कोलकाता हाई कोर्ट से महिलाओं द्वारा सताये हुए पुरुषों के लिए अच्छी खबर

PC: Patrika

कोलकाता हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी फैसले में यह साफ किया है कि जिन महिलाओं के पास पर्याप्त आर्थिक संसाधन मौजूद हैं, उन्हें तलाक के बाद गुजारा भत्ते की मांग करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है। एक महिला के केस के संबंध में कोलकाता हाई कोर्ट ने यह फैसला सुनाया। उस महिला ने तलाक के बाद अपने पति से प्रतिमाह 50 हज़ार रुपये गुज़ारा भत्ता की मांग की थी। इस केस पर जस्टिस बिस्वजीत बसु ने टिप्पणी करते हुए कहा ‘महिला की सैलरी 74 हज़ार रुपये प्रति माह से कम नहीं है, जबकि उस महिला ने अपनी मासिक जरूरतों को पूरा करने के लिए स्वयं ही 50 हज़ार रुपयों की मांग की है’।

इस महिला ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ कोलकाता हाई कोर्ट में अर्ज़ी दायर की थी। उस महिला ने अपने पति द्वारा क्रूरता के आधार पर अपने पति से तलाक की मांग की थी, और इसके साथ ही प्रतिमाह 50 हज़ार रुपये गुज़ारा भत्ते की भी मांग की थी। हालांकि, निचली अदालत ने उस महिला की मांग को ठुकरा दिया था और उसके पति को मुक़दमेबाज़ी के खर्चे की भरपाई हेतु सिर्फ 30 हज़ार रुपये देने का आदेश दिया था। लेकिन महिला को निचली अदालत के इस आदेश से संतुष्टि नहीं हुई और उसने इस आदेश के खिलाफ कोलकाता हाई कोर्ट में अपील दायर कर दी।

सुनवाई के दौरान उस महिला ने दलील दी कि उसे अपने गुजारे के लिए हर महीने भत्ते के तौर पर एक तय राशि चाहिए। महिला द्वारा उस कोर्ट में दायर अर्ज़ी के मुताबिक उस महिला ने घेरेलू चीजों कि खरीद के लिए 10 हज़ार, जेब खर्ची के लिए 4 हज़ार, घर के अन्य सामान और कपड़ों के लिए 22 हज़ार और कानूनी खर्चो के लिए प्रति माह 14 हज़ार रुपयों की मांग की।  हालांकि, इस केस की सुनवाई कर रही बेंच ने महिला की इन आधारहीन मांगों को ठुकरा दिया और महिला की अपील को खारिज कर दिया।

आमतौर पर कोर्ट द्वारा ऐसे मामलों में पुरुषों का पक्ष लेना चलन में नहीं है। लेकिन कोलकाता हाई कोर्ट के इस फैसले ने एक बार फिर इस बात को प्रकाशित किया है कि ‘पुरुष भी पीड़ित हो सकते हैं’। जिस तरह एक पीड़ित महिला को इंसाफ मिलना अति-आवश्यक है, उसी तरह पीड़ित पुरुषों के साथ न्याय भी उतना ही ज़रूरी है। क्या सिर्फ लिंग के आधार पर पुरुषों के साथ भेदभाव करना उचित है? बिल्कुल नहीं!

हालांकि, ऐसा नहीं है कि पुरुषों के साथ सिर्फ गुज़ारा भत्ते के नाम पर ही अन्याय होता है। ‘मी टू कैम्पेन’ के दौरान हमने भली भांति देखा है कि कैसे नाना पाटेकर, विकास बहल, सुभाष घई जैसे लोगों पर यौन उत्पीड़न के आधारहीन आरोप लगाए गए।

हमें यह अक्सर देखने को मिलता है कि जब पुरुषों पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए जाते हैं तो हमारे देश का मुख्यधारा मीडिया इन्हें बदनाम करने में जरा भी देर नहीं लगाता। जब नाना पाटेकर और विकास बहल पर आरोप लगाए गए थे तो मीडिया ने इन्हें बदनाम करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। हालांकि, अब जब कोर्ट द्वारा इन्हें सभी आरोपों से मुक्त किया जा चुका है तो यही लोग अब चुप्पी साधकर बैठे हैं। कोलकाता हाई कोर्ट के इस क्रांतिकारी फैसले का हम सबको स्वागत करना चाहिए। हमें उम्मीद है कि आगे भी देश का न्यायिक तंत्र पुरुषों के साथ होने वाले अन्याय की इस प्रथा को खत्म करेगा ताकि भारतीय समाज को एक नई और सकारात्मक दिशा दिखाई जा सके।

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