मोदी सरकार के आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को आरक्षण पर ऐतिहासिक फैसले के क्या मायने हैं?

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PC: Zeenews

मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है। इस फैसले के साथ सालों से जिसकी मांग उठती रही है आखिरकार मोदी सरकार ने उस मांग को पूरा किया है जो पिछली सरकारें नहीं कर पायी थीं। ये ऐतिहासिक फैसला देश के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण है। इस फैसले के साथ बीजेपी ने उन सभी लोगों को गलत साबित कर दिया है जो पार्टी पर सवर्ण विरोधी होने का आरोप लगा रहे थे।

आरक्षण का मुद्दा हमारे देश में सबसे विवादित मुद्दों में से एक है। ये राजनीतिक पार्टियों का एक ऐसा हथियार है जिसका इस्तेमाल वो अपने राजनीतिक हित के लिए करती रही हैं। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने केवल 10 साल आरक्षण देने की बात कही थी ताकि समाज के पिछड़े लोग भी सबके साथ खड़े हो सकें। हर दस साल पर इसकी समीक्षा करने और फिर उसमें बदलाव किये जाने की बात भी कही गयी थी। हालांकि, जब भी किसी सरकार ने इसे हटाने या इसमें बदलाव करने का प्रयास किया उसे कड़े विरोध का सामना करना पड़ा।

आज पीएम मोदी की अध्‍यक्षता में कैबिनेट की हुई बैठक में सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया गया है। ये आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण जाति के लोगों को दिया जाएगा जिसमें सभी धर्मों के सवर्ण शामिल हैं। इस आरक्षण का लाभ सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में मिलेगा। इसके लिए सरकार को संविधान के अनुच्‍छेद 15 और 16 में संशोधन करना होगा ऐसे में सरकार अब संविधान में संशोधन के लिए बिल लाने पर भी विचार कर रही है।

आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए आरक्षण की मांग सालों से उठती रही है और इस दिशा में प्रयास भी किये गये लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

-साल 1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए 10% आरक्षण शुरू किया था लेकिन साल 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को आरक्षण देने को गलत ठहराया था। इसके बाद तत्कालीन सरकार ने अलग आरक्षण के फैसले के विचार को छोड़ दिया था ।

-साल 2003 में बीजेपी सरकार ने मंत्रियों के एक समूह को आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए अलग आरक्षण लागू करने के उपाय सुझाने के लिए नियुक्त किया था।

-इसके बाद साल 2004 में टास्क फोर्स का गठन किया गया था। टास्क फोर्स को आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को आरक्षण देने के लिए अध्ययन कर एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए कहा गया था लेकिन इस रिपोर्ट का क्या हुआ इसकी जानकारी कभी सामने नहीं आई।

-इसके बाद साल 2006 में कांग्रेस सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए अलग आरक्षण का अध्ययन करने के लिए आयोग की नियुक्ति की।

फिर भी इसपर कभी कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका और न ही कोई बदलाव आया लेकिन, मोदी सरकार ने ‘सबका साथ सबका विकास’ के अपने नारे के साथ न सिर्फ कहा बल्कि जो कहा उसे कर भी दिखाया।

संविधान के अनुच्छेद 46 के मुताबिक समाज में शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के हितों का विशेष ध्यान रखना सरकार की जिम्मेदारी है और इसके तहत खासकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को अन्याय और शोषण से बचाने का भी प्रावधान है। तत्कालीन सरकार ने पिछड़ी जातियों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए तो आरक्षण शुरू किया लेकिन समाज में शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए कोई कदम नहीं उठाया। आज देश में सामाजिक विषमता से ज्यादा आर्थिक विषमताएं हैं लेकिन फिर भी इस ओर पिछली सरकारों का ध्यान नहीं गया।

वास्तव में हमारे देश में सभी राजिनीतिक दलों ने आरक्षण का फायदा केवल अपनी वोटबैंक की राजनीति को चमकाने के लिए ही किया है। उन्होंने शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के हितों का कभी ख्याल नहीं रखा और अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते रहे हैं। ऐसे में आज ये कहना गलत नहीं होगा कि मोदी सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 46 के कथन पर अमल किया जो पिछली सरकारों को बहुत पहले ही कर देना चाहिए था।

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