दक्षिण भारत में बीजेपी उतनी लोकप्रिय पार्टी नहीं है। खासकर तमिलनाडु और कम्युनिस्ट गढ़ केरल के मामले में तो बिल्कुल लोकप्रिय नहीं है। हालांकि, कर्नाटक ऐसा राज्य रहा है जहां सरकारें बदलती रही हैं ऐसे में कर्नाटक में बीजेपी की प्रभावशाली जीत अब दक्षिण राज्य में बीजेपी के लिए सकारात्मक संकेत दे रही है।
दक्षिण भारत में बीजेपी की लोकप्रियता कम होने के पीछे का बड़ा कारण आजादी के बाद से दक्षिण राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने राजनीतिक फायदे के लिए आर्यन-द्रविड़ विभाजन है। यही वजह है कि इसने दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश और कर्नाटक क्षेत्र के लोगों व वहां की पार्टियों के खिलाफ ‘हम बनाम वो’ की मानसिकता को जन्म दिया है। इस तरह के जन्में रूढ़ीवाद ने बनावटी संस्कृति के नाम पर देश में कई डिवीज़न बनाए हैं जो हजारों सालों की संस्कृति और इतिहास को साझा करते हैं। बीजेपी मुख्यरूप से ‘उत्तर भारतीय पार्टी’ के रूप में देखी जाती है और दक्षिणी राज्यों हिंदी पाठ्यक्रमों की शुरूआत ने इसकी पुष्टि कर दी।
बीजेपी की छवि हो सकता है कि दक्षिण भारत में उतनी अच्छी न हो लेकिन ये राजनीतिक कशमकश है कि अमित शाह और पीएम मोदी एक ऐसे चेहरे बनकर उभरे जो तमिलनाडु और केरल जैसे क्षेत्रों के राजनीतिक परिदृश्य में प्रवेश करने की कोशिश कर रहे थे। इन दिनों कर्नाटक चुनावों में बढ़त बनाने की कोशिश ने ये स्पष्ट कर दिया है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी हिंदू समुदाय में विभाजन की राजनीति से वोट के लिए हिंदुओं का समर्थन पाने की भरपूर कोशिश की जिससे वो बीजेपी की नाक के नीचे से उसके वोट समर्थन को छीन सके। कांग्रेस नेता और मौजूदा सीएम सिद्धारमैया ने एक बार फिर से कर्नाटक के चुनाव से पहले प्रचार के दौरान ‘उत्तर और दक्षिण’ की राजनीति का सहारा लिया और योगी आदित्यनाथ को ‘उत्तर भारतीय आयात’ बताया था। यहां तक कि लिंगायत समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिए कांग्रेस ने लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा भी दिया था।
जैसा की कर्नाटक विधान सभा चुनाव के नतीजों से ये स्पष्ट हो गया कि विभाजन की राजनीति बुरी तरह से विफल हो गयी। एक ऐसा राज्य जो अपनी समृद्ध संस्कृति, भाषा और इतिहास के लिए जाना जाता है वहां कन्नडिगा आबादी ने गंदी राजनीति को भांप लिया था जो कांग्रेस पार्टी द्वारा नियोजित किया जाता है। कर्नाटक में विभाजन की राजनीति की हार का मतलब बीजेपी के लिए अन्य दक्षिणी राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य में प्रवेश करने की संभावनाओं का बढ़ना है। चूंकि दक्षिण में विभाजनकारी राजनीति की वजह से प्रचलित दुर्भाग्यपूर्ण ‘हम बनाम वो’ की मानसिकता ने बीजेपी की लोकप्रियता को हमेशा प्रभावित किया है इसलिए, कर्नाटक में इस गंदी रणनीति की हार का मतलब ये हो सकता है कि दक्षिण भारत के दृष्टिकोण में बदलाव आया है।
पीएम मोदी देश में सिर्फ बीजेपी के शासन के तहत ही नहीं बल्कि आर्थिक सुधारों और नीतियों की वजह से लोकप्रियता का आनंद उठा रहे हैं। समय के साथ जनता ने कांग्रेस की तुष्टिकरण की राजनीति को समझना शुरू कर दिया जिसके बाद से वंशवादी पार्टी का पतन शुरू हो गया। केरल और तमिलनाडू की राजनीतिक स्थिति की तुलना में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की राजनीतिक पारदर्शिता ज्यादा है जहां भविष्य में बीजेपी के प्रवेश प्रवेश की संभावना ज्यादा है। तमिलनाडु पंथ-नेता की राजनीति से पीड़ित है जहां राज्य का संचालन राजनीतिक प्रोपेगंडे और ध्रुवीकरण को मतदाता आधार बनाया गया है। इसमें कोई शक नहीं है कि उनकी प्यारी ‘अम्मा’ जयललिता की मृत्यु के बाद राज्य में प्रवेश करने के लिए बीजेपी की संभावना बढ़ी हैं।
सबसे बड़ी चुनौती केरल की राजनीति में प्रवेश कर जनता के बीच तालमेल बैठाना है जहां राजनीतिक विकल्प और राज्य के संचालन के प्रोपेगंडा तमिलनाडु से भी एक कदम आगे है। दक्षिणी राज्य में आरएसएस कार्यकर्ताओं पर हमला कर उनकी हत्या किये जाने के बाद से बीजेपी के लिए केरल में असंतोषजनक आबादी को लक्षित करना सबसे बड़ी चुनौती होगी जिनकी आवाज कम्युनिस्टों और कट्टरपंथी इस्लामवादियों द्वारा दबा दी जाती है। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि बीजेपी कैसे जनता के बीच अपनी अपने उद्देश्य को पहुंचती है।