आज जिस भारत में हम रहते हैं, प्राचीन काल का भारतवर्ष जिसे आर्यावर्त देशान्तरे भरतखंडे जम्बूद्वीपे कहकर संबोधित किया जाता था उससे काफी अलग और छोटा है. पाकिस्तान तो हमसे १९४७ में ही अलग हुआ परंतु अफ़ग़ानिस्तान के इलाके जिसे हम गंधार कह कर बुलाते और उससे भी पश्चिम के इलाके भी भरतखंड का हिस्सा थे. वहीं अगर पूर्व की बात करे तो बांग्लादेश, म्यांमार और सारे छोटे बड़े द्वीप समूह भरतखंड में ही आते थे।
भारत ने यह विशाल साम्राज्य शस्त्रों के बल पर नहीं, साम्राज्यवादी प्रतिनिधियों के भेस में आए मिशनरीज़ से नहीं वरन शास्त्रों और वेदों के प्रभावशाली दर्शन और भारतीयता के अद्भुत सोच से सींचा था। भारतवर्ष ऐसा साम्राज्य था जो मीलों दूर तक फैला था, जो ऊंचे ऊंचे पहाड़ों और सर्पाकार नदियों से घिरा हुआ था और ऐसे लोगों से परिपूर्ण था जो भांति भांति की भाषाओं में निपुण थे।
ये अलग अलग रीतियों से चलते थे परंतु इनकी संस्कृति एक थी। ऐसा लगता था मानो ज्ञान की देवी सरस्वती माँ ने स्वयं इस भारतीय परिवेश का सृजन किया हो, और आध्यात्मिक विकास एवं शांति की भावनाओं को प्रचारित किया हो।
देश के कई भागों में वसंत पंचमी का उत्सव देवी सरस्वती माँ को समर्पित है। उन्हें एक अतिसुन्दर स्त्री के रूप में दर्शाया गया है, जो चमकते हुयी श्वेत वस्त्रों से सुसज्जित हैं.. कमल पर विराजती हैं, और वीणा वादन में निपुण है। यह दृश्य अपने आप में उसी तरह की शांति का आभास कराता है जैसे कई पश्चिमी कलाकारों के अनुसार आर्केडिया को देखने पर लगता है।
यह स्त्रोत देवी सरस्वती माँ के वैभव का गुणगान भी करता है और उसी के साथ अज्ञानता को मिटाने के लिए उनकी शरण और उनके आशीर्वाद की मांग भी करता है –
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा पूजिता
सा मां पातु सरस्वति भगवती निःशेषजाड्यापहा
जैसे जैसे भारतीय सभ्यता की यश कीर्ति चारो और फैलने लगी, वैसे ही उनके आराध्य का भी प्रचार प्रसार होने लगा। भारतीय भूमि में पहले ही आराध्य बन चुकी सरस्वती देवी विदेशों में भी लोकप्रिय होने लगीं। उदाहरण के लिए म्यांमार में सरस्वती देवी को थुयथदी के तौर पर पूजा जाता है। प्राचीन विहारों और मंदिरों में आज भी उनके नाम के आह्वान के साक्ष्य मिलते हैं। ज्ञान की देवी होने के नाते उन्हें बौद्धिक शास्त्रों के संरक्षक का स्थान दिया गया है। आज भी वहां कई विद्यार्थी परीक्षा देने से पहले इनका आशीर्वाद अवश्य लेते हैं।
वहीं थाईलैंड में सरस्वती माँ को Suratsawadi के तौर पर पूजा जाता है, जो ब्रह्मदेव की धर्मपत्नी भी मानी जाती है और वक्तव्य एवं ज्ञान की देवी भी मानी जाती है। कंबोडिया में सरस्वती माँ का प्राचीन खमेर साहित्य में विस्तृत उल्लेख दिया गया है जिसमें कभी कभी वागेश्वरी के तौर पर तो कभी कभी भारती के रूप में विस्तृत उल्लेख दिया गया है। हिन्दू बाली में सरस्वती माँ का वही स्थान है जो भारत में लोगों ने उन्हें दिया है। स्थानीय बाली पंचांग के अनुसार सरस्वती दिवस उनके पंचांग का अंतिम दिन माना जाता है और इसीलिए इस दिन को स्थानीय हिन्दू जनमानस में बड़े ज़ोर शोर से मनाते हैं।
यही नहीं, चीन में बियान चाइत्यान देवी देवी सरस्वती का चीनी स्वरूप है। बौद्ध सूत्र में जिसे गोल्डेन लाइट सूत्र भी कहा जाता है, इसमें उनकी काफी प्रशंसा की गयी है। इस बौद्धिक सूत्र के अनुसार चार दिव्य राजा उनकी रक्षा करते हैं, चीन के पड़ोस जापान में चीन की देवी बियान चाइत्यान बन गयी जापान की देवी बेंजाइतेन।
जापान में देवी बेंजाइतेन में देवी सरस्वती माँ के गुण देखने को मिलते हैं और इसीलिए उन्हें बौद्धिक और शिन्टो विद्यालयों में पूजा जाता है। देवी सरस्वती माँ के समान देवी बेंजाइतेन को बैठे हुये जापानी ल्यूट यानि बीवा नामक वाद्ययंत्र बजाते हुये, ठीक उसी तरह दिखाया गया है जैसे देवी सरस्वती माँ वीणा का वादन करती है।
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देवी बेंजाइतेन का उन सभी चीजों से संबंध है जो अविरल बहती रहती है, चाहे वो जल हो, या वक्तव्य, या फिर वाग्मिता हो या फिर बुद्धिमता ही क्यों न हो। जैसे देवी सरस्वती माँ ने तीन सिरों वाले सर्प वृत्र का वध किया था, वैसे ही देवी बेंजाइटेन को भी ड्रैगन और साँपों से जोड़ा जाता है। पूरे जापान भर में देवी बेंजाइतेन को समर्पित कई मंदिर, जो अधिकतर जल स्त्रोतों के पास स्थित होते हैं। इनमें से तीन मंदिर Chiku bushima, Itsu kushima, और Eno shima नामक द्वीप पर स्थित हैं, जिन्हें Nihon Sandai Benten या तीन महान Benten मंदिरों के नाम से भी जाना जाता है।
भारत और उसके पड़ोस में जो अभी समानताएं दिखाई दे रही हैं वो उससे कहीं ज़्यादा है। जो एक ही संस्कृति के आधार पर बनी है, यहां रहने वाले लोगों के दर्शन और दृष्टिकोण में समानता है, ये समानता पूरी दुनिया को शांति और ज्ञान के लिए एक अद्भुत रास्ता दिखा सकती है ..जिसका प्रतीक हैं देवी सरस्वती माँ की साझी विरासत, जो भारत के साथ साथ पूर्वी एशिया के अधिकतर देशों में भी विद्यमान है।
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