जबसे लोकसभा चुनावों में भाजपा युक्त एनडीए गठबंधन की सत्ता वापसी हुई है, तबसे मानो कुछ नेताओं को गहरा सदमा लगा है। चाहे वो कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष राहुल गांधी हों, या महागठबंधन 2.0 का दावा ठोंकने वाले सपा मुखिया अखिलेश यादव हो, या फिर बसपा सुप्रीमो मायावती ही क्यों न हो, इन चुनावों में इनके मंसूबों पर जनता ने अच्छी तरह पानी फेरा है। आम आदमी पार्टी के बारे में जितना कम बोले, उतना ही बेहतर।
पर अगर किसी को इस चुनावी परिणाम से सबसे ज़्यादा धक्का लगा है, तो वो है ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री, ममता बनर्जी । उनके और उनके समर्थकों की लाख कोशिशों के बावजूद भाजपा ने न सिर्फ बंगाल में उन्हें नाकों चने चबवाने पर मजबूर कर दिया, बल्कि 42 में 18 सीटों पर विजय भी प्राप्त की।
शायद इसीलिए ममता बनर्जी अपना सुध बुध खो बैठी हैं। इनके हालिया बयानों को अगर गौर से देखा जाये, तो एक बात तो साफ है कि ममता बनर्जी के साथ सब कुछ ठीक नहीं है। सबसे पहले तो उन्होंने ऐसे अप्रत्याशित परिणामों को ध्यान में रखते हुए अपने पद से इस्तीफा देने की पेशकश की। हालांकि इस पेशकश को इनकी पार्टी ने सिरे से नकार दिया।
तत्पश्चात ममता बनर्जी ने सबको चौंकाते हुए अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की अपनी नीति को स्वीकारने में कोई हिचक नहीं दिखाई। ममता के अनुसार, ‘हां, न्योता देने पर इफ्तार में जाउंगी। यदि यह मुस्लिम तुष्टिकरण है तो वही सही। जे गोरू दूध दाए, तर लाठी खेते राजी आछी [अगर गाय मुझे दूध देती है, तो मुझे उसकी लातें भी मंजूर है’]।
पर इसके आगे ममता दीदी ने जो बयान दिये, उससे उन्होंने यह साबित कर दिया की इस चुनावी परिणाम से उन्हें कितना आघात पहुंचा है। उन्होंने नरेंद्र मोदी की विजय में जहां विदेशी हाथ होने का बेतुका आरोप लगाया, वहीं अपनी सत्ता के प्रति आसक्ति को भी उन्होंने खुलकर सामने रखा। उन्होंने मीडिया को संबोधित करते हुए कहा, ‘आमी चेयर के चाही न, चेयर ए आमके चाही [मुझे कुर्सी की ज़रूरत नहीं, कुर्सी को मेरी ज़रूरत है].
इतना ही नहीं, ममता बनर्जी ने शिष्टाचार की सभी सीमाएं लांघते हुएअपनी असफलता का दोष बंगाल की जनता पर भी मढ़ने का प्रयास किया। उनके अनुसार, ‘मैंने सभी वादे पूरे किए। पिछले आठ वर्षों में मेरी सरकार ने कितने अच्छे काम किए। पर शायद जितना करना चाहिए था, उससे ज़्यादा ही कर दिया।‘ ये बयान पढ़ कर हमें 2017 में अखिलेश यादव के वे बेतुके बोल याद आते हैं, जब उन्होंने अपनी हार का दोष जनता की बेरुखी पर मढ़ा था। शायद ममता बनर्जी को भी बंगाल के अभेद्य किले में भाजपा की सेंध बर्दाश्त नहीं हो रही है। पर क्या करें दीदी, हुआ तो हुआ।