जेएनयू छात्रसंघ से राजनीति में उतरकर लोकसभा में जाने के रंगीन ख्वाब देखने वाले कन्हैया कुमार और उसकी पार्टी सीपीआई को तगड़ा झटका लगा है। कन्हैया कुमार बीते कई महीनों से आरजेडी का टिकट पाने और बेगूसराय से चुनाव लड़ने के सपने संजोए हुए थे लेकिन अब सिर्फ उनके ही नहीं बल्कि उनके तमाम टुकड़े-टुकड़े गैंग वाले साथियों के ख्वाब चूर चूर हो गए हैं। वह इसलिए क्योंकि बिहार में महागठबंधन ने सीटों का ऐलान कर दिया है और इसमें कन्हैया और उसकी पार्टी को कोई जगह नहीं दी गई हैं। तेजस्वी यादव किसी भी हाल में बेगूसराय सीट सीपीआई को देने को तैयार नहीं है। तेजस्वी यादव के इस निर्णय से पूरे लेफ्ट-लिबरल समुदाय में मातम जैसा माहौल नजर आ रहा है। दरअसल नेतृत्व और जनाधार से जूझ रहे लेफ्ट ग्रुप को कन्हैया कुमार में एक बड़ी आस नजर आ रही थी लेकिन अब यह आस भी धूमिल हो गई है।
बिहार में महागठबंधन का पेंच करीब-करीब सुलझ गया है। बिहार में महागठबंधन ने सीटों का जो बंटवारा किया है, उसके अनुसार राष्ट्रीय जनता दल 20 सीटों पर, कांग्रेस 09, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी 05, मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) 03 और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा 03 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इस सीट बंटवारे में कन्हैया कुमार और सीपीआई को कोई जगह नहीं दी गई है।
खत्म हो रहा है लेफ्ट का जनाधार
कन्हैया कुमार को महागठबंधन से बाहर रखने की सबसे बड़ी वजह लेफ्ट का खत्म होता जनाधार है। जनता लेफ्ट के देशविरोधी मंसूबों को पहचान गई है और अब इससे दूरी बनाने लगी है। लेफ्ट पार्टी सीपीआई का जनाधार यहां खत्म होता जा रहा है। राजनीति में जब भी आप किसी भी दल के साथ गठबंधन करते हैं तो आप उसके जनाधार को भी देखते हैं और उसका फ़ायदा अन्य सीटों पर आपको मिलेगा या नहीं, यह भी देखा जाता है। कन्हैया कुमार की पार्टी सीपीआई के पास वैसा जनाधार नहीं है कि उसे महागठबंधन में जगह मिल पाती। साल 2014 के लोकसभा चुनावों में भी सीपीआई को बेगुसराय सीट से सिर्फ 1.92 हजार वोट ही मिले थे। यही कारण रहा कि महागठबंधन ने इसे कोई तरजीह नहीं दी। लेफ्ट देश भर में अपने खात्में की ओर है। पश्चिम बंगाल में लोगों ने इसे लगभग नकार दिया है और केरल में भी इसकी लोकप्रियता लगातार घट रही है।
अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है लेफ्ट
पश्चिम बंगाल की बात करें तो कभी सीपीएम यहां अजेय ताकत मानी जाती थी लेकिन इस बार का लोकसभा इस पार्टी के लिए सबसे मुश्किल राजनीतिक अग्निपरीक्षा बन रहा है। इस चुनाव में उसे अपना राजनीतिक एवं चुनावी अस्तित्व जताना होगा। यहां इस पार्टी का जनाधार तेजी से सिकुड़ रहा है साथ ही वह नेतृत्व के संकट का भी सामना कर रही है। राज्य में सीपीएम के कार्यकर्ता लगातार सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी में शामिल हो रहे हैं। लेफ्ट की जगह यहां बीजेपी लेती जा रही है और लेफ्ट को अपनी जमीन बचाने के लिए जद्दोजेहद करनी पड़ रही है। त्रिपुरा में भी लेफ्ट पूरी तरह उखड़ चुका है। 25 साल तक लेफ्ट शासित त्रिपुरा में बीजेपी ने अपनी मजबूत जगह बना ली है। यही कारण है कि, वहां आज बीजेपी का शासन है और लेफ्ट अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। ऐसा ही कुछ अब केरल में भी नजर आने लगा हैं। वहां भी लेफ्ट धीरे-धीरे कमजोर हो रहा है और भगवा पार्टी अपनी जमीन मजबूत कर रही है। इसका परिणाम इस लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिलने वाला है। ऐसा माना जा रहा है कि, इस बार लेफ्ट को केरल में तगड़ा घाटा होगा। आज के चुनावी परिदृश्य में लेफ्ट की कीमत इतनी भी नहीं है कि, जब सारी विपक्षी पार्टियां महागठबंधन के रूप में एकजुट हो रही हैं तो वह उसमें अपनी जगह बना सके।
तेजस्वी का यह डर भी बना कन्हैया के बाहर होने का बड़ा कारण
कन्हैया कुमार को टिकट नहीं मिलने की एक बड़ी वजह तेजस्वी यादव का डर भी है। तेजस्वी को डर है कि, कन्हैया के आने से कहीं उनकी लोकप्रियता और उनका कद दबकर ना रह जाए। लालू यादव के बेटे तेजस्वी बिहार की राजनीति में युवा और उभरते हुए चेहरे तो हैं लेकिन उनकी लोकप्रियता कन्हैया जितनी नहीं हैं। भले ही लालू के दूसरे बेटे तेजप्रता यादव तरह-तरह के विवादों के कारण एक चर्चित चेहरा बने हों लेकिन तेजस्वी की लोकप्रियता उतनी ज्यादा नहीं है। ऐसे में वे नहीं चाहते कि बिहार की राजनीति में कोई दूसरा युवा चेहरा दस्तक दे और वो भी इनके सहयोगी दल से। तेजस्वी जहां पिछले दो साल में बिहार की राजनीति उभरे हैं, वहीं कन्हैया कुमार ने देश भर में एक युवा राजनेता की छवि इस दौरान बनाई है, भले ही वह छवि विवादित ही क्यों नहीं है। दूसरी तरफ दोनों ही कट्टर बीजेपी विरोधी चेहरे भी हैं। संयोग से कन्हैया भी बिहार से हैं और अब तक ये साफ हो चुका है कि उनकी राजनीतिक कर्मभूमि भी बिहार ही रहने वाली है। ऐसे में तेजस्वी अपने बराबर किसी दूसरे दल के नेता के उभार को अपनी मौजूदगी से और मजबूत नहीं कर सकते थे। यही भी कन्हैया को टिकट नहीं मिलने के पीछे एक बड़ा कारण था।
बीजेपी को होगा फायदा
महागठबंधन से कन्हैया के बाहर होने का फायदा बीजेपी को बेगूसराय सीट पर मिलने वाला है। साल 2014 के लोकसभा चुनावों की बात करें तो उस समय बेगूसराय की सीट बीजेपी के खाते में गई थी। उस समय यहां भाजपा के भोला सिंह को क़रीब 4.28 लाख वोट मिले थे, वहीं राजद के तनवीर हसन को 3.70 लाख वोट मिले थे। दोनों में करीब 58 हज़ार वोटों का अंतर था। वहीं सीपीआई के राजेंद्र प्रसाद सिंह को सिर्फ 1.92 हजार वोट ही मिले थे। राजद बेगूसराय में इस बार भी तनवीर हसन को ही टिकट देने के मूड में हैं वहीं बीजेपी की ओर से गिरिराज सिंह का नाम आ रहा है। गिरिराज सिंह भूमिहार जाति से हैं जिसका उन्हें इस सीट पर फायदा भी मिलेगा। कन्हैया कुमार को आरजेडी से टिकट नहीं मिलने से इस सीट पर महागठबंधन कमजोर हुआ है। वहीं आरजेडी ने यहां से अपने पिछले हारे हुए नेता को ही टिकट दिया है। ऐसे में इस सीट पर बीजेपी का पलड़ा सबसे भारी दिख रहा है।
अपने खात्मे की ओर अग्रसर होते लेफ्ट को कन्हैया से बड़ी उम्मीद थी इसलिए कन्हैया को सीट नहीं देने का तेजस्वी यादव का फैसला पूरे वामपंथी समुदाय के लिए किसी बड़े हादसे से कम नहीं हैं और लेफ्ट के अब इससे उभरने की संभावना भी न के बराबर है।