लोकतन्त्र में चुनावों का महत्वपूर्ण स्थान होता है, और चुनाव जीतने में वित्तीय संसाधनों की सबसे बड़ी भूमिका होती है। भारत में अमेरिका जैसे देशों के मुक़ाबले चुनावों में बेहद कम पैसा खर्च होता है लेकिन फिर भी देश में बड़ी मात्रा में पैसा खर्च किया जाता है। किस पार्टी को कितनी डोनेशन मिलेगी, यह इस बात पर निर्भर होता है कि चुनाव जीतने के बाद पार्टी का एजेंडा क्या होगा, और उस पार्टी की चुनाव जीतने की क्या संभावना है। यही सबसे बड़ा कारण है कि सत्ताधारी पार्टी को विपक्ष के मुक़ाबले ज़्यादा फंडिंग मिलती है।
इसके अलावा राजनीतिक दलों को फंड मिलने में उनकी विचारधारा का भी अपना ही महत्व होता है। पूंजीवादी विचारधारा का अनुसरण करने वाली पार्टियों को कॉरपोरेट्स से ज़्यादा चंदा मिलने का अनुमान होता है। इसलिए जिस पार्टी को ज्यादा चंदा मिलता है, उस पार्टी द्वारा जीत हासिल करने के अनुमान भी बढ़ जाते हैं।
वर्ष 2019 में कांग्रेस की जबरदस्त हार के बाद पार्टी को मिलने वाले चंदे में भारी कमी दर्ज़ की गई, क्योंकि कॉरपोरेट्स ने पार्टी को डोनेशन देनी बंद कर दी। इसके बाद पार्टी को पैसे की भारी किल्लत से जूझना पड़ा और पार्टी के प्रबंधन को अपने कार्यकर्ताओं और शाखाओं को खर्च में कटौती करने के निर्देश देने पड़े। इसके अलावा पार्टी द्वारा कई पेशेवर लोगों और कर्मचारियों को पहले ही निकाला जा चुका है, और कई मौजूदा कर्मचारियों को कई महीनों से वेतन नहीं मिला है।
अब चूंकि कांग्रेस ने कर्नाटक की सत्ता भी गंवा दी है, इसके बाद पार्टी को कॉरपोरेट्स से मिलने वाले फंड में और कमी देखने को मिल सकती है। कांग्रेस शासित प्रदेशों में कर्नाटक की जीडीपी सबसे ज़्यादा थी, और इसलिए पार्टी को मिलने वाले फंड की दृष्टि से यह राज्य कांग्रेस के लिए बहुत जरूरी था। अभी कर्नाटक की जीडीपी 15 लाख 42 हज़ार करोड़ रुपये है। राज्य की राजधानी बंगलुरु देशभर के बड़े-बड़े कॉरपोरेट्स का केंद्र है। इसलिए कर्नाटक की सत्ता पार्टी के वित्तीय संसाधनों की पूर्ति के लिए अत्यंत आवश्यक थी।
ये कर्नाटक ही था जिसकी वजह से कांग्रेस मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए वित्तीय संसाधनों को जुटाने में सफल हो पाई थी। अब कर्नाटक की सत्ता हाथ से जाने के बाद पार्टी के सामने गंभीर वित्तीय संकट खड़ा हो सकता है। अब पैसे की कमी से जूझ रही कांग्रेस पार्टी को अपने खर्चों में और ज़्यादा कमी करनी होगी। पार्टी पहले ही NSUI और महिला विंग को खर्चों में कटौती करने के उपाय खोजने के निर्देश दे चुकी है। इसके अलावा कांग्रेस ने ‘कांग्रेस सेवा दल’ के बजट में भी कमी की है। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ‘अभी पार्टी विचार कर रही है कि उसे अब इंटेलिजेंस विंग की ज़रूरत है या नहीं। इसके अलावा पार्टी के कार्यालय में काम कर रहे कई कर्मचरियों को अभी तक वेतन नहीं मिला है’।
बता दें कि मोदी सरकार ने जब से इलेक्टोरल बॉन्ड सिस्टम को लागू किया है, तब से कांग्रेस को फंड जुटाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। इलेक्टोरल बॉन्ड सिस्टम को राजनीतिक पार्टियों के फंडिंग सिस्टम को पारदर्शी बनाने के लिए लागू किया गया था। नए सिस्टम के लॉंच होते ही कांग्रेस पार्टी को फंड की भारी कमी पेश आना इस बात की ओर इशारा करता है कि पार्टी को ज़्यादातर पैसा गैर-कानूनी जरियों के माध्यम से ही दिया जा रहा था।
जैसा हमने बताया कि जिस पार्टी द्वारा जीत हासिल करने की उम्मीद ज़्यादा होती है, उसी पार्टी को ज़्यादा फंडिंग मिलती है। इसलिए कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को कम फंडिंग मिलने का मतलब है कि आने वाले हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों में भी इन पार्टियों द्वारा जीत हासिल करने की उम्मीद बेहद कम है। दूसरी तरह भाजपा को कुल राजनीतिक डोनेशन का अकेले 2 तिहाई डोनेशन मिला है जिसका संकेत है कि पार्टी की जीत की संभावना ज़्यादा है।
अभी कांग्रेस पार्टी में एक मजबूत नेतृत्व की कमी है। इसलिए अभी कोई भी उद्योगपति कांग्रेस पार्टी को फंड नहीं करना चाहता क्योंकि नेतृत्व की कमी होने की वजह से पार्टी किसी भी मजबूत नीति को बनाने में अक्षम है। उद्योगपतियों के मन में कांग्रेस के लिए घटते विश्वास का सबसे बड़ा फायदा भाजपा को पहुंचा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो निकट भविष्य में देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के सामने अस्तित्व का खतरा मंडरा सकता है और इससे बचने के लिए कांग्रेस को जल्द से जल्द निर्णायक कदम उठाने की आवश्यकता है।