विपक्षी दल एकजुट होंगे तब जाकर मोदी के खिलाफ मोर्चा खोला जायेगा और इसमें कोई शक नहीं है कि ममता इसी के तहत बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोलने की तैयारी के लिए दिल्ली आयीं हैं। हालांकि, बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोलने में 2 सबसे बड़ी रुकावटें सामने हैं।
पहला, ये महागठबंधन किन मुद्दों से शुरू होगा जिसमें सभी की सहमती होगी? और दूसरा ये कि इस महागठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा?
पहला सवाल ये है कि कैसे सभी विपक्षी पार्टी एकजुट होंगी जब इनमें कुछ पार्टियां एक दुसरे के साथ मिलकर काम करने को तैयार नहीं हैं। बीजेपी के शासन में कई पार्टियों का अस्तित्व खतरे में हैं ऐसे में हो सकता है कि न चाहते हुए भी ये पार्टियां एकजुट हों। इस महागठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी वामपंथी और टीएमसी जैसी पार्टियों के विचार में एकरूपता का न होना। हमने पहले भी राजनीति में इस तरह बनने वाले तमाम महागठबंधनों को देखा है, अभी हाल ही में सपा और बसपा के बीच सरकार के खिलाफ बनी एकजुटता को ही देख लीजिये लेकिन अगर आप मायावती के हाल ही में दिए बयान पर गौर करें तो ये एकजुटता भी राज्यसभा चुनाव के बाद से अलग होने के कगार पर है। महागठबंधन बन तो जातें है लेकिन इसे बनाए रखने की चुनौती पार्टियों के सामने सबसे बड़ी होती है। ममता बनर्जी अगर सभी पार्टियों को एकजुट कर महागठबंधन बनाने की सोच रही हैं तो उन्हें इन चुनौतियों को पार कर सीताराम येचुरी जैसे नेताओं के साथ मंच साझा करना होगा।
दूसरा सवाल है कि कौन इस महागठबंधन का नेतृत्व करेगा? इसमें कोई शक नहीं है कि ममता बनर्जी अपने आपको इस महागठबंधन की मुखिया के तौर पर सबसे अहम उम्मीदवार मानती हैं। विपक्ष के सामने बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए यह मुद्दे सबसे अहम हैं तभी तो विपक्ष एक नए महागठबंधन से बीजेपी के खिलाफ रणनीति तैयार कर पायेगा।
हाल ही में, टीआरएस प्रमुख चंद्रशेखर राव कोलकाता में ममता बनर्जी से मिले थे और इस दौरान क्षेत्रीय पर चर्चा की। ये तो सभी को पता है कि राव बीजेपी को हराने के लिए एक गैर कांग्रेसी संघीय मोर्चा बनाने की कोशिश में हैं, ऐसे में इस महागठबंधन के नेतृत्व के लिए ममता बनर्जी एक बेहतर विकल्प हो सकती हैं।
हालांकि, यदि कांग्रेस इसमें शामिल भी होती है तो क्षेत्रीय पार्टियों में उनके प्रति ज़्यादा उत्साह नहीं हैं। राहुल गांधी के कमजोर नेतृत्व, वोट के लिए उनकी अक्षमता और उनका पिछला ट्रैक रिकॉर्ड देखने के बाद कोई भी पार्टी उन्हें महागठबंधन के नेतृत्व का चेहरा स्वीकार करने से बचेगी।
एक ऐसा मोर्चा भी है जिसमें कांग्रेस शामिल हैं जिसमें नेतृत्व को लेकर उठती समस्याएं सभी के सामने हैं। देखा जाए तो कांग्रेस की स्थिति ऐसी नहीं है कि वो महागठबंधन का नेतृत्व कर सके और शायद 2019 में भी कांग्रेस की यही स्थिति बरकरार रहेगी। यही वजह है कि तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के बीच मतभेद बढ़ सकते हैं क्योंकि ममता बनर्जी को इस बार बड़े उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा है। ममता बनर्जी ने सभी विपक्षी पार्टियों को बीजेपी के खिलाफ एकजुट करने की जिम्मेदारी ली है। उन्होंने न सिर्फ इसके लिए राव से बात की बल्कि टीडीपी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के अलावा शिव सेना से भी संपर्क किया। कांग्रेस को लेकर समस्या जबतक सुलझ नहीं जाती तब तक बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत गठबंधन को तैयार करना आसान नहीं होगा। ममता की गांधी परिवार से न मिलने की इच्छा से जाहिर है कि उनकी महागठबंधन के नेतृत्व की चाहत सभी विपक्ष को एकजुट करने की चाहत से कहीं ज्यादा है।
गौर हो कि, ममता बनर्जी महागठबंधन का नेतृत्व करने की दावेदार हैं, वाम दलों के पास आरक्षण हैं और वो गांधी परिवार के साथ समझोता करना चाहेंगे। इसके अलावा, इस गठबंधन में नेतृत्व को लेकर लड़ाई यहीं नहीं खत्म होती इस रेस में मुलायम सिंह और मायावती भी शामिल हैं जो महागठबंधन का नेतृत्व करना चाहेंगे। यहां तक कि पवार और राव भी कहीं न कहीं इस नेतृत्व के पद की लालसा में होंगे। ऐसे में एकमत सहमती न बन पाने की वजह से हो सकता है कि इस महागठबंधन का मुख्य आधार ही बनने से पहले ही लड़खड़ा जाए।
ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी की बीमारी को बहाना बनाते हुए यह संकेत दिए कि वह उनसे नहीं मिलना चाहती हैं। उनका यह संकेत विचारों को लेकर अनिश्चितता और सामंजस्य में कमी की ओर इशारा करता है। इस तरह का गठबंधन 1990 में भी देखने को मिला था तब केंद्र में एच।डी।देवगौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल की गठबंधन सरकार थी जो मतदाताओं के लिए एक कड़ा अनुभव रही है। ऐसे में देश इस तरह की गठबंधन सरकार को लेकर जनता एक फिर से कोई खतरा नहीं मोल सकती। मोदी सरकार के खिलाफ मौके की तलाश करती विपक्षी पार्टियों की तुलना में देश में एक बार फिर से मोदी की सरकार बनने संभावनाएं कहीं ज्यादा है। ऐसे में ममता बनर्जी के दिल्ली दौरे को एक विफल प्रयास कहना उचित होगा क्योंकि विपक्ष की रणनीति जो भी हो आखिरी फैसला तो जनता ही लेगी।