नई दिल्ली में मई 2018 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने परिसर में राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन केंद्र स्थापित करने के लिए सैद्धांतिक मंजूरी दी थी। जब केंद्र के निर्माण के लिए जेएनयू प्रशासन ने मंजूरी दी थी तब छात्र और फैकल्टी के सदस्य 18 मई को इस बैठक में शामिल हुए थे। राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन केंद्र के पाठ्यक्रम में इस्लामिक आतंकवाद भी महत्वपूर्ण पाठ्यक्रमों में से एक था जिसे शुरू किये जाने के लिए विश्वविद्यालय की अनुमति का इंतेजार हो रहा था। सेंटर फॉर वेस्ट एशियन स्टडीज के अध्यक्ष प्रोफेसर अश्विनी महापात्रा ने इस कदम का बचाव किया और इसे ‘इस्लामिक टेररिज्म’ से बदलकर ‘इस्लामिस्ट टेररिज्म’ करने की बात कही। उन्होंने कहा, “इस्लामिक आतंकवाद को ‘इस्लामिस्ट आतंकवाद’ कहना ज्यादा उचित है क्योंकि इस्लामिस्ट आतंकवाद वैश्विक रूप से स्वीकार्य शब्द है। मैंने वाईस-चांसलर को सुझाव भी दिया था। इस्लामिस्ट में दुनिया भर के अतिवाद और कट्टरपंथीकरण आते हैं।“ देखा जाए तो इस उपर्युक्त पाठ्यक्रम को शुरू करने में किसी को भी कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, भारत और पूरी दुनिया में इस्लामिक अतिवाद और कट्टरपंथीकरण के प्रभाव और विस्तार को पहले ही देखा जा चुका है और वाम वर्चस्व वाले जेएनयू में वास्तविकता का कोई स्थान नहीं है। अल्पसंख्यक निकायों और विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों और छात्रों की आपत्ति के बाद विश्वविद्यालय ने हाल ही में प्रस्तावित पाठ्यक्रम के विचार को छोड़ दिया है।
इस्लामिक आतंकवाद पर प्रस्तावित पाठ्यक्रम का उद्देश्य दुनिया के साथ खासकर भारत में कट्टरपंथीकरण और अतिवाद के कारणों की गहरी अंतर्दृष्टि देना था। इसके कारण और प्रभावों की विस्तृत जांच से सैन्य और गैर-सैन्य दोनों तरीके से समाधान हो सकेगा जो देश के लिए भी अच्छा होगा। भविष्य में ये पाठ्यक्रम संभावित खतरों से निपटने में भारत सरकार और सुरक्षा बलों की मदद भी कर सकता था। ‘इस्लामिक’ शब्द का उपयोग विश्वविद्यालय के अंदर अल्पसंख्यक निकायों और प्रदर्शनकारियों को पसंद नहीं आया। विरोध करने वाले निकाय इस प्रस्तावित पाठ्यक्रम से ‘इस्लामिक’ शब्द हटाना चाहते हैं और इसके दृष्टिकोण को और व्यापक बनाना चाहते हैं।
ये अच्छा संकेत है यदि वो इस प्रस्तावित पाठयक्रम में नक्सल या माओवादी शब्द को शामिल करना चाहते लेकिन ये जेएनयू है। यहां वामपंथी और नक्सल सहानुभूति के गढ़ में ऐसा कुछ होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि विश्वविद्यालय रजिस्ट्रार में 30 शिक्षाविदों ने पाठ्यक्रम के खिलाफ लिखित रूप में शिकायत दर्ज की है। उनका तर्क कुछ और ही है, दरअसल, वो चाहते हैं कि इस पाठयक्रम में दुनिया के सभी धर्मों को शामिल किया जाए और आतंक फैलाने के लिए कैसे उनका दुरुपयोग किया जा रहा है बताया जाए। इस्लामिक आतंकवाद के सच को जानते हुए भी लंबे समय से दिल्ली में इसे जानबूझकर अनदेखा किया जाता है। इस्लामिक आतंकवाद उतना ही वास्तविक है जितना कि केरल में युवाओं द्वारा इस्लामिक राज्य से जुड़ने की वास्तविकता है या कश्मीर में इस्लामिक राज्य के प्रभाव की वास्तविकता है और इसका खतरा पूरे देश में अपनी जड़े मजबूत कर रहा है। ऐसे में इसकी वास्तिवकता से दूर भागना और जानबुझकर इसके सच से अनजान बनना न आज और न ही कल कोई हल देने वाला है।
दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जफरुल इस्लाम खान ने कहा, “जेएनयू अधिकारियों ने हाल ही में हमारे नोटिस का जवाब देते हुए कहा है कि ‘इस्लामिक आतंकवाद’ पाठयक्रम को शुरू करने के लिए कोई प्रस्ताव नहीं है लेकिन जो दस्तावेज हमें दिए गये हैं उसमें राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन के लिए प्रस्तावित केंद्र के पाठ्यक्रम में इस विषय का उल्लेख। “उन्होंने आगे कहा, “आयोग ने सुझाव दिया है कि जेएनयू में इस पाठयक्रम की बजाय एक ऐसा पाठयक्रम चलाया जाना चाहिए जिसमें बताया जाये कि कैसे अधिक संख्या में लोगों द्वारा विभिन्न धर्मों का उपयोग किया जा रहा है और ये पाठ्यक्रम एक या दो तक सीमित न रहकर अलग अलग धर्मों पर प्रकाश डालेगा। इस पाठयक्रम में वो आतंकवाद आदि विषयों पर चर्चा कर सकते हैं।”
इन सभी बैटन से तो ऐसा लगता है कि पाठयक्रम मुस्लिम-विरोधी है जोकि सच नहीं है। वास्तव में ये शांतिप्रिय और आसानी से दूसरों के बहकावे में आने वाले लोगों पर किया गया अध्ययन है जो अपने धर्म को बचाने के नाम पर हथियारों का इस्तेमाल करने के लिए गुमराह किये जाते हैं। जेएनयू को इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए जो लंबे समय तक इस्लामिक समुदाय के हितों के खिलाफ होगा।