राफेल डील मामले में एक नया मोड़ आया है। दसॉल्ट और रिलायंस इंडस्ट्रीज ने पहले ही ऑफसेट डील को लेकर हस्ताक्षर किया था लेकिन समस्या तब उत्पन्न हुई जब 2006 में अनिल ने अपने भाई मुकेश से अलग होने का फैसला किया। इसके बाद मुकेश अंबानी ने नया बिजनेस ग्रुप खड़ा किया जिसका नाम दिया रिलायंस अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप यानी रिलायंस एडीए ग्रुप। तत्कालीन यूपीए सरकार एयरफोर्स को 126 नए लड़ाकू विमान खरीदने का फैसला किया था और शुरूआती डील के तहत फ्रांस की कंपनी ने भारत में ऑफसेट के तौर पर 1,07,415 करोड़ रुपये का निवेश करने की योजना बनाई थी। मुकेश अंबानी के नेतृत्व में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड इस डील के जरिये डिफेंस सेक्टर में आना चाहती थी और इसके लिए 4 सितंबर, 2008 को एक नई कंपनी रिलायंस ऐरोस्पेस टेक्नॉलजीज लिमिटेड (RATL) बनाई गई थी।
लड़ाकू विमान का ठेका हासिल करने वाली राफेल को प्राइवेट सेक्टर से पार्टनर चुनने की छूट थी। शुरुआत में फ्रेंच कंपनी ने टाटा ग्रुप से पार्टनरशिप को लेकर बातचीत की थी लेकिन टाटा ग्रुप के अमेरिकी कंपनी के साथ जाने पर दसॉल्ट ने 2012 में मुकेश अंबानी के नेतृत्व वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज के साथ पार्टनरशिप करने के लिए बातचीत की और दोनों के बीच एक पैक्ट पर समझौता भी हुआ था। हालांकि, अभी तक ये डील दोनों कंपनियों के बीच फाइनल नहीं हुई थी। साल 2014 में केंद्र में दूसरी सरकार के आने के बाद मुकेश अंबानी ने रक्षा क्षेत्र में नहीं जाने का फैसला किया और मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (MoU) कि मियाद जानबूझ कर खत्म होने दी गई। साल 2015 में केंद्र की मोदी सरकार ने इस डील को लेकर एक बार फिर से फ्रांस सरकार से बातचीत शुरू की। इस बातचीत के शुरू होने के बाद दसॉल्ट ने अपने प्रावधानों में बदलाव करते हुए अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस को पार्टनर के तौर पर चुना था।
अनिल अंबानी ने रिलायंस डिफेंस का 2015 में गठन किया था क्योंकि वो डिफेंस क्षेत्र में आने की योजना बना रहे थे। जब एनडीए सरकार ने फ्रांस से 126 के बजाय 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने का फैसला किया तब दसॉल्ट और अनिल अंबानी की कंपनी के बीच ऑफसेट डील के लिए हस्ताक्षर हुआ था। दसॉल्ट द्वारा ऑफसेट सौदे के लिए हुए हस्ताक्षर में सिर्फ अनिल अंबानी के नेतृत्व वाली रिलायंस डिफेंस की कंपनी ही नहीं थी बल्कि अन्य 11 और कंपनियां शामिल थीं। कांग्रेस इस तथ्य से अवगत थी लेकिन फिर भी जनता को गुमराह करने और अपना राजनीतिक हित साधने के लिए वो बार बार राफेल को घोटाले का नाम देती रही जबकि दसॉल्ट ने कांग्रेस के सभी आरोपों को ख़ारिज कर दिया है और कहा कि दसॉल्ट एविएशन ने ही भारत के रिलायंस ग्रुप के साथ साझेदारी करने का फैसला किया था।
गौरतलब है कि, राफेल डील पर लगातार लग रहे आरोपों में अनिल अंबानी की कंपनी पर भी हमले शुरू हो गये जिसके बाद अनिल अंबानी ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पत्र लिखकर कहा था, “राफेल डील को लेकर कांग्रेस पार्टी को दुर्भावनापूर्ण निहित स्वार्थों और कॉरपोरेट प्रतिद्वंद्वियों द्वारा जो जानकारी मिली है वो पूरी तरह से गलत है और तथ्यों को लेकर गुमराह किया जा रहा है।“ उन्होंने अपने पत्र में आगे लिखा, “भारत सरकार ने राफेल के जो 36 युद्धक विमान खरीदने का फैसला किया है वे पूरी तरीके से फ्रांस में ही निर्मित होंगे और इनमें लगने वाला एक भी पुर्जा उनकी कंपनी नहीं बनाएगी।” कंपनी द्वारा स्पष्टीकरण देने के बावजूद कांग्रेस पार्टी ने इस मुद्दे पर अपना रुख नहीं बदला और बार-बार झूठे तथ्यहीन आरोपों को राफेल डील से जोड़ती रही लेकिन हर बार पार्टी के आरोप तथ्यहीन और झूठे साबित होते रहे फिर भी कांग्रेस के रुख में कोई बदलाव नहीं आया। कांग्रेस के रुख में कोई बदलाव न होता देख अंबानी ने लीगल नोटिस भेजकर अल्टीमेटम दिया था और राफेल डील पर जिम्मेदार तरीके से पेश आने के लिए कहा था लेकिन फिर भी कांग्रेस के मुखपत्र ने अनिल अंबानी की कंपनी पर राफेल डील सौदे को लेकर गलत शीर्षक का उपयोग किया था। इसके बाद अनिल अंबानी ‘नेशनल हेराल्ड’ के खिलाफ 5000 करोड़ रुपये का मानहानि का मुकदमा भी दर्ज कराया था।
अब फ्रांस सरकार ने भी स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय औद्योगिक साझेदारों के चयन में फ्रांस सरकार किसी भी तरह से शामिल नहीं है। इसके साथ ही ये भी स्पष्ट किया कि फ्रांस की कंपनियों को पूरी आजादी है कि वो उन भारतीय साझेदार कंपनियों को चुनें जिन्हें वो सबसे ज़्यादा उपयुक्त समझती हैं। यही नहीं इसके बाद दसॉल्ट एविएशन ने भी इस मामले में अपना स्पष्टीकरण दिया है जिसने राफेल को घोटाला नाम देने वालों के झूठ को सामने रख दिया है।