क्या ये वही देश नहीं है जो एक मुस्लिम नायक फैजल खान द्वारा हिंदू खलनायक रामाधीर सिंह के शरीर में गोलियां दागने पर ख़ुशी जाहिर करता है ? क्या अनुराग कश्यप जो लगातार दर्शकों को ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि रामाधीर सिंह जो एक उच्च जाति का हिंदू बाहुबली था उससे जनता नफरत करती है? नहीं, रामाधीर सिंह ने खान परिवार की तीन पीढ़ियों को बर्बाद किया था जिससे आप खुद ही रामाधीर से नफरत करने लगेंगे। गैंग्स ऑफ वासेपुर को बड़ी ही खूबसूरती से बनाया गया था जिसको देखते समय आपके दिमाग में हिंदू, मुस्लिम, ऊँच और नीच जाति का ख्याल एक पल के लिए नहीं आएगा। 6 साल बाद अनुराग कश्यप ने मुक्केबाज लेकर आये हैं, जिसे बीते रात मैंने जिओ मूवीज पर देखा। मुक्केबाज कुछ भी नहीं बल्कि आपको एक बार फिर से 90 के दशक के सिनेमा की झलक दिखाएगा जहां एक नायक होता है जो जिसके सपने बड़े हैं और एक खलनायक जो किसी भी कीमत पर हीरो को बर्बाद कर देना चाहता है। लेकिन यहां थोड़ा ट्विस्ट है, खलनायक एक ब्राह्मण है और उसमें ब्राह्मण के कोई गुण नहीं है लेकिन वो ब्राह्मण की छवि को लेकर घूमता है।
मिलिए भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) से, बरेली के एक ऐसे बाहुबली जिनका कनेक्शन राजनीति और स्पोर्ट्स फेडरेशन से है। मिश्रा एक बॉक्सिंग अखाड़ा चलाता है। उसके चापलूस लड़के, भोजन बनाने वाले, मालिश करने वाले और उसके गुंडे ही उसके बॉक्सर हैं, भगवान दास फिल्म में कई बार ये कहते हुए नजर आता है कि वो एक ब्राह्मण है और उसकी इच्छा ही सबसे ऊपर है। वो एक नाकाम बॉक्सर है और उभरते बॉक्सर्स को परेशान करता है। उसके अखाड़े में सबसे प्रतिभाशाली बॉक्सर श्रवण सिंह (विनीत कुमार सिंह) है जो भगवान दास भीड़ जाता है जिसके बाद भगवान दास श्रवण के करियर को बर्बाद करने की कसम खा लेता है। उसमें खलनायक के सभी गुण हैं, वो क्रूर है, घिनौना है और संकीर्ण सोच का है और इसके अलावा वो हर उस व्यक्ति से नफरत करता है जो ब्राह्मण नहीं है। वो अपने परिवार को बंधक बनाकर रखता है, अपने बड़े भाई के साथ नौकरों जैसा बर्ताव करता है और अपनी भतीजी को बिना किसी कारण के थपड़ मरता है (जो बाद में श्रवण से प्यार करने लगती है)। मिश्रा अपने गुंडों द्वारा अप्रत्याशित प्रतिद्वंद्वियों के घरों में गौ-मांस रखवाता है और बाकी का काम उसके आदमी खुद करते हैं। वो खुद को गौ-रक्षक के रूप में पेश करता है और गौ-मांस खाने वालों को पिटता है, वास्तव में ये फिल्म शुरू भी कुछ ऐसे ही होती है जिसमें उसके कुछ आदमी एक व्यक्ति को गौ-मांस खाने के लिए पिटते हुए नजर आ रहे हैं। मिश्रा श्रवण को क्षत्रिय नहीं मानता है और उसपर शक करता है साथ ही उसे निम्न जाति का मानता है। मिश्रा श्रवण को अपना यूरिन ऑफर करता है और कहता है कि पश्चाताप के लिए इसे पी जाओ। वहीं दूसरी तरफ वाराणसी के कोच (रवि किशन) जो मिश्रा द्वारा अपमानित हुए रहते हैं और जब वो स्वीकार करता है कि वो दलित है तो दूसरे जग में पानी की पेशकश करता है। बाद में पड़ोसियों द्वारा गौ-मांस के मामले में फंसायें जाने के बाद कोच के साथ खूब मारपीट की जाती है। स्थानीय मंदिर में इस पूरे मामले की घोषणा भी की जाती है।
जब आप इस पूरी मूवी को देख लेंगे तो आपके कानों में एक लाइन फिल्म के बाद भी गूंजेगी:
“हम ब्राह्मण हैं, हम आदेश लेते नहीं देते हैं।”
मुक्केबाज में ब्राह्मण को एक खलनायक के रूप में चित्रित किया गया है और अनुराग कश्यप ने इसे छिपाने का कोई प्रयास नहीं किया है। इस फिल्म में ब्राहमण का जिस तरह से चित्रण किया गया है वो नकारात्मक है। वास्तव में अनुराग कश्यप ने ब्राह्मण के प्रति नफरत को अन्य जातियों में बढ़ावा दिया है। गौ-रक्षक ब्रिगेड को चलाने का चतुर तरीका लगभग आपको ये जरुर विशवास दिलाएगा कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण बाहुबली ही हैं जो सबकुछ कोरियोग्राफ कर रहे हैं। अनुराग कश्यप ने उत्तर प्रदेश और देश के अन्य राज्यों में गौ-तस्करी के खतरे के बारे बात करने की कोई कोशिश नहीं की है। वो सच जिसमें गौ-तस्करों ने उन लोगों की हत्या कर दी जिन्होंने उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत दिखाई और और न ही उनकी जान के पीछे पड़े लोगों के बारे में इस फिल्म में दिखाया गया है।
ये फिल्म एक प्रतिभाशाली निदेशक के असफलता को दर्शाती है। अनुराग कश्यप ने बिना किसी तथ्य को अच्छे से जाने और परखे ही उसे फिल्म में पेश कर दिया। मुक्केबाज कश्यप कुछ भी नहीं है बल्कि उनके अनुसार सिनेमा का संस्करण है। ये दुखद है कि वो व्यक्ति जिसने हमें गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी फिल्म दी उसी ने मुक्केबाज जैसी बेतुकी फिल्म दी है। ये फिल्म अच्छी हो सकती थी अगर वो इसका संस्करण और बेहतर करते लेकिन अनुराग कश्यप ने अपने पूर्वाग्रह के कारण इसे बेहतर होने से रोक दिया है।