देशभक्त बटुकेश्वर दत्त: शहीद भगत सिंह के साथ आज़ादी की लड़ाई लड़ी, फिर भी इन्हें भुला दिया गया

ये हैं देश के वो वीर जिन्हें अनदेखा किया गया

बटुकेश्वर दत्त

PC: TopYaps

ये कथा है अमर हुतात्मा बटुकेश्वर दत्त की : 

8 अप्रैल 1929। तत्कालीन इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउन्सिल के निचले सदन, यानि सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली सदस्यों और दर्शकों से भरा हुआ था। उस दिन दो अहम बिल – पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल पर चर्चा होनी थी। हालांकि, ये चर्चा तो महज औपचारिकता थी, अंग्रेज़ों ने इन दोनों बिल को पारित कराने की पूरी व्यवस्था कर ली थी। भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के प्रतिनिधि सर जॉर्ज शूस्टर ब्रिटिश सरकार का मत रखने के लिए उठे ही थे कि अचानक असेम्बली में एक के बाद एक दो बम फोड़े गए।

बम की आवाज़ से पूरे सदन में खौफ छा गया और लोग अफरा-तफरी में इधर-उधर भागने लगे। लेकिन यदि कोई नहीं भागा, तो वे थे दर्शक दीर्घा में बैठे दो युवक। खाकी की कमीज़ और शॉर्ट्स पहन के आए इन दो युवकों ने इसी भगदड़ में लाला रंग की पर्चियां फेंकनी प्रारम्भ की और पूरा सदन ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ एवं ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारों से गूंज उठा। पुलिस के आने के बाद भी ये दोनों युवकों अपनी जगह से टस से मस भी नहीं हुए, और बिना झिझके पुलिस के सामने समर्पण किया।

इनमें से एक युवक बाद में करोड़ों युवाओं की प्रेरणा, और अमर हुतात्मा भगत सिंह के रूप में सदा के लिए अमर हो गए। परंतु दूसरा युवक भगत जैसे वीर और प्रतिभावान होने के बाद भी गुमनामी के अंधकार में सदा के लिए खो गए। ये कथा है अमर हुतात्मा बटुकेश्वर दत्त की, जिन्होंने असेम्बली में बम फोड़ने में भगत सिंह का साथ दिया था, और जिनकी आज 54वीं पुण्यतिथि है।

वीर बटुकेश्वर दत्त जीवन परिचय

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवंबर 1910 को पश्चिम बंगाल के पूर्बा बर्धमान जिले के औरी ग्राम में हुआ था। अपना बचपन बर्धमान जिले में बिताने के बाद ये कानपुर आए, जहां उन्होंने पहले पीपीएन हाइ स्कूल से अपना हाईस्कूल और फिर पीपीएन कॉलेज से अपना स्नातक पूरा किया।

यहीं पर 1923 में बटुकेश्वर की मुलाक़ात भगत सिंह से हुई थी, जो उस समय विवाह से बचने के लिए कानपुर भाग आए थे। भगत सिंह और अजय घोष के साथ उन्होंने तत्कालीन हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसीएशन [एचआरए] की सदस्यता ग्रहण की, जिसके संस्थापकों में योगेश चन्द्र चटर्जी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, रामप्रसाद बिस्मिल इत्यादि शामिल थे।

बटुकेश्वर दत्त पहले एचआरए और उसके पश्चात हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन [एचएसआरए] के अहम सदस्य थे। अंग्रेज ऑफिसर जेपी सॉन्डर्स को मार गिराने के पश्चात जब कलकत्ता में सभी सदस्य इकट्ठा हुए थे. इसी दौरान बटुकेश्वर दत्त ने यतीन्द्रनाथ दास [जतिन दास] को एचएसआरए में शामिल कराने का सुझाव दिया, क्योंकि वे बम बनाने में काफी कुशल थे। जतिन के अंतर्गत एचएसआरए के कई सदस्यों ने बम बनाने में प्रशिक्षण लिया था।

उस समय ब्रिटिश राज के विरुद्ध विद्रोह को दबाने के लिए तत्कालीन सरकार ने डिफेन्स ऑफ इंडिया एक्ट 1915 को मजबूत बनाने के लिए दो बिलों को सदन में पारित कराने का निर्णय लिया। जहां पब्लिक सेफ़्टी बिल के जरिये किसी भी व्यक्ति को बिना सूचना के हिरासत में लिया जा सकता था, वहीं ट्रेड डिसप्यूट बिल के सहारे सरकारी हस्तक्षेप के विरोधस्वरूप होने वाली हड़तालों पर लगाम लगाई जा सकती थी।

इसी के विरोधस्वरूप भगत सिंह ने एक फ़्रांसिसी कट्टरवादी Auguste Vaillant [जिसने पेरिस के Chamber of Deputies पर बम फेखा था] से प्रेरित हो असेम्बली में बम फोड़ने का प्रस्ताव रखा। इसके लिए पहले एचएसआरए ने राम सरन दास और बटुकेश्वर दत्त को चुना, लेकिन सुखदेव के विरोध के पश्चात भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को असेम्बली में बम फोड़ने के लिए चुना गया था।

असेम्बली के बम कांड के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को अलग-अलग जेलों में रखा गया, ताकि वे किसी भी जेल में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध कोई विद्रोह न कर सकें।  बटुकेश्वर दत्त पर दिल्ली के सेशन्स कोर्ट में मुकदमा चला गया, जहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आईपीसी की धारा 307 और विस्फोटक अधिनियम 1884 की धारा 4 के अंतर्गत सजा सुनाई गयी थी. भगत सिंह को सांडर्स की हत्या के लिए फांसी की सजा हुई तो बटुकेश्वर दत्त कप काला पानी की सजा मिली यानि कि आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गयी। बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड़यंत्र केस’ का मुक़दमा चलाया गया था, परंतु वहां  इनके विरुद्ध कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल पाये।

जहां भगत सिंह और सुखदेव, राजगुरु को 23 मार्च 1931 को फांसी पर लटका दिया गया था, तो वहीं बटुकेश्वर दत्त को पहले सेल्यूलर जेल और फिर भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के नाते मोतीहारी जेल में सजा काटनी पड़ी, जिसके कारण उन्हें क्षय रोग [टीबी] की बीमारी हो गयी। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात उन्होंने अंजलि नामा की एक महिला से नवम्बर 1947 में विवाह किया था।

हालांकि, जिस देश के लिए बटुकेश्वर दत्त ने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, उस देश का स्वतंत्र प्रशासन ने उन्हें एक सम्मानजनक नौकरी भी नहीं दे पाया। बटुकेश्वर दत्त ने कई नौकरियाँ की, जैसे एक सिगरेट कंपनी का एजेंट होना, या फिर एक छोटी सी बिस्कुट एवं ब्रेड [डबलरोटी] का कारख़ाना खोलना, या फिर परिवहन के क्षेत्र में अपने हाथ आजमाना, जिसमें से दुर्भाग्यवश उन्हें किसी में भी सफलता हाथ नहीं लगी।

जब क्षय रोग के कारण उनकी हालत बिगडती गयी, तो उन्हें पटना के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहां इनकी हालत देखकर व्यथित पत्रकार मित्र चमनलाल आज़ाद ने एक लेख में लिखा, ‘क्या बटुकेश्वर दत्त जैसे कांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए? परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एडियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।‘

इस लेख के प्रकाशित होने पर पूरे प्रशासन में हड़कंप मच गया और आजाद, के अलावा तत्कालीन  केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा और पंजाब के मंत्री भीमलाल सच्चर बटुकेश्वर से मिले। पंजाब सरकार ने तो एक हजार रुपए का चेक बिहार सरकार को भेजकर राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री केबी सहाय को यह भी लिखा कि यदि वे उनका इलाज कराने में सक्षम नहीं हैं तो वह उनका दिल्ली या चंडीगढ़ में इलाज का व्यय वहन करने को तैयार हैं।

बटुकेश्वर की हालत बिगड़ती चली गयी, क्योंकि उन्हें सही इलाज नहीं मिल पाया था और 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया। दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा, ‘मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहां मैने बम डाला था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाउंगा।‘ उन्हें पहले सफदरजंग अस्पताल और बाद में उच्च स्तर की सुविधा के लिए 11 दिसंबर को उन्हें एम्स में भर्ती किया गया।

लेकिन फिर पता चला कि दत्त बाबू को कैंसर है और उनकी जिंदगी के चंद दिन ही शेष बचे हैं। भीषण वेदना झेल रहे बटुकेश्वर दत्त के चेहरे पर एक शिकन नहीं थी। बटुकेश्वर ने प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता मनोज कुमार की बहुप्रतीक्षित फिल्म ‘शहीद’ के लिए पटकथा भी लिखी, जिसके लिए उन्हें मरणोपरांत राष्ट्रीय पुरुस्कार भी मिला।

उनकी अंतिम इच्छा पूछने पर बटुकेश्वर ने इतना ही कहा, ‘मेरा अंतिम संस्कार फ़िरोज़पुर के हुस्सैनीवाला में स्थित उसी समाधि पर किया जाये, जहां भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की अंत्येष्टि हुई थी।‘ अंतत: काफी समय तक क्षय रोग और कैंसर की दोहरी मार से जूझने के बाद 20 जुलाई 1965 को बटुकेश्वर दत्त ने अंतिम सांस ली। उनकी इच्छा अनुसार उनका अंतिम संस्कार फिरोजपुर के हुसैनीवाला बाग में ही कराया गया।

ये बड़ी ही विडम्बना की बात है कि जिस क्रांतिकारी ने भगत सिंह के साथ कदम से कदम मिलाकर देश की स्वतन्त्रता में अपना छोटा, परंतु अहम योगदान दिया था, उसे अंत समय में उचित सुविधाएं भी नहीं मिली। ऐसे न जाने कितने आजादी के मतवाले रहे होंगे, जिन्हें स्वतंत्र भारत के प्रशासन ने सम्मान करना तो दूर की बात, उन्हें पहचानने से भी मना कर दिया होगा।

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