हमारे पड़ोसी देश चीन की आधारभूत संरचना की कूटनीति का जवाब भारत ऊर्जा कूटनीति से दे रहा है। शी जिनपिंग का इंफ्रास्ट्रक्चर बिल्डिंग विदेश नीति के तहत प्रमुख योजना रही है। चीन दुनिया भर में सैन्य और वाणिज्यिक आधारभूत संरचना का निर्माण कर रहा है। चीन की योजना अपने पड़ोसी देशों जैसे श्रीलंका और बांग्लादेश में बुनियादी ढांचा बढ़ाना है। पाकिस्तान में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) की परियोजना के माध्यम से चीन पूरे देश में सड़कों और बंदरगाहों का निर्माण कर रहा है। सीपीईसी परियोजनाओं का मूल्य करीब 62 अरब डॉलर है। बांग्लादेश में चीन ने पोर्ट ऑफ चिट्टागोंग का विकास किया साथ ही इसका आधुनिकीकरण भी किया। इससे बंगाल की खाड़ी तक उसकी पकड़ आसान हो जाएगी जोकि भारत की नौसेना सुरक्षा के लिए रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। म्यांमार में ‘क्योक प्हू बंदरगाह’ के माध्यम से चीन बंगाल की खाड़ी में अपनी मौजूदगी का एहसास भी करा रहा है। दरअसल, चीन इन बंदरगाहों के माध्यम से बंगाल की खाड़ी में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाकर भारत की मजबूत उपस्थिति का सामना करना चाहता है। श्रीलंका, जो भारत के साथ अपने अच्छे रिश्तों का आनंद ले रहा है उसने भी चीन को पोर्ट ऑफ हंबनटोटा के निर्माण की अनुमति दी है। इस बंदरगाह का इस्तेमाल चीन और श्रीलंका दोनों द्वारा किया जायेगा।
चीन के पास फॉरेन रिजर्व भारी मात्रा में हैं(लगभग 3 ट्रिलियन यूएस डॉलर है जोकि भारत की वर्ष 2017-18 की जीडीपी से अधिक है)। इतनी बड़ी फॉरेन रिजर्व राशि के साथ ये खुद की जरूरतों के अनुसार अमेरिकी डॉलर के मूल्य के साथ हेर-फेर करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने अपने राष्ट्रपति शिविर में इस मुद्दे को कई बार उठाया लेकिन इस मामले के खिलाफ वो ज्यादा कुछ नहीं कर सके।
चीन इस पैसे का उपयोग पूरी दुनिया में आधारभूत संरचना बनाने के लिए कर रहा है। अपनी “वन बेल्ट-वन रोड” योजना के तहत एशिया, यूरोप, मध्य पूर्व और अफ्रीका के कई देशों को सड़क, रेल और बंदरगाहों के जरिये जोड़ने की कोशिश कर रहा है। उसकी महत्वाकांक्षा सिर्फ दुनिया को जोड़ने तक ही सीमित नहीं है। जब वो इस परियोजना को पूरा कर लेगा तो वो इसका इस्तेमाल कमर्शियल और सैन्य दोनों ही स्तर पर करेगा। चीन इन पैसों का इस्तेमाल केवल बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए करेगा साथ ही वो फॉरेन रिजर्व का इस्तेमाल संयुक्त राज्य अमेरिका को कमजोर करने के लिए भी करेगा।
हालांकि, भारत इस कूटनीति का सामना ऊर्जा कूटनीति से कर रहा है। भारत ने जापान के सहयोग से कोलंबो के पास एक एलएनजी टर्मिनल बनाने के लिए समझौता तैयार कर रहा है। श्रीलंका अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लिक्विड फ्यूल पर निर्भर करता है। ये एलएनजी टर्मिनल श्रीलंका को स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ने में मदद करेगा। बता दें कि भारत बंगलदेश की भी उर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। अभी हाल ही में बांग्लादेश की यात्रा पर विदेश सचिव विजय गोखले ने सिलीगुड़ी से बांग्लादेश तक तेल पाइपलाइन पर समझौता किया था। जिससे भारत को सिलीगुड़ी स्थित रिफाइनरी से डीजल की आपूर्ति में मदद मिलेगी। भारत नेपाल के साथ काफी लंबे समय से दोस्ताना रिश्तों का आनंद उठा रहा है लेकिन हाल ही में कम्युनिस्ट पार्टी की वर्तमान सरकार के साथ तनाव की वजह से भारत और नेपाल के रिश्तों में दरार पड़ने लगी थी। अपनी उर्जा परियोजना के जरिये भारत ने एक बार फिर से नेपाल के साथ अपने रिश्ते की डोर को मजबूत कर लिया है। भारत अब नेपाल की उर्जा आवश्यकताओं को पूरा करना चाहता है और इसके लिए बिहार के मोतिहारी से नेपाल तक ऊर्जा प्रोडक्ट पाइपलाइन का निर्माण कर रहा है। दरअसल, नेपाल के प्रधानमंत्री ने अपनी भारत यात्रा के दौरान इस समझौते पर हस्ताक्षर किया था।
म्यांमार में चीन के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए भारत पूर्वोत्तर से यांगून तक पेट्रो प्रोडक्ट पाइपलाइन का निर्माण कर रहा है। भारत और म्यांमार यांगून के पास एक एलएनजी टर्मिनल बनाने का विचार कर रहे हैं। जहां तक मालदीव की बात है तो भारत इसकी 100 प्रतिशत ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
अब तक भारत की ऊर्जा कूटनीति का उसके पड़ोसी देशों पर गहरा प्रभाव पड़ा है और भारत इसे और प्रभावशाली बनाने पर काम कर रहा है। भारत के पास चीन की तरह फॉरेन रिजर्व नहीं है लेकिन ऊर्जा क्षेत्र में हमारी क्षमता काफी मजबूत है। चीन भौगोलिक दूरी की वजह से भारत के पड़ोसी देशों की ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। इस नए विकास के साथ ये तो स्पष्ट है कि भारत अपनी उर्जा नीति के जरिये इस खेल में एक कदम आगे की ओर बढ़ा है और चीन की आक्रामक विदेश नीति का मुकाबला करने के लिए नरम कूटनीति का सहारा ले रहा है।