तीसरा मोर्चा: कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए क्या संभावित विकल्प या व्यर्थ प्रयास?

तीसरा मोर्चा

इन दिनों राजनीति के क्षेत्र में काफी कुछ चल रहा है, बाधित संसद हो या हो 201 9 के आम चुनावों के लिए एक नए मोर्चे का गठन (तीसरा मोर्चा)। कभी एक दूसरे की दुश्मन कही जाने वाली पार्टियों के साथ आने की अफवाह और कभी सयुंक्त विपक्ष के नेतृत्व की दौड़ में खुद को मुखिया बताना, ऐसा करके ये पार्टियां अच्छा मनोरंजन कर रही हैं। आज विपक्ष के राजनीतिक नेताओं का संवेदनशील मामलों में रुख बदलना आम हो गया है। अगर कोई लहर उनके पक्ष में हैं तो वो किसी को भी नहीं बख्शते। भारतीय राजनीति की इस गंदी लड़ाई में कोई भी साफ नहीं है।

भारत में कांग्रेस के बिगड़ते हालात के साथ अब अन्य क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को एक बहुत महत्वपूर्ण फैसला लेना है कि तीसरे मोर्चे में कांग्रेस को शामिल किया जाए या नहीं। हाल के हालातों में राहुल गांधी विफल रहे हैं। कांग्रेस के नेताओं और उनके प्रतिद्वंद्वियों द्वारा जो भी प्रयास किये गये वो सभी व्यर्थ साबित हुए हैं। जनता की नजर में नेहरु गांधी के वंशज राहुल गांधी सफल उत्तराधिकारी नहीं हैं, उस गाँधी वंश की पार्टी जो कभी देश के उच्च पद पर विराजमान हुआ करती थी। इसके बाद भी कांग्रेस पीएम के उम्मीदवार के तौर पर दूसरा चेहरा नहीं चाहती, दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां इसी को लेकर थोड़ी दुविधा की स्थिति में हैं। तीसरे मोर्चे में कांग्रेस को शामिल किया जाए या नहीं, या फिर देश की सबसे पुरानी पार्टी के समर्थन के बिना ही देश के सबसे लोकप्रिय नेताओं के खिलाफ चुनाव लड़ा जाए।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कुछ दिन पहले ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के अध्यक्ष शरद पवार द्वारा आयोजित एक डिनर पार्टी में सम्मिलित होने के लिए दिल्ली दौरे पर थीं। इस डिनर की सूची में विपक्ष के नेता भी शामिल थे। जबकि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के डिनर में शामिल होकर ममता बनर्जी ने कई बयान भी दिए, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा आयोजित डिनर में शामिल न होकर उन्होंने अपने इरादों को उतना ही मजबूत बना दिया।

इन सबके बीच, शरद पवार ने विपक्षी दलों से कथित तौर पर कहा है कि “देश के लिए कांग्रेस आवश्यक है। यहां तक की अपने बुरे हालात में भी दूसरी पार्टियों के बिना ही पूरे भारत में अकेले ही चुनौती दे सकती है।”

परन्तु पवार का ये भी मानना ​​है कि कांग्रेस को अपनी वर्तमान स्थिति में क्षेत्रीय दलों के महत्व को समझना चाहिए जो कि उनकी मदद करना चाहती हैं। वो हारे हुए होकर राजाओं जैसा व्यवहार नहीं कर सकती। उन्हें उचित सम्मान दिया जाना चाहिए और उनके साथ उचित व्यवहार किया जाना चाहिए। राजनीति के मुश्किल दौर में पवार ने संकेत दिया है कि तीसरे मोर्चे के लिए कांग्रेस भी जरूरी है,  महत्वपूर्ण कैबिनेट पदों के साथ-साथ प्रधानमंत्री पद के लिए उन्होंने ये सुनिश्चित किया।

दो बड़े नेताओं के साथ तीसरे मोर्चे के लिए उन्होंने असमंजस भरा संकेत दिया जिससे लगता हैं इसकी नींव ही कमजोर है। 2019 के आम चुनावों से पहले इन दलों के विचार एकमत नहीं हो सकते। इसको लेकर कई अफवाहें लगातार चर्चा में हैं, तीसरा मोर्चा बनाने वालों के सामने ममता बनर्जी (टीएमसी) और सीताराम येचुरी (सीपीआई) जैसे नेता हैं जो एक दूसरे को एक आँख नहीं भाते, ऐसे में इनमें से किसी को अपना नेता चुनना चुनौती भरा है। सवाल ये भी उठता है कि कौन तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करेगा और वह कबतक बिना किसी विवाद के बना रहेगा।

जो पार्टियां अलग अलग विचारधाराओं के आधार पर बनी हैं, जो एक दूसरे पर निशाना साधने का एक मौका नहीं छोडती, क्या ये सच में एक मजबूत ‘महागठबंधन’ बना सकती हैं जो शक्तिशाली एनडीए को चुनौती दे सके?  कई दलों का अस्तित्व 2019 के लोकसभा चुनावों में उनके प्रदर्शन पर निर्भर करता है, असफल होने के पश्चात वे अपने राजनीतिक भविष्य पर विचार और पुरानी गलतियों की समीक्षा कर सकते हैं। एनडीए शासन ने विपक्ष के दिलों में डर पैदा कर दिया है जो अपनी विश्वसनीयता और प्रासंगिकता हासिल करने के लिए एक आखिरी कोशिश करना चाहते हैं। तीसरा मोर्चा चिंतित और थके हुए दलों से बना है जो एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं, अब हम इंतजार कर रहे हैं कि क्या कांग्रेस इस कड़ी में जुड़ेगी या इससे अलग रहेगी।

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