उत्तर प्रदेश में अपनी और हाथियों की मूर्तियां बनवाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में बसपा सुप्रीमों ने अपना बचाव किया। सुप्रीम कोर्ट में जवाब दायर करते हुए उन्होंने अपनी तुलना भगवान राम से कर दी। मायावती ने अपने जवाब में कहा कि अगर भगवान राम की मूर्ति बन सकती है तो मेरी क्यों नहीं? बहुजन समाज पार्टी की मुखिया द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिए गये तर्क न सिर्फ चौंकाने वाले हैं बल्कि कुछ तर्क ऐसा लगता है दलित समाज की सहानुभूति के लिए है ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में उन्हें इसका फायदा मिल सके।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने मायावती से मूर्तियों पर किये गये खर्च को लेकर जवाब मांगा था। 8 फरवरी को केस की सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा था, ‘प्रथम दृष्टया तो बसपा प्रमुख को मूर्तियों पर खर्च किया गया जनता का पैसा लौटाना होगा। उन्हें ये पैसा वापस लौटाना चाहिए।’ कोर्ट ने जब इसपर फैसला सुनाया तो मायावती के वकील ने इसपर सुनवाई के लिए मई तक का समय मांगा था लेकिन कोर्ट ने सुनवाई 2 अप्रैल तक के लिए टाल दिया। इसके बाद मंगलवार को मायावती ने अपना हलफनामा दाखिल अपने जवाब में कहा, ‘यह लोगों की इच्छा थी।’ बसपा सुप्रीमों ने कहा कि अगर भगवान राम की मूर्ति बन सकती है तो मेरी क्यों नहीं? अगर अयोध्या में भगवान राम की 221 मीटर की प्रतिमा बननी प्रस्तावित हो सकती है तो मैं अपनी मूर्ति क्यों नहीं बनवा सकती हूं ? आगे इस हलफनामे में कहा कि मूर्ति बनवाना कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस के वक्त में भी केंद्र और राज्य सरकारों ने जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, नरसिम्हा राव जैसे नेताओं की जनता के पैसों से मूर्तियां स्थापित की गईं थी। पर तब तो किसी ने भी इसपर आपत्ति दर्ज नहीं कराई थी ना किसी ने प्रश्न पूछा।
मायावती का ये कहना सही है कि कांग्रेस ने अपने शासनकाल में अपने कई बड़े नेताओं की मूर्तियां बनवाई लेकिन अपनी तुलना भगवान राम से करना कहां तक सही है? क्या वो अपने इस बयान से हिंदुओं के पुरुषोत्तम राम को खुद की मूर्ति से तुलना कैसे कर सकती हैं? क्या वो ये बताना चाहती हैं कि अब लोगों को उनकी पूजा करनी शुरू कर देना चाहिए? अपनी तारीफ करना कोई मायावती से सीखे। जहां कांग्रेस ने पीवी नरसिम्हा राव, देश के पहले प्रधानमंत्री की मूर्ति बनवाई तो मायावती ने भी दलितों के विकास को नयी दिशा देने वाले काशीराम की मूर्ति बनवाई। उनके इस कदम पर किसी को आपत्ति नहीं लेकिन हर जगह अपनी पार्टी के चिन्ह और अपनी मूर्ति बनाने को वो उचित कैसे ठहरा सकती हैं?
फिर भी, बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमों ने मूर्तियों पर खर्च की गई सरकारी रकम को न्यायोचित ठहराया है। अपने हलफनामे में उन्होंने कहा कि विधानसभा में चर्चा के बाद मूर्तियां लगाई गईं थीं और इसके लिए बाकायदा सदन से बजट भी पास कराया गया था। इसके साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि मूर्तियां जनभावना के तहत लगवाई गयीं थीं और इसमें बसपा संस्थापक काशीराम की भी इच्छा थी। जिस तरह से उन्होंने दलीय आन्दोलन में अपना योगदान दिया था उसे कोई नहीं भुला सकता। ऐसे में पैसे लौटाने का सवाल ही नहीं उठता।
ठीक है, मायावती का कहना सही है कांशीराम ने दलित समाज को ऊपर उठाया है। कड़ी मेहनत की है इस समाज को देश की सत्ता से जोड़ने के लिए। उनकी मूर्ति बनाना न्यायिक है लेकिन मायावती का ये कहना कि मैंने शादी नहीं की और दलितों के लिए अपने जीवन को समर्पित किया वो दलित समुदाय की सहानुभूति पाने की हताशा को दर्शा रहा है।
वास्तव में मायावती ने सिर्फ अपना हित देखा है। बिना किसी हित के जिस तरह से कांशीराम ने दलितों के लिए अपना जीवन समर्पित किया उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा था। वो समर्पण मायावती में बहुत ही कम ही देखने को मिला है। उन्होंने घोटाले किये, अपने हित की राजनीति की और यहां तक कि उस पार्टी से हाथ मिला लिया जिसने कभी उनका सम्मान नहीं किया। वो कभी किसी दलित के घर जाकर उसकी समस्याओं को नहीं पूछती न उनसे सीधे जुड़ने का प्रयास करती हैं लेकिन फिर भी कहती हैं उन्होंने काफी कुछ किया है। दलित आज भी मुख्यधारा से पूरी तरह नहीं जुड़ सके हैं। अगर वास्तव में उन्होंने प्रयास किये थे तो अब तक कोई बड़ा बदलाव क्यों नहीं किया?