कुछ इस तरह नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने बदली भारतीय राजनीति की तस्वीर

अमित शाह मोदी

PC: Aajtak

जब नरेंद्र मोदी को 2013 में भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार चुना गया, तो उन्होंने तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ मिलकर एक ऐसा निर्णय लिया, जिससे सभी सकते में आ गए। राजनीतिक दृष्टि से अहम राज्य उत्तर प्रदेश में पार्टी के प्रचार प्रसार का जिम्मा नरेंद्र मोदी ने अपने विश्वसनीय मित्र, अमित शाह को सौंपा। ये वही अमित शाह थे जो एक वर्ष पहले ही जमानत पर बाहर आए थे। नरेंद्र मोदी की तरह ही अमित शाह देश के लेफ्ट लिबरल बुद्धिजीवियों को फूटी आंख नहीं सुहाते थे। यही नहीं उनपर तीन फर्जी एनकाउंटर को मंजूरी देने का आरोप भी लगाया गया था।

पर 2014 के लोकसभा चुनावों में जब जनता ने मोदी को सिर आंखों पर बिठाते हुए उन्हें देश का पीएम बनाया तब यह सिद्ध हो गया कि मोदी शाह की जोड़ी का जादू केवल गुजरात में ही नहीं चलता बल्कि यूपी जैसे बड़े राज्यों में भी चलता है। इस जोड़ी ने न सिर्फ बहुमत प्राप्त किया, बल्कि अकेले यूपी में ही 80 में से 71 सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की। यदि 1984 में महज 2 सीट लाने वाली पार्टी अगर आज अपने दम पर 2019 के लोकसभा चुनावों में 303 सीटों का जादुई आंकड़ा पार करने में कामयाब हुई है तो इसका श्रेय मोदी-शाह की जोड़ी को जाता है।

जैसे शोले में ‘जय वीरू’ और राजनीति में ‘अटल और आडवाणी’ की जोड़ी काफी प्रसिद्ध है, वैसे ही अब राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ख्याति बटोर रही है। भारतीय राजनीति की तस्वीर बदलने वाली इस मित्रता की नींव पड़ी थी 1982 में, जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह की पहली बार मुलाक़ात हुई थी।

तब नरेंद्र मोदी आरएसएस के प्रचारक थे, और अमित शाह आरएसएस के तरुण स्वयंसेवक, जो गुजरात में संघ की युवा गतिविधियों की देखरेख करते थे। धीरे धीरे दोनों एक दूसरे से परिचित हुए, और कुछ ही वर्षों में घनिष्ठ मित्र बन गए। अमित शाह वर्ष 1986 में भाजपा में शामिल हुए थे, वहीं एक वर्ष के पश्चात नरेंद्र मोदी पार्टी में शामिल हुए थे..फिर ये दोनों भारतीय राजनीति को बदलने की मुहिम में मिलकर काम करने लगे।

दोनों ने एक साथ सबसे पहले 1991 के लोकसभा चुनावों में काम किया, जहां गांधीनगर क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ रहे लाल कृष्ण आडवाणी के पक्ष में इन दोनों ने प्रचार भी किया। परंतु इस जोड़ी का महत्व 1995 में सामने आया, जब सबकी उम्मीदों के विपरीत भाजपा ने गुजरात में कांग्रेस को पटखनी देते हुए अपनी सरकार बनाई थी।

इसमे अहम भूमिका मोदी और शाह के जोड़ी की भी थी, जिन्होंने अपनी सफल रणनीतियों से गुजरात में कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा। उदाहरण के लिए यदि एक गांव में प्रधान चुना जाता था, तो उनसे हारने वाला जो सबसे सशक्त और मजबूत नेता होता था, उसे मोदी और शाह की जोड़ी की देखरेख में भाजपा में शामिल कर लिया जाता था। देखते ही देखते कुछ ही महीनों में 8000 से ज़्यादा ग्राम प्रधान उम्मीदवार भाजपा में शामिल हो गए, जिसके कारण भाजपा ने सभी पूर्व समीकरण झुठलाते राज्य के 182 सीट में से 121 सीटों पर जीत दर्ज की। राज्य में 15 वर्षों के बाद एक गैर-कांग्रेसी सरकार आई थी, जिसका श्रेय कई मायनों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की करिश्माई जोड़ी को मिलना चाहिए था।

हालांकि, जब पार्टी में मोदी और शंकर सिंह वाघेला के बीच मतभेद बढ़ा तब भाजपा ने पीएम मोदी को दिल्ली इकाई में स्थानांतरित कर दिया गया। ये अमित शाह ही थे, जिन्होंने इस मुश्किल समय में भी पीएम मोदी का साथ दिया। 2001 तक वे नरेंद्र मोदी को गुजरात से संबंधित हर खबर और जानकारी पहुंचाते थे।  

जब 2001 में नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने अमित शाह को अपने मंत्रिमंडल में जगह भी दी। 38 साल की उम्र में अमित शाह गुजरात सरकार के सबसे युवा मंत्रियों में से एक बने। जब 2002 के दंगों के बाद सभी नरेंद्र मोदी से दूरी बनाने लगे थे, तो यह अमित शाह ही थे जो उस स्थिति में भी नरेंद्र मोदी के साथ खड़े थे। नतीजतन जब 2002 में नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत के साथ गुजरात के मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने अमित शाह को कई मंत्रालयों का पदाभार सौंपा। एक वक़्त तक तो अमित शाह को गृह मंत्रालय समेत 11 मंत्रालयों की कमान सौंप दी गयी थी।

हालांकि, इस दोस्ती को ग्रहण तब लगा, जब 2010 में अमित शाह को सोहराबुद्दीन शेख, कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति के ‘फर्जी एनकाउंटर’ मामले में गिरफ्तार हुए थे। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी को ऐसा लगा मानो किसी ने उनका दाहिना हाथ काट दिया हो। जब तक अमित शाह को जमानत नहीं मिल गयी, तब तक वे निरंतर अमित शाह के लिए हर संभव मदद पहुंचाते रहे। यहां तक कि साल 2010-2012 में जब अमित शाह को दिल्ली के गुजरात भवन में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा था, तब भी नरेंद्र मोदी उनके साथ रहे।

मोदी-शाह की इस गहरी दोस्ती का ही नतीजा है कि जो भाजपा कुशल नेतृत्व की कमी से 2013 तक जूझ रही थी, उसे मानो इन दोनों के रूप में अपनी संजीवनी बूटी मिल गयी हो। दोनों के कमान संभालते ही भाजपा को मानो किसी ने नया जीवन दे दिया हो। फिर जो विजय यात्रा 2014 के लोकसभा चुनाव से शुरू हुयी, वो तमाम बाधाओं को पार करते हुए आज 2019 की अग्निपरीक्षा को भी सफलतापूर्वक पार कर गयी। अब पार्टी के नियमों के अनुसार अमित शाह पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ देंगे। इसके साथ ही इस बार उन्हें मोदी की कैबिनेट में एक बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है। खैर, अब जाते जाते हम तो यही आशा करते हैं कि ये दोस्ती बनी रहे और दोनों मिलकर देश के विकास के लिए कार्य करते रहे।  

 

 

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