मायावती द्वारा लोकसभा चुनाव न लड़ने के पीछे कहीं उनका हारने का डर तो नहीं

मायावती लोकसभा चुनाव

PC: Inkhabar

अपने आप को पीएम पद के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार एवं केंद्र की राजनीति में गेमचेंजर समझने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने यह लोकसभा चुनाव भी नहीं लड़ने का फैसला लिया है। उन्होंने अपना अंतिम चुनाव वर्ष 2004 में अकबरपुर लोकसभा सीट से लड़ा था जहां उनको जीत मिली थी, लेकिन उसके बाद से उन्होंने लोकसभा या विधानसभा का कोई चुनाव नहीं लड़ा है। वर्ष 2017 में राज्यसभा से ‘नाटकीय पलायन’ के बाद अब वे संसद की भी सदस्य नहीं हैं। उन्होंने कहा कि अभी उनका ध्यान गठबंधन को मज़बूत करने पर है, और उनकी जीत से ज़्यादा गठबंधन की सफलता बहुत अहम है। साथ ही उन्होंने यह भी दावा क्या कि वे जब चाहें लोकसभा चुनाव जीत सकती हैं।

हालांकि, मायावती  ने यह भी साफ किया कि उनका चुनाव लड़ना यह बिलकुल नहीं दर्शाता कि वे पीएम पद की उम्मीदवारी से बाहर हो गयी हैं। उन्होंने ट्वीट करते हुए लिखा “जिस प्रकार 1995 में जब मैं पहली बार यूपी की सीएम बनी थी तब मैं यूपी के किसी भी सदन की सदस्य नहीं थी। ठीक उसी प्रकार केन्द्र में भी पीएम/मंत्री को 6 माह के भीतर लोकसभा/राज्यसभा का सदस्य बनना होता है। इसीलिये अभी मेरे चुनाव नहीं लड़ने के फैसले से लोगों को कतई मायूस नहीं होना चाहिये।”

मायावती इस बार के चुनावों में कभी ‘अराजक’ सरकार चलाने वाले अखिलेश की साइकल पर सवार हैं, और वे अपनी जीत को लेकर काफी उत्साहित भी हैं। उन्हें अपनी जीत पर इतना भरोसा है कि गठबंधन के लिए गिड़गिड़ाने वाली कांग्रेस की उन्होंने एक न सुनी, और तो और, उन्होंने अमेठी एवं रायबरेली से भी अपने उम्मीदवार खड़ा करने की धमकी दे डाली थी। मायावती को पूर्ण विश्वास है कि बसपा से जुड़े दलित समाज के वोटर्स तथा सपा से जुड़े यादव एवं मुस्लिम वोटर्स चुनाव को एकतरफा बना देंगे। लेकिन इस बार भी उनका चुनाव ना लड़ना वाकई बेहद चौंकाने वाला है।

दरअसल, उनके लोकसभा चुनाव ना लड़ने के पीछे उनका अपने खराब प्रदर्शन को लेकर डर भी एक बड़ा कारण हो सकता है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा का कोई भी उम्मीदवार संसद पहुंचने में सफल नहीं हो पाया था, वहीं वर्ष 2017 में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में भी बसपा 403 सीटों में से सिर्फ 19 सीट ही जीत पाई थी। ऐसे में मायावती को डर है कि अगर उन्हें चुनावी मैदान में विरोधियों द्वारा पटखनी दे दी गई तो उनकी लोकप्रियता को गहरा झटका पहुंच सकता है।

अपने आप को दलितों की देवी कहने वाली मायावती को इन लोकसभा चुनावों में एक और बड़ी चुनौती मिलने की आशंका है। बहुजन समाज से एक अन्य बड़े नेता ‘चंद्रशेखर आजाद रावण’ का उदय मायावती के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं है। अगर भीम आर्मी के अध्यक्ष अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के मद्देनजर कोई बड़ा फैसला लेते हैं तो बेशक मायावती से उनकी दलित समाज की ठेकेदारी छीने जाने का भय उन्हें सताएगा। 

हालांकि, चुनावों को लेकर उनका डर कोई नई बात नहीं है। वर्ष 2004 में आखिरी बार चुनाव लड़ने के बाद से ही उन्होंने चुनावी राजनीति से मुंह मोड़ लिया था। वर्ष 2007 में वे जब मुख्यमंत्री बनी, तो भी उन्होंने कोई चुनाव नहीं लड़ा था, बल्कि वे विधान परिषद की सदस्य बनकर मुख्यमंत्री रहीं। इसके बाद जब वर्ष 2012 में समाजवादी पार्टी ने उनकी सत्ता छीन ली, तो वे पार्टी द्वारा मनोनीत होकर राज्यसभा चली गईं। हालांकि इस बार वे गठबंधन के सहारे अपनी पार्टी को मज़बूत करने की फ़िराक में हों, लेकिन उनकी रह इतनी भी आसान नहीं होने वाली। एक तरफ कांग्रेस अन्य छोटे दलों के साथ मिलकर गठबंधन के इरादों पर पानी फेरने की फ़िराक में है तो वहीं पीएम मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने वाली भाजपा दोबारा 2014 दोहराने की कोशिश करेगी। पीएम मोदी की मज़बूत एवं दाग-रहित छवि का मुकाबला करना वाकई गठबंधन के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगी।

Exit mobile version