क्या नेहरू के लिए आज़ाद जैसे क्रांतिकारी को स्वीकारना इतना कठिन था?

नोट: ये लेख चंद्रशेखर आजाद के जन्मदिन पर प्रकाशित हुआ था।

आज चन्द्रशेखर आजाद का जन्म दिवस है और साथ ही एक और क्रांतिकारी बाल गंगाधर तिलक का भी। सोशल मीडिया पूरी तरह से इन दोनों के चित्रों और जन्म दिन के लिए बधाइयों से भरा पड़ा है। मैं भी अपने ट्विटर अकाउंट पर इन सभी संदेशों को देख रहा था तभी मेरे मन में एक ख्याल आया कि आखिर हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मन में इन क्रांतिकारियों के लिए क्या विचार थे। मैंने तुरंत गूगल बाबा की मदद ली और नेहरू की ऑटोबायोग्राफी को खोज निकाला और पढ़ना शुरू किया। वैसे तो ऑटोबायोग्राफी में लेखक द्वारा चालाकी से काफी तथ्यों को अपने अनुसार लिखा जाता है लेकिन फिर भी मैंने यह कोशिश की कि कहीं तो सच मिले, शब्दों में या वाक्यों के मध्य। और जब बात जवाहर लाल नेहरू की हो तो तथ्यों को अपने अनुसार लिखना और लिखवाना उनके लिए बहुत ही आसान था। यह हम सभी तत्कालीन इतिहासकारों को पढ़ कर जान सकते है। 

खैर वापस आते है नेहरू द्वारा लिखित ऑटोबायोग्राफी पर, कि उनके विचार तत्कालीन क्रांतिकारियों के लिए क्या और कैसे थे। और हम यह पाते है कि 261वें पन्ने में उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद से अपनी पहली मुलाक़ात का जिक्र किया है। उस घटना के पहले ही वाक्य में उन्होंने लिखा है, मुझे उस वक्त की एक घटना याद आती है जिससे मुझे भारत के आतंकी संगठन के बारे में जानने का और समझने का मौका मिला।“  

यह वाक्य अपने आप में एक अभिजात्य परिवार के वंश और अभिजात्य विचार रखने वाले एक नेता की विचारधारा को प्रस्तुत करता है। कैसे एक नेता अपने आप को इतना ज्यादा महत्व देते हुए एक देशभक्त, जो 15 वर्ष की उम्र से अपनी मिट्टी, अपनी भारत माता के लिए साम्राज्यवादी अंग्रेजों से अपने सामर्थ्य के अनुसार लड़ने की कोशिश कर रहा है, उसे तुच्छ प्रस्तुत कर रहा है। 

इसी घटना का वर्णन करते हुए जवाहर लाल नेहरू आगे लिखते हैं,मैंने इस लड़के के बारे में सुना था जब वह स्कूल से ही असहयोग आंदोलन में भाग लेने की वजह से जेल गया था। उसपर जेल के नियम तोड़ने की वजह से कोड़े भी बरसाए गए थे। बाद में वह आतंकी संगठन में शामिल हो गया और उत्तर भारत के प्रमुख आतंकियों में गिना जाने लगा।

जवाहर लाल नेहरू ने इन वाक्यों में चन्द्रशेखर आज़ाद के प्रति अपनी सोच का उल्लेख कर दिया तथा गरम दल द्वारा किए गए सभी कार्यों पर पानी फेरते हुए उन्हें आतंकी संगठन घोषित कर दिया। आगे वह लिखते हैं,”चन्द्रशेखर और उनके साथियों को यह लगने लगा था कि उनके उग्र तरीके व्यर्थ हैं।“ । इस वाक्य के माध्यम से हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री ने कितनी आसानी से क्रांतिकारियों के तरीकों को ‘आतंकी’ बताते हुए अपने तरीके को सत्यापित कर दिया। नेहरू के इस कथन में जरा भी सच्चाई होती तो चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रातिकारियों के विचार आजादी और उसके बाद तक जीवित नहीं रहते हालांकि नेहरू के इन वाक्यों से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अपनी राजनीति और तरीकों को ही श्रेष्ठ बताने की सभी कोशिश की है। 

अगर उस समय के परिपेक्ष में देखा जाए तो भारतीय इतिहास में दोनों ही गरम दल व नरम दल का स्थान महत्वपूर्ण था लेकिन इतिहास के लेखकों ने सारा श्रेय नेहरू-गांधी और नरम दल को ही दिया है। और खुद नेहरू भी यही कोशिश करते रहे। आजादी की लड़ाई लड़ने वाले कई ऐसे महान क्रांतिकारी रहे होंगे, जिनका इतिहास में हमें वर्णन नहीं मिलता। उदाहरण के तौर पर 18 फरवरी 1946 को मुम्बई में रायल इण्डियन नेवी के सैनिकों द्वारा खुला विद्रोह किया गया था जिसे ‘बॉम्बे म्युटिनी’ के नाम से भी जाना जाता है। यह विद्रोह जलयान में और समुद्र के बाहर स्थित जलसेना के कई ठिकानों पर भी हुआ था।

कुल मिलाकर 78 जलयानों, 20 स्थलीय ठिकानों पर यह विद्रोह हुआ और 20,000 नाविकों ने इसमें भाग लिया था। जब सेना के गोरखा बटालियन को इन विद्रोहियों पर गोली चलाने का आदेश दिया गया तब बटालियन के सभी सैनिकों ने ऐसा करने से मना कर दिया था। यह विद्रोह आग की तरह कराची, चेन्नई ,विशाखापट्नम तक फैल गया था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आज़ाद हिन्द फौज द्वारा पूर्वी राज्यों में ब्रिटिश राज के खिलाफ धावा बोलने के बाद हुए ‘बॉम्बे म्युटिनी’ जैसे बड़े विद्रोह से अग्रेज़ी शासन के पाँव उखड़ गए थे क्योंकि ब्रिटिश सेना में अधिकतर जवान भारतीय ही थे, और इन सभी विद्रोहियों को देख कर सभी सैनिक विद्रोह करने के लिए प्रेरित हो सकते थे। इससे ब्रिटिश अधिकारी इतने डर गए थे कि भारत छोड़ने का मन बना लिया था। लेकिन हैरान करने वाली है, इतने बड़े विद्रोह को महात्मा गांधी और कांग्रेस ने कोई समर्थन नहीं दिया, और जिन्ना की मुस्लिम लीग से भी किसी को कोई उम्मीद नहीं थी। 

समर्थन तो दूर की बात, इन देशभक्तों को इतिहास से भी हटाने की कोशिश की गयी। नेहरू-गांधी की इस तरह से क्रातिकारियों के भारत हित में किए गए कार्यों को दबाने की कोशिश अंदर तक झकझोर कर रख देती है। आखिर किस प्रकार के नेता थे जो सारा श्रेय खुद को ही देना चाहते थे। चाहे वह खुद लिख रहे हो या अपने वफ़ादारों से लिखवा रहे हो, एक ही मकसद होता था की उनका ही गुणगान किया जाए।

हालांकि पिछले कुछ वर्षों में क्रातिकारियों को सम्मान दिया गया है। और अनुज धर, चंद्रचूर घोष और संजीव सनयाल जैसे लेखकों ने इतिहास में दबाये गए क्रांतिकारियों की वीर गाथा को जनता के बीच लाने का काम किया है, और नेहरूवियन सोच को जनता के सामने लाकर रख दिया है। अब इन सभी बलिदानियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा है। 

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