हाल ही में कांग्रेस शासित राज्य मध्य प्रदेश और राजस्थान में जो घटित हुआ, उसकी अपेक्षा आम जनता को बिलकुल नहीं रही होगी। सबसे पहले तो राजस्थान सरकार ने उसी पहलू खान के विरुद्ध अवैध तरीके से मवेशी ले जाने के लिए चार्जशीट दाखिल कर दी, जिसे कुछ कथित गौरक्षकों ने पीट पीट के मार डाला था। वहीं इससे पहले मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ की सरकार ने गौहत्या के आरोप में तीन लोगों के विरुद्ध रासुका यानि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत मुकदमा दर्ज किया था।
जो कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते नहीं थकती हो, उनके राज्यों में ऐसी घटनाएं होना कोई आम बात नहीं है। हालांकि, जो कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास से भली भांति परिचित है, उन्हे अच्छी तरह से पता है की इससे पहले भी कांग्रेस कुछ मौकों पर ऐसे ही सबको हैरान करने का काम कर चुकी है। जब जब पार्टी को लगता है की वो हाशिये पर है, और उनका राजनीतिक अस्तित्व खतरे में है, तब तब पार्टी ‘नर्म हिन्दुत्व’ के राह पर चलने लगती है।
इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिलता है सन 1969 में। जब पार्टी का विभाजन हुआ था तब इन्दिरा गांधी के पार्टी का चुनाव चिन्ह गाय और बछड़ा था। इतना ही नहीं, तब इन्दिरा गांधी ने एक उच्च स्तरीय जांच समिति के गठन का वचन भी दिया था जो गोहत्या के तत्कालीन संवैधानिक प्रावधानों के दायरे पर विचार करती और उसमें ज़रूरी संशोधन भी करती। ये वादा इन्दिरा गांधी ने वर्ष 1966 में असंख्य संतों द्वारा गोहत्याबन्दी और गोरक्षा के कानून बनाने की मांग पर किया था।
हिंदुओं को लुभाने के लिए कांग्रेस ने नर्म हिन्दुत्व का दांव दूसरी बार 1986 में खेला था, जब शाह बानो मामले में कांग्रेस के राजनीतिक रुख से पूरे देश में सरकार के विरुद्ध आक्रोश उमड़ रहा था। बहुसंख्यक समुदाय के तुष्टीकरण के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने राम जन्मभूमि पर बने विवादित बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाने में एक अहम भूमिका भी निभाई थी। यह अलग बात की इसका फ़ायदा इन्हे 1989 के चुनावों में बिलकुल भी नहीं मिला था।
और भला हम मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के टैम्पल रन को कैसे भूल सकते हैं? वर्ष 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों से पहले राहुल गांधी द्वारा मंदिरों का दौरा करना, जनेऊ धारण करना, उनकी बहन प्रियंका गांधी का मंदिर जाना, पूजा करना, उनके ‘नर्म हिन्दुत्व’ को अच्छी तरह दर्शाता है, जिससे कांग्रेस को गुजरात में आंशिक रूप से फायदा मिला था और अगले वर्ष हुए मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी काफी फ़ायदा मिला था। हालांकि इनके दांव 2019 के लोकसभा चुनाव में पूर्णतया असफल सिद्ध हुये, क्योंकि जनता को इनकी ‘आर्टिफ़िश्यल हिन्दुत्व’ वाली राजनीति अच्छे से समझ आ चुकी थी।
विपरित परिस्थितियों में जहां एक तरफ कांग्रेस नर्म हिन्दुत्व की रणनीति को अपनाती है तो वहीं कांग्रेस के बड़े नेता निजी हितों को साधने के लिए दक्षिण भारत का रुख करते हैं। जब भी कांग्रेस के उच्च नेतृत्व को लगता है की वे उत्तर में अपने चुनाव क्षेत्र से हार सकते हैं, तब वे दक्षिण की तरफ रुख कर लेते हैं। वर्ष 1977 में जब रायबरेली से हार मिलनी लगभग तय थी, तभी इन्दिरा गांधी ने कर्नाटक के चिकमंगलूर क्षेत्र से चुनाव लड़ा था और वे वहां से सांसद चुनकर आईं थी। इसी तरह सोनिया गांधी ने वर्ष 1999 में बेल्लारी से चुनाव लड़ा था, और अभी हाल ही में राहुल गांधी ने अमेठी को हाथ से फिसलता देख केरल के वायनाड़ से चुनाव लड़ने का निर्णय लिया था।
अब अगर मध्य प्रदेश और राजस्थान की घटनाओं को ध्यान से देखा जाए, तो इसी परंपरा का पालन होता दिखाई दे रहा है, और यही कारण है कि लोकसभा में करारी हार के बाद उन्होंने ‘गौ राजनीति’ जैसे ज्वलंत मुद्दे को उठाया है। साफ है कि चुनावों के बाद से ही कांग्रेस विचलित दिखाई दे रही है और कैसे भी करके दोबारा लोगों का विश्वास जीतना चाहती है, और इसी लिए अब वह जनता को आकर्षित करने के लिए अपनी छद्म-धर्मनिरपेक्ष नीतियों का अनुसरण करती नज़र आ रही है।