भारत की विदेश नीति में हाल ही में मंगलवार को एक महत्वपूर्ण बदलाव दिखा, जब यूएन की इकॉनॉमिक एंड सोशल काउंसिल में भारत ने पहली बार इजराइल के पक्ष में अपना वोट डाला। यह वोटिंग यूएन की इकॉनॉमिक एंड सोशल काउंसिल में फिलस्तीन के कथित मानवाधिकार संगठन ‘शाहेद’ को पर्यवेक्षक का दर्जा देने के लिए हुई थी। इज़राइल को भारत जैसे शक्तिशाली देश का कूटनीतिक साथ मिलना उसके लिए एक बड़ी कामयाबी है। इस निर्णय से इजराइल काफी उत्साहित है, जो भारत में इजरायली दूतावास की मिशन उप प्रमुख माया कदोश के ट्वीट में साफ झलक भी रहा है जिसमें उन्होंने लिखा, ‘यूएन में हमारा साथ देने के लिए भारत का धन्यवाद, और आतंकवादी संगठन शाहेद को यूएन में पर्यवेक्षक बनने से रोकने के लिए धन्यवाद। हम आगे भी मिलकर ऐसे आतंकवादी संगठनों को नुकसान पहुंचाने से रोकेंगे।’
पर शाहेद से इजराइल को क्यों आपत्ति हो रही है? दरअसल शाहेद एक फिलिस्तीनी मानवाधिकार संगठन है, जिसपर अप्रत्यक्ष रूप से इजराइल विरोधी गतिविधियों को, विशेषकर आतंकी हमलों को बढ़ावा देने का आरोप लगता है।
चर्चित मीडिया पोर्टल ‘द प्रिंट’ को दिये अपने साक्षात्कार में माया कदोश ने कहा, ‘ये एक अच्छा संकेत है। भारत एशिया समूह में हमें समर्थन देने वाला पहला देश रहा है, तो हम निसंदेह काफी प्रसन्न है। यह पहली बार है कि इजराइल ने ‘शाहेद’ को पर्यवेक्षक का दर्जा न करने के प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र के समक्ष रखा।‘
यूं तो भारत ने कई वर्षों तक स्वतंत्र फिलिस्तीन के पक्ष में अपनी आवाज़ उठाई है। परंतु मोदी सरकार के आने के बाद से इस नीति में कई मूल बदलाव देखने को मिले हैं। कभी फिलिस्तीन के लिए आंख मूंदकर समर्थन करने वाला भारत आज उसी की आतंकी गतिविधियों को अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण देने के विरुद्ध यूएन में अपना मत सभी के समक्ष रखा है। इस व्यापक बदलाव से भारत को दोनों स्तर पर काफी लाभ मिलेगा, चाहे वो राष्ट्रीय हो, या अंतर्राष्ट्रीय।
राष्ट्रीय स्तर पर इस निर्णय से मोदी सरकार ने भारत की अंदरूनी राजनीतिक विवशताओं को दरकिनार कर इजराइल की आतंक विरोधी नीतियों का खुलकर समर्थन किया है। ऐसा इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने तुष्टिकरण की राजनीति की परंपरा को विकास की राजनीति में बदल दिया है। पहले भारत का इजराइल के प्रति व्यवहार अंदरूनी राजनीतिक विवशताओं, विशेषकर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के दबाव में रहता था। अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत फिलिस्तीन का समर्थन करता था, क्योंकि तत्कालीन सरकारों को अल्पसंख्यकों को भी प्रसन्न रखना होता था लेकिन जब भी भारत को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन की आवश्यकता पड़ी, फिलिस्तीन ने हमेशा पाकिस्तान का समर्थन किया है।
ऐसे में भारत ने फिलिस्तीन के खिलाफ अपना वोट डालकर अपनी विदेश नीति में एक बड़े बदलाव की ओर संकेत दिया है। आजादी के बाद से भारत हमेशा से ही फिलिस्तीन का कूटनीतिक समर्थन करता आया है। यूएन से लेकर यूनेस्को तक, भारत ने हर महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मंच पर फिलिस्तीन का सिर्फ साथ ही नहीं दिया बल्कि उसके पक्ष में जमकर लोब्बिंग भी की। उदाहरण के तौर पर, भारत वर्ष 1974 में ऐसा पहला नॉन-अरब देश बना था जिसने पीएलओ यानि Palestinian Liberation Organization को मान्यता दी थी। पीएलओ का मकसद सशस्त्र लड़ाई के माध्यम से फिलिस्तीन को इज़राइल से आज़ाद करवाना था। आज पीएलओ को अमेरिका और इज़राइल जैसे देश एक आतंकवादी संगठन के तौर पर देखते हैं। इसके अलावा वर्ष 1988 में भारत ने फिलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता दी थी, जो कि अपने आप में फिलिस्तीन के लिए एक बहुत बड़ी बात थी। हालांकि, आज वर्ष 2019 में भारत ने यूएन में इजराइल के पक्ष में वोट डालकर इजराइल के साथ-साथ फिलिस्तीन को भी कुछ अहम संकेत दिये हैं।
सभी जानते हैं कि दशकों तक फिलिस्तीन का समर्थन करने के बावजूद फिलिस्तीन ने कभी भारत का साथ नहीं दिया। अलग-अलग वैश्विक मुद्दों पर फिलिस्तीन और पाकिस्तान का गठजोड़ भी किसी से छुपा नहीं है। दिसंबर 2017 में येरुशलम मुद्दे पर एक रैली में पाकिस्तान में मौजूद फिलिस्तीन के राजदूत ने तो भारत के मोस्ट वांटेड आतंकी हाफिज़ सईद के साथ मंच साझा किया था, जिसको लेकर भारत ने अपनी कड़ी आपत्ति जताई थी। इसके अलावा कश्मीर मुद्दे को लेकर भी कभी फिलिस्तीन ने खुलकर भारत का साथ नहीं दिया। यहां तक की फिलिस्तीन का समर्थन करने वाले इस्लामिक देशों का समूह OIC भी कश्मीर मुद्दे को लेकर भारत की आलोचना करता रहता है, जो भारत को बिल्कुल भी पसंद नहीं है।
दूसरी ओर लगातार दशकों तक नकारे जाने के बाद भी इज़राइल ने हमेशा भारत के साथ अपने अच्छे संबंध बनाने पर ज़ोर दिया। भारत को जरूरत के समय हथियार भेजने हो, या फिर पाकिस्तानी आतंकवादियों के खिलाफ खूफिया सूचना साझा करनी हो, हर बार इज़राइल ने भारत का भरपूर साथ दिया है। वर्ष 1999 के कारगिल युद्ध के समय इज़राइल उन चुनिन्दा देशों में शामिल था जिन्होंने सीधे तौर पर भारत की सैन्य सहायता की थी। इज़राइल ने भारत को सही वक्त पर गोला बारूद दिया और मोर्टार दिये, ड्रोन्स के साथ-साथ लेज़र गाइडेड मिसाइल भी उपलब्ध कराये, जिन्होंने भारतीय वायुसेना के मिराज लड़ाकू जहाजों की मारक क्षमता को कई गुना तक बढ़ा दिया था। इसके अलावा इज़राइल ने वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय भी भारत का एकतरफा साथ दिया था। हैरानी की बात तो यह है कि उस वक्त भारत और इज़राइल के बीच किसी तरह के कूटनीतिक संबंध भी स्थापित नहीं हुए थे। इसके अलावा कृषि और विज्ञान क्षेत्र में भी इज़राइली तकनीक विश्व-स्तरीय है, जिसकी भारत को अभी सख्त ज़रूरत है।
हालांकि, यहां गौर करने वाली बात यह है कि इज़राइल द्वारा भारत के इतने समर्थन के बाद भी कभी भारत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस देश का साथ नहीं दिया। दरअसल, इसके पीछे भारत की कई कूटनीतिक विवशताएं भी छिपी थी। दरअसल, कतर, सऊदी अरेबिया और ओमान जैसे देशों को इज़राइल फूटीं आंख नहीं सुहाता था जबकि ये देश दुनियाभर में कच्चे तेल के सबसे बड़े निर्यातकों में से एक हैं। ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इज़राइल का समर्थन करके भारत इन अरब देशों के साथ अपने मतभेद नहीं बढ़ाना चाहता था।
हालांकि, वर्ष 2014 में भारत में मोदी सरकार के आने के बाद से ही हमें भारत और इज़राइल के संबंधों में मधुरता देखने को मिली है। आज़ादी के बाद पहली बार भारतीय सरकार ने खुलकर इज़राइल के साथ अपने रिश्तों को प्राथमिकता दी। वर्ष 2017 में प्रधानमंत्री मोदी इज़राइल का दौरा करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री बने। तब इज़राइल ने भारत को एक ‘पुराना दोस्त’ बताया था। 2019 में विकास और राष्ट्रीय मुद्दे के दम पर दोबारा सत्ता में आये प्रधानमंत्री मोदी ने आज यूएन में भारत ने इज़राइल के साथ खड़े होकर अपनी विदेश नीति में एक बड़े बदलाव का संकेत दिया है। ऐसा करके भारत ने फिलिस्तीन के साथ-साथ, कश्मीर पर भारत के साथ दोहरा रुख अपनाने वाले इस्लामिक देशों को एक कड़ा संदेश दिया है। वहीं, फिलिस्तीन के लिए यह बड़ा झटका इसलिए है क्योंकि वह पिछले काफी समय से यूनाइटेड नेशन्स का एक स्थायी सदस्य बनाना चाहता है जिसमें उसे भारत के साथ-साथ कई महत्वपूर्ण देशों के कूटनीतिक समर्थन की आवश्यकता है। ऐसे में भारत की इस नई विदेश नीति से फिलिस्तीन के सामने एक बड़ा कूटनीतिक संकट आन खड़ा हुआ है।
पिछले कुछ सालों में देश की कूटनीतिक शक्ति में बड़ा इजाफा हुआ है जिसके कारण अब भारत अपने हितों को सर्वोपरि रखते हुए अहम राजनीतिक फैसले लेने में सक्षम हो सका है। इसके साथ ही भारत का इजराइल के पक्ष में मत देना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत के लिए काफी लाभकारी है। आज भारत की छवि इतनी मजबूत हो गई है कि भारत द्वारा इज़राइल का समर्थन करने के बाद भी अरब देश भारत के साथ अपने रिश्तों को बिगाड़ना तो बिल्कुल नहीं चाहेंगे। इज़राइल को लेकर भारत ने अपनी विदेश नीति को अब साफ कर दिया है। इसके साथ ही ये भी संदेश दिया है कि आतंक के साथ किसी भी स्तर पर कोई समझौता नहीं किया जायेगा।
जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी देश के विकास के लिए काम कर रहे हैं और देश की छवि को हर स्तर पर सुधारने का प्रयास कर रहे हैं वो सराहनीय है। उनके इस निर्णय से एक और बात जो स्पष्ट हुई है वो ये कि यदि प्रधानमंत्री मोदी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे साहसी कदम उठा सकते हैं, तो फिर वो राष्ट्रीय स्तर पर भी अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को किनारे ऐसे बड़े फैसले लेने में नहीं हिचकेंगे। तीन तलाक के खिलाफ उनके पहले कार्यकाल में उठाया गया कदम इसका बेहतरीन उदाहरण भी है।‘स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में चाहे समान नागरिक संहिता अथवा [यूनिफॉर्म सिविल कोड] का क्रियान्वयन करना हो, धारा 370 को हटाना हो ।।ऐसे कई बड़े मुद्दों पर वो बड़ा फैसला ले सकते हैं।