2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा युक्त एनडीए गठबंधन ने अपना जनाधार सशक्त करते हुए 353 सीटों पर जीत दर्ज की। जहां एक तरफ एनडीए ने हिन्दी बाहुल्य प्रदेशों में अपना जनाधार कायम रखा, तो वहीं उत्तर पूर्वी भारत एवं दक्षिण भारत के कई अहम हिस्सों में पार्टी ने अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराई। इतना ही नहीं, कर्नाटक के अलावा भारतीय जनता पार्टी ने सभी राजनीतिक विशेषज्ञों को चौंकाते हुए तेलंगाना में 13 में से 4 सीटों पर जीत दर्ज कर राज्य में अब मुख्य विपक्षी पार्टी होने का अधिकार प्राप्त कर लिया है।
ऐसे में यदि विपक्षी खेमे में हलचल न मचे, ऐसा हो नहीं सकता। हलचल भी मची, और कई राजनीतिक विशेषज्ञों ने इस जीत को कमतर आंकते हुए भाजपा को नीचा दिखाने का भरसक प्रयास किया। कुछ लोगों ने तो यहां तक कह दिया कि भाजपा की यह जीत कुछ नहीं, महज़ छलावा है, जबकि सत्य इससे कोसों दूर है।
अक्सर हमने देखा है कि जिन क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी का जनाधार मजबूत नहीं है वहां भी भारतीय जनता पार्टी अपनी पैठ जमाने के लिए एक निश्चित रणनीति के अनुसार चलती हैं, जिसके परिणाम असम, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा जैसे राज्यों में साफ साफ दिखा है। इतना ही नहीं, हाल ही में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों में जिस तरह भारतीय जनता पार्टी ने तमाम चुनौतियों का मजबूती से सामना करते हुए पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के छक्के छुड़ा दिये, ये इसी रणनीति की सफलता का जीवंत प्रमाण है।
भाजपा की इस नयी रणनीति का आधारभूत सिद्धान्त है उक्त राज्य में सर्वप्रथम मुख्य विपक्ष की उपाधि प्राप्त करना। पिछले ही वर्ष सम्पन्न हुए पश्चिम बंगाल के हिंसाग्रस्त पंचायत चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कम्यूनिस्ट पार्टी की जगह लेते हुए टीएमसी के समक्ष मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी। ऐसा संभव हुआ भाजपा की विशेष रणनीति के माध्यम से, जो समय समय पर एक तीर से दो शिकार करने में पूरी तरह सक्षम है।
एक तरफ जहां स्थानीय स्तर पर बूथ लेवल के संगठन को पार्टी ने काफी मजबूत किया, तो वहीं दूसरी पार्टियों से प्रभावशाली राजनेताओं को लुभाने में भी भाजपा सफल रही हैं। इसका जीता जागता प्रमाण है पार्टी में मुकुल रॉय एवं अर्जुन सिंह जैसे टीएमसी के कद्दावर नेता का भाजपा में प्रवेश, जिसने भाजपा के हालिया ‘बंगाल उदय’ में एक अहम भूमिका निभाई है।
अब ऐसा लग रहा है कि इसी रणनीति का सफल प्रयोग तेलंगाना राज्य में भी किया जा रहा है, जिसका प्रमुख उद्देश्य है 2023 तक तेलंगाना की सत्ता से तेलंगाना राष्ट्र समिति को हटाना। यदि वर्तमान लोकसभा चुनावों के नतीजों को देखा जाये, तो भाजपा टीआरएस के समक्ष मुख्य विपक्ष का दर्जा पहले ही हासिल कर चुकी है। परंतु काफी कम समय में भाजपा ने बूथ लेवल पर संगठन को सशक्त कर लोकसभा चुनावों में सफलता प्राप्त की है।
किसे यकीन होगा कि जो भाजपा पिछले ही वर्ष सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में सिर्फ 1 सीट प्राप्त कर पायी थी, वो इस बार लोकसभा चुनावों में एक नहीं बल्कि 4 संसदीय सीट सफलतापूर्वक प्राप्त कर लेगी? कई लोगों का मानना था कि विधानसभा चुनावों की तरह इस बार लोकसभा चुनावों में भी टीआरएस को बड़ी जीत मिलेगी, और कोई भी पार्टी फिलहाल के लिए राज्य में उसे टक्कर देने योग्य है ही नहीं।
परंतु बूथ स्तर पर सशक्त संगठन एवं सशक्त उम्मीदवारों के बलबूते भारतीय जनता पार्टी ने सभी समीकरण झुठलाते हुए तेलंगाना में मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में सफलता पायी है। वैसे भी, जहां जहां मुक़ाबला त्रिकोणीय रहा है, वहां अक्सर भाजपा को सबसे ज़्यादा फायदा पहुंचा है।
यही नहीं, भाजपा ने तेलंगाना की राजनीति में अपने कद को बढ़ाते हुए पश्चिम बंगाल के तर्ज़ पर टीआरएस, टीडीपी और कांग्रेस के कई प्रभावशाली नेताओं को लुभाने में सफल रही है। यही नहीं भाजपा के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए ही एबी रपोलू, पी सुधाकर रेड्डी जैसे कांग्रेसी नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा है।
यहीं नहीं, लोकसभा चुनाव से पहले तक कई असंतोषजनक टीआरएस नेताओं ने भी भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया है। पश्चिम बंगाल लोकसभा सीटों के परिणाम भारतीय जनता पार्टी की इस विशेष रणनीति का जीता जागता प्रमाण है.. और अब तेलंगाना में भी बीजेपी यही रणनीति अपना रही है ..ऐसे में अब टीआरएस को बहुत चिंता करने की ज़रूरत है, क्योंकि जब बीजेपी ने अपना लक्ष्य तय कर लिया, तो वो उसे प्राप्त किए बिना चैन से नहीं बैठता।