द मुल्क ट्रेंड: फिल्म के रिलीज होने से पहले बॉलीवुड के स्टार कैसे बन जातें हैं समाजसेवक

बॉलीवुड मुल्क

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नहीं समझे? आज के समय में ये धर्मनिरपेक्षता का ट्रेंड बन गया है, जैसा कि अभिनव सिन्हा द्वारा निर्देशित फिल्म मुल्क के लिए अभिनेत्री तापसी पन्नू प्रमोशन कर रही हैं। उनकी इस फिल्म ने इस्लामोफोबिया जैसे विवादास्पद विषय को दिखाया गया है और साथ ही ये भी दिखाया गया है कि कैसे परिवार के एक सदस्य के कारण हुए बम विस्फोट की वजह से पूरे परिवार पर निशाना साधा जाता है।

वो कहते हैं कि, ‘किसी किताब के कवर को देखकर उसका आंकलन न करें।’ हालंकि, फिल्म मुल्क के ट्रेलर के रिलीज़ होने के बाद ये तो स्पष्ट है कि अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के लिए एक और फिल्म बनाई गयी है। बॉलीवुड अपने इस तरह के नियोजित प्रयासों की वजह से पूरी दुनिया में हंसी का पात्र बनकर रह गया है।

ये कहने की जरूरत नहीं की अपनी फिल्म पिंक की तरह ही तापसी पन्नू ने एक बार फिर से फिल्म को प्रमोट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और अपनी फिल्म मुल्क की सफलता को सुनिश्चित करने के लिए वो नफरत की राजनीति में शामिल हो गयीं हैं। इन ट्वीट्स के जरिये फिल्म ‘मुल्क’ की टीम यही ऐसा ही कुछ कर कर रही है:

https://twitter.com/anubhavsinha/status/1021962842310893568

हालांकि, बॉलीवुड के लिए ये कोई नई बात नहीं है। बॉलीवुड के सितारे अपनी फिल्म के रिलीज़ होने से पहले उसके प्रमोशन के लिए कई सामाजिक प्रचार करते हैं। इसे समझने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है, उड़ता पंजाब का प्रमोशन इसका बढ़िया उदाहरण है। इस फिल्म के चार मुख्य अभिनेताओं ने ड्रग विरोधी अभियान के खिलाफ लड़ने वाले योद्धा बन गए और ड्रग से जुड़े खतरे के बारे में लोगों को जागरूक कर रहे थे। जब पहलाज निहलानी की अध्यक्षता वाली सेंसर बोर्ड कमेटी ने फिल्म के 13 सीन पर कट लगाने का आदेश दिया था तब सभी इसकी आलोचना कर रहे थे।

हालांकि, जब फिल्म रिलीज़ हो गयी थी और वो अपने लक्ष्य में सफल हो गए इसके बाद दिलजीत सिंह दोसांझ को छोड़कर शिरोमणि अकाली दल बीजेपी की गठबंधन सरकार 2017 सत्ता में सत्ता से बाहर हो गयी, जो ड्रग से जुड़ी समस्याओं पर काम कर रही थी, फिल्म के शाहिद कपूर, आलिया भट्ट और करीना कपूर जैसे अभिनेता और अभिनेत्रियां इस समस्या को भूल गए और ड्रग से जुड़ी समस्याओं के खिलाफ अपने प्रयास भी बंद कर दिए, ऐसे में क्या उनकी कोशिशें सिर्फ अपने लाभ तक के लिए सीमित थीं?

अब आज के ट्रेंड पर वापस आते हैं, हमने हाल ही में फिल्म मुल्क से जुड़े ट्वीटस को देखा जिसने फिल्म की टीम के ढोंग को दर्शाया है और ये दिखावा कठुआ मामले में भी सामने आया था:

इन ट्वीटस के मुताबिक अगर हम किसी एक व्यक्ति के अपराध की वजह से उसके पूरे समुदाय पर निशाना साधते हैं तो वो गलत है। यदि सच में ऐसा है तो क्यों कठुवा मामले में पूरे सनातन समुदाय अप्रदाही चित्रित किया गया था?

क्या हमें अब वो समय याद करना चाहिए जब हमारे समुदाय पर निशाना साधा जा रहा था क्योंकि आरोपी कथित रूप से सनातन हिंदू था? सबूतों और गवाहों के बावजूद ये वही बॉलीवुड था जिसने पूरे समुदाय को ‘बलात्कारियों’ के रूप में चित्रित करने में जरा भी देरी नहीं की थी और भारत को रेपिस्तान बताया और जो भी इस मामले में निष्पक्ष जांच की मांग कर रहा था उसे ‘रेप का समर्थक’ कहा था:

PC: Twitter

यदि ये भी पर्याप्त नहीं है तो स्वरा भास्कर, हुमा कुरैशी, सोनम कपूर और करीना कपूर खान जैसी अभिनेत्रियों द्वारा प्लाकार्ड अभियान क्या था? इन अभिनेत्रियों ने जानबूझकर ‘हिंदुस्तान’ और ‘देव स्थान’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया था और पूरे समुदाय को अपराधी के रूप में उद्धृत किया था। किस उद्देश्य से? सिर्फ अपनी आने वाली नई फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ के प्रमोशन के लिए जिससे उन्हें पर्याप्त पब्लिसिटी मिल सके।

सच कहूं तो हमें इस पूरे ब्रिगेड से ये सवाल करना चाहिए कि क्या उनकी फिल्म के रिलीज़ के बाद रेप की घटनाओं पर विराम लग गया ? क्या सभी पीड़ितों को न्याय मिल गया? विडंबना ये है कि, बॉलीवुड की यही टीम मंदसौर में हुई क्रूरता से भरी रेप की घटना पर चुप थी और अपराधी दूसरे समुदाय का था जिसके लिए उनके दिल में हमेशा ही क्षमा का भाव रहता है।

कठुआ मामले में मगरमच्छ के आंसू बहाने वालों का मंदसौर की पीड़िता के पक्ष में एक भी ट्वीट नहीं आया। दुःख की बात है कि आलोचना और कमजोर कहानी के बावजूद उनका अभियान सफल रहा और वीरे दी वेडिंग ने कुल मिलाकर 130 करोड़ रुपये कमाए।

यदि बॉलीवुड के इस रूप की चर्चा करने बैठे तो हमें पता चलेगा कि कैसे बॉलीवुड हमारे सिख भाई और बहनों समेत सनातन समुदाय का अपमान करता आया है उसकी सूची बहुत लंबी हो जाएगी। हालांकि, ऐसा लगता नहीं है कि उनमें अपनी गलतियों को लेकर शर्मिंदगी है बल्कि इससे भी कहीं आगे अपनी फिल्म मुल्क के प्रमोशन के लिए निर्देशक अनुभव सिन्हा खुलेआम आक्रामक तरीके हर उस तथ्य को स्वीकार करने से इंकार कर रहे हैं जो इस्लामिक आतंकवाद से जुड़ा है।

यहां तक कि कुछ सम्मानित अभिनेता भी इस दिखावे के ट्रेंड से अछूते नहीं हैं। हालांकि, सीधे तौर पर वो इसमें शामिल नहीं हैं। अक्षय कुमार जिन्होंने कभी महिलाओं के पीरियड्स और उनकी साफ़ सफाई को लेकर कभी मुखर रहे वो भी अपनी फिल्म ‘पैडमैन’ के लिए रातोंरात एक ऐसे समाजसेवक बन गये जिसके लिए ये मुद्दा अहम बन गया था और फिल्म के रिलीज़ के कुछ ही दिनों बाद वो इस मुद्दे को लेकर सक्रिय नजर नहीं आये।

हालांकि, फिल्म अरुणाचलम मुरुगनथम की वास्तविक जीवन पर आधारित थी और इस फिल्म को बनाया जाना एक प्रेरणादायक कदम था जो कम लागत पर सैनिटरी पैड बनाने वाली मशीन के आविष्कार के लिए मशहूर हैं, इस फिल्म की निर्माता ट्विंकल खन्ना को ऐसी फिल्म के लिए धन्यवाद कहना चाहिए लेकिन जो अपने आपको सामजिक न्याय योद्धा बता रहे थे असल में उनकी पहुंच बहुत सीमित थी।

अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए वो हर मंच पर इस मुद्दे को उठा रहे थे और बताने की कोशिश कर रहे थे कि भारत की महिलाएं अभी भी उचित सैनिटरी पैड से वंचित हैं और कैसे देश के नीति निर्माता अपनी नीतियों से इस समस्या को बनाये रखने के लिए साजिश कर रहे थे। यहां तक कि उन्होंने भारत को पुरुषवादी समाज और महिला विरोधी बताने में जरा भी संकोच नहीं किया और यही वजह है कि उनकी फिल्म की पहुंच सीमित हो गयी:

एक बेहतरीन फिल्म होने के बावजूद पैडमैन कुल 121 करोड़ रुपये ही कमा पायी। अगर अक्षय कुमार ने समाजसेवा का दिखावा न किया होता तो शायद ये मूवी और भी ज्यादा सफल होती।

रिचर्ड गार्नर ने एक बार कहा था, ‘ढोंग को छोड़कर हर उचित मुद्दे को उठाया जाना चाहिए।’ ऐसा ही कुछ हमारे एलीट बॉलीवुड पर भी लागू होता है जो नहीं चाहते कि उनके द्वारा उठाये गये किसी भी कदम या मुद्दे पर सवाल न उठाया जाए और फिर भी वो उभरते भारत पर अपने पूराने विचारों को लागू करना चाहते हैं और इसके लिए वो इस तरह के ढोंग का सहारा लेते हैं। उनकी ये चाल सफल रही हैं या नहीं ये तो आने वाला समय ही बता सकता है लेकिन अब्राहम लिंकन ने कहा था,’आप सभी लोगों को कुछ समय के लिए धोखे में रख सकते हैं लेकिन आप हमेशा के लिए सभी लोगों को धोखे में नहीं रख सकते हैं।’

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