परदे पर इतिहास को उतारना कभी आसान नहीं रहा है खासकर जब बॉलीवुड के परदे पर उतारने की बात हो तब ये और कठिन नजर आता है क्योंकि यहां वास्तिवकता से ज्यादा अपने एजेंडे को पूरा करने पर जोर दिया जाता है। बेतुका कांसेप्ट, अनौपचारिक चित्रण, और जो लोग इसके लायक नहीं हैं। ऐसे कलाकारों को हाईलाइट करना जो अक्सर ही बॉलीवुड में ऐतिहासिक फिल्मों को बर्बाद कर देते हैं क्योंकि वो परदे पर अपनी भूमिका से इतिहास को मजबूती से चित्रित करने में नाकाम रहते हैं।
50 के दशक के ‘मिर्जा गालिब’ से ‘मद्रास कैफे’, ‘पद्मावत’ जैसी फिल्मों तक में बॉलीवुड में बहुत कम ही ऐसी फिल्में हैं, जिसने भारतीय इतिहास को सही तरीके से चित्रित किया है।
‘तेरे बिन लादेन’ जैसी फिल्म देने वाले अभिषेक शर्मा ने ही फिल्म परमाणु का निर्देशन किया है। ‘परमाणु’ कई मायनों में उन ऐतिहासिक फिल्मों से अलग है। इस फिल्म में जॉन अब्राहम, डायना पेंटी, बोमन ईरानी, अनुजा साठे मुख्य भूमिका में हैं जिन्हें काल्पनिक किरदार से जोड़ा गया है। तो अब बिना कोई देरी किये इसकी इमानदार समीक्षा पर आते हैं।
परमानु समीक्षा – प्लॉट स्केच: –
फिल्म 1998 में भारत के पोखरण में हुए परमाणु टेस्ट पर आधारित है । इसमें दिखाया गया है की कैसे अश्वत रैना (जॉन अब्राहम) नाम का एक अधिकारी कई मुश्किलों के बावजूद परमाणु टेस्ट करने में सफल होता है, खासकर तब जब पाकिस्तान और अमेरिका जैसे देश उसके सामने हो।
परमाणु समीक्षा – क्या अच्छा है: –
सच कहूँ तो मुझे इस फिल्म से कोई उम्मीद नहीं थी। अद्भुत प्लॉट, औसत ट्रेलर और गानों ने इस फिल्म को देखने की मेरी इच्छा को कम कर दिया था लेकिन जैसे ही फिल्म आगे बढ़ी मुझे फिल्म के प्रद्रर्शन ने आश्चर्यचकित कर दिया।
शायद बॉलीवुड का एक खास वर्ग इस फिल्म में हुए बदलाव को पसंद न करें क्योंकि वो बॉलीवुड की प्राथमिकताओं पर आधारित फिल्मों के आदि हो चुके हैं। शुरुआत करने वालों के लिए, हमारे पास एक नायक है जो न केवल कश्मीरी पंडित है, बल्कि एक शानदार युद्ध का अनुभव कर चुके योद्धा का बेटा भी है [हालांकि इस फिल्म में उनकी संस्कृति को समझाया नहीं गया है]। इस फिल्म में अश्वत रैना नाम बॉलीवुड में हुए बदलाव को बता रहा है।
इसके अलावा अभिषेक ने अपने बारीक निर्देशन से फिल्म को बेहतरीन बनाया है। 90 के दशक के अशांत युग से लेकर (जहां भारत आर्थिक आधार पर उदारीकरण के बावजूद अपने लिए विश्व स्तर पर एक मंच के लिए संघर्ष कर रहा था) समकालीन युग तक फिल्म में तालमेल बैठाने की भरपूर कोशिश की गयी है और वो कोशिश सफल भी हुई है।
इस फिल्म की दूसरी ख़ास बात है मुख्य अभिनेत्री की भूमिका। (अनुजा साठे) सुषमा जो अश्वत की पत्नि की भूमिका में है और पेशे से एक एस्ट्रो फिजिसिस्ट हैं। फिल्म में उनकी भूमिका शानदार है। जबकि फिल्म की वास्तविकता को दिखाने से पहले फिल्म के गाने में डायना पेंटी और जॉन अब्राहम के बीच एक संभावित रोमांटिक ट्रैक दिखाया गया है।
परमाणु समीक्षा: क्या बढ़िया है ?
इस फिल्म को बेहतरीन बनाने या यूं कहें फिल्म को एक अलग ऊंचाई पर ले जाने वालों में से एक हैं अभिनेता सह निर्माता, जॉन अब्राहम हैं जिन्होंने फिल्म बेहतरीन भूमिका अदा की है। फिल्म में अश्वत रैना जो अनुसंधान और विश्लेषण विभाग का एक ईमानदार सिविल सेवक है। इस फिल्म में जॉन ने पहली बारअपनी बॉडी और मसल का दिखावा करने से ज्यदा अपनी भूमिका पर काम किया है। इस फिल्म में उनकी भूमिका एक ऐसे अधिकारी की है जो अपने लक्ष्य के लिए अपने सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं करता है।
वो कुछ करने में विश्वास रखता है, चीजों को हालातों पर छोड़ने में विश्वास नहीं करता है। यहाँ तक कि फिल्म के एक दृश्य में सैनिकों द्वारा उसका काफी मजाक उड़ाया जाता है वो दृश्य भी काफी वास्तविक लगता है। फिल्म में समान रूप से उनके सह कलाकार बोमन ईरानी ने भी बेहतरीन काम किया है। इस फिल्म में बोमन ईरानी जो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी के प्रधान सचिव हिमांशु शुक्ला की भूमिका में हैं। हिमांशु शुक्ल और अश्वत रैना के बीच का तालमेल शानदार है।
नीरज पांडे की ‘बेबी’ की तरह, अभिषेक शर्मा की ‘परमाणु’ के पास भी दो ख़ास बात है वो है: सहज हास्य और दूसरे हाफ में फिल्म की पकड़। फिल्म में असंतुष्ट विज्ञान विशेषग्य शुक्लाजी (अनूपम खेर द्वारा शानदार रूप से चित्रित किया गया है], योगेंद्र टिकू विचित्र डीआरडीओ वैज्ञानिक जैसे मजाकिया कलाकार ने गुदगुदाने का काम किया है।
यहां तक कि जिस व्यक्ति को इस फिल्म में ‘सहदेव’ नामित किया गया है, वह भी एक समर्पित वैज्ञानिक की भूमिका में है। जिस तरह से वो अमेरिकी उपग्रहों से बचने के तरीकों पर काम करते हुए बनाना चिप्स खाता है वह निश्चित रूप से आपको हंसायेगा।
इसके अलावा, पहली बार, हमारे पास कोई स्पष्ट खलनायक नहीं है लेकिन लैक्रोस उपग्रहों के रूप में एक तकनीकी खलनायक है, और फिल्म में दिखाए गए जासूस वास्तव में बॉलीवुड की बाकि फिल्मों में दिखाए जाने वाले जासूसों से बेहतर थे, खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका और पाकिस्तान के मामले में, हालांकि कुछ डायलॉग आपको गहराई से सोचने के लिए मजबूर कर देंगे।
वैसे फिल्म के बेहतरीन होने का बड़ा श्रेय लेखन टीम को भी जाता है, जिसमें सान्युकथा चावला शेख की पसंद भी शामिल है, ‘नीरजा’ की सफलता के पीछे भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
फिल्म के आखिरी 20 मिनट में आपको वही महसूस होगा जो फिल्म ‘चक दे इंडिया’, ‘बेबी’, ‘द गाजी अटैक’ के आखिर में आपने महसूस किया था। फिल्म का अंत सभी जानते हैं लेकिन इसके बावजूद आप अपनी सीट को पकड़ लेंगे और आगे क्या होगा इसकी जिज्ञासा से फिल्म में खो जायेंगे। उदार बुद्धिजीवियों को फिल्म के डायलॉग ने जरुर ही अंदर विचलित कर दिया होगा क्योंकि इस फिल्म के लिए उनमें से बहुत कम ही ने अनुकूल समीक्षा दी है।
परमाणु समीक्षा – क्या बुरा है: –
फिल्म ‘बेबी’ की तरह इस फिल्म असरदार बनाने में जो एक खामी नजर आती है वो है राष्ट्रवादी थ्रिलर का वो साउंडट्रैक जो दर्शकों को उनकी सीट से बाँध कर रखता है। ‘थारे वास्ते’ ट्रैक को छोड़कर अधिकांश गाने फिल्म के थीम के साथ मेल नहीं खाते हैं और इन गानों ने फिल्म का मज़ा थोड़ा बहुत कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
फिल्म परमाणु को जो और बेहतर बनाने से रोकते हैं वो कारण है फिल्म की रफ़्तार और फिल्म में डायना पेंटी के किरदार का चित्रण जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है। हालांकि, उन्होंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है लेकिन उनके बालों का स्टाइल और उनका लुक फिल्म के साथ मेल नहीं खाते हैं।
वैसे कुल मिलाकर देखें तो जॉन अब्राहम जो फिल्म ‘मद्रास कैफे’ द्वारा हीरो की छवि प्रस्तुत करने की कोशिश में विफल हुए थे, इस फिल्म के जरिये खुद को एक हीरो की तरह पेश करने में कामयाब हुए हैं। हालांकि, फिल्म की अपनी खामियां हैं लेकिन इसके बावजूद ये एक ऐसी मूवी है जिसे निश्चित तौर पर एक बार जरुर देखना चाहिए। देशभक्ति और एक बेहतरीन कहानी के साथ परमाणु फिल्म एक ऐसी फिल्म है जिसमें देशभक्ति से जुड़ा सबकुछ है जो एक अच्छी फिल्म में होनी चाहिए। इस फिल्म को मैं 5 में से 3.5 देना चाहूंगा।