ललितादित्य मुक्तपीड – जिन्होंने तुर्की और अरबी आक्रांताओं को उनके राज्य में घुसकर मारा!

भारत में इस्लाम का आगमन हुआ 712 AD में, जब अविभाजित भारतवर्ष के तत्कालीन मुल्तान पर मुहम्मद बिन क़ासिम ने आक्रमण किया था। इसके पश्चात हमें अवगत कराया गया है की कैसे 1020-1025 तक गज़नवी के सुल्तान महमूद के निरंतर आक्रमणों से भारत की अजेय छवि को गहरा आघात पहुंचा था। परंतु किसी ने इस बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया कि महमूद जैसे विदेशी आक्रांता को भारत में अपने पैर रखने में 300 से अधिक वर्ष क्यों लग गए?

ऐसा क्या कारण था की मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के बावजूद भारत 300 से ज़्यादा वर्षों तक विदेशी आक्रमणों से पूर्णतया मुक्त रहा था? क्या इसका कारण केवल अरब क्षेत्र में उमय्यिद खलीफा का पतन था? या हमारे भारतवर्ष में कोई योद्धा ऐसा भी था, जिन्होंने न केवल इन आक्रांताओं को धूल चटाई, अपितु इनके मस्तिष्क में भय का ऐसा संचार किया की वे भारत भूमि की ओर देखने का कई शताब्दियों का दुस्साहस नहीं कर पाये?

वो वीर योद्धा जिनके कारण भारतभूमि विदेशी आक्रांताओं के अत्याचार से तीन शताब्दियों से भी अधिक समय तक मुक्त रही थी। ये कथा है उस सम्राट के शौर्य की, जिसकी कीर्ति केवल अखंड भारत में ही नहीं, अपितु मध्य एशिया तक गूँजती थी। ये कथा है कश्मीर के कार्कोटा वंश के महान सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ की, जिन्होंने न सिर्फ भारतवर्ष को विदेशी आक्रमणों से मुक्त रखा, अपितु अरबी एवं तुर्की आक्रांताओं को उनके साम्राज्य में घुस के पछाड़ा।

ललितादित्य के बारे में प्रसिद्ध कवि कल्हण की पुस्तक राजतरंगिणी में वर्णन किया गया है, इसके अलावा ‘फतेहनामा सिंध’, एवं अल बेरुनी की ‘तारीख ए हिन्द’ में भी वीर ललितदित्य के अदम्य शौर्य का उल्लेख किया गया है। ललितादित्य की ख्याति चीन तक व्याप्त थी, क्योंकि चीन के टेंग वंश का उल्लेख करती पुस्तक ‘जिंग टेंग शु’ में भी इनका उल्लेख किया गया है।

ललितादित्य की कथा प्रारम्भ होती है कार्कोट राजवंश की स्थापना से, जिसके संस्थापक इनके पिता दुर्लभवर्धन थे। इनके पिता गोन्दडिया वंश के अंतिम शासक बालादित्य के यहाँ एक अधिकारी थे। इनकी कर्तव्यनिष्ठ सेवा से प्रसन्न होकर बालादित्य ने अपनी पुत्री अनंगलेखा का विवाह इनके साथ किया।

राजशाही से कोई संबंध न रखने के बावजूद दुर्लभवर्धन को अपने दामाद के तौर पर स्वीकारने में बालादित्य को कोई आपत्ति नहीं हुई। इन्ही दुर्लभवर्धन के वंशजों में से एक प्रतापादित्य तथा उनकी धर्मपत्नी नरेंद्रप्रभा के कनिष्ठ सुपुत्र थे ललितादित्य, जिन्हें मुक्तपीड़ के नाम से भी जाना जाता था। इनके दो ज्येष्ठ भ्राता भी थे, जिनका नाम था चंद्रपीड़ अथवा वज्रादित्य एवं तारापीड़ अथवा उदयादित्य, जो ललितादित्य से पहले कश्मीर प्रांत के शासक हुआ करते थे।

प्रारम्भ से ही ललितादित्य साहस एवं पराक्रम की प्रतिमूर्ति थे। उनका केवल एक ध्येय था : अपने राज्य का विश्व भर में विस्तार करना। वर्षों के अथक परिश्रम और अनुशासित प्रशिक्षण से ललितादित्य इतने पराक्रमी हो गए कि ये महीनों और वर्षों तक किसी भी युद्ध में बिना थके व्यस्त रह सकते थे। यह अरबी आक्रमणकारियों के स्वभाव से अनभिज्ञ नहीं थे, और उन्हे अच्छी तरह से ज्ञात था कि यदि उन्होंने अपनी आत्मरक्षा में एक सशक्त सेना नहीं बनाई, तो शत्रुओं को उनके भारतभूमि को क्षत-विक्षत करने में तनिक भी समय नहीं लगेगा।

उन्होंने कम्बोज, तुखारस (तुर्कमेनिस्तान में तुर्क और बदख्शां में तोचरान), भूटा (बाल्टिस्तान और तिब्बत में तिब्बत) और दारदास (डारस) के आक्रांताओं को सीधी युद्ध में परास्त किया था।

प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चन्द्र मजूमदार की ऐतिहासिक पुस्तक ‘प्राचीन भारत’ [Ancient India] के अनुसार ललितादित्य के समक्ष सर्वप्रथम चुनौती आई यशोवर्मन से, जो पुष्यभूति वंश के प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन के उत्तराधिकारी माने जाते थे। ललितादित्य ने यशोवर्मन के राज्य अंतर्वेदी पर आक्रमण किया, और एक भीषण युद्ध के पश्चात यशोवर्मन को शांतिवार्ता के लिए विवश भी किया। इसी अंतर्वेदी राज्य की राजधानी कान्यकुब्ज हुआ करती थी, जिसे आज हम कन्नौज के नाम से भी जानते हैं।

ललितादित्य यशोवर्मन को परास्त करने के पश्चात विंध्याचल की तरफ निकल पड़े, जहां उन्हें कर्णात वंश की महारानी रत्ता मिली। रत्ता की समस्या को समझते हुये कर्णात वंश की ललितादित्य ने न केवल विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा की, अपितु उनके समक्ष मित्रता का हाथ भी बढ़ाया। कई लोगों के अनुसार रत्ता कोई और नहीं वरन राष्ट्रकूट वंश की रानी भवांगना ही थी। कई लोक कथाओं के अनुसार मेवाड़ के वीर योद्धा बप्पा रावल ललितादित्य के परम-मित्र हुआ करते थे और दोनों ने साथ मिलकर दोनों ने कई विदेशी आक्रांताओं को धूल भी चटाई थी।

विंध्याचल की रक्षा करने के उपरांत पश्चात ललितादित्य ने अपना ध्यान उत्तर की ओर केन्द्रित किया। ललितादित्य ने लद्दाख और कुछ पश्चिमी प्रांत, जो तब तिब्बतियों के अधीन थे उन पर भी आक्रमण कर तिब्बतियों को पूरी तरह से अपने अधीन कर लिया था। यही वो समय था जब मुहम्मद बिन कासिम ने मुल्तान पर आक्रमण किया था, अरब आक्रांताओं का एकमात्र ध्येय भारत राज्य को इस्लाम के अधीन करना था।

अल-बरूनी अपनी किताब में लिखते हैं कि बुखारा के संचालक मोमिन को कश्मीरी राजा मुथाई ने हराया था। मुथाई की पहचान मुक्तपीड़ के रूप में की जाती है, जो ललितादित्य का ही दूसरा नाम था। संभवतः पामीर क्षेत्र पर उनका अभियान विजयी रहा था। यहाँ विजयोपरांत वे बाद अगले गंतव्य के लिए कूच कर गए। और इस बार आक्रमण सीधा अरबों के मर्मस्थान पर था।

अरबों पर विजय उतनी सरल नहीं थी। ललितादित्य ने वीरता के साथ साथ कूटनीति का भी प्रयोग किया। उन्होंने चीन के तांग राजवंश से संपर्क किया था जो 7 वीं शताब्दी के दौरान सत्ता के शीर्ष पर था। ललितादित्य अरबों और तिब्बतियों के खिलाफ लड़ाई में उन्हें अपनी ओर करने में कामयाब रहे। दोनों ने मिल कर तिब्बतियों को हराया साथ ही तत्कालीन बांग्लादेश और अन्य पूर्वी क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया था।

उन्होंने तुर्केस्तानंद ट्रान्सोक्सियाना पर भी विजय प्राप्त की, जो मध्य एशिया यानि आधुनिक उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, दक्षिणी किर्गिस्तान और दक्षिण-पश्चिम कजाकिस्तान था। इसके बाद ललितादित्य ने काबुल के रास्ते तुर्केस्तान पर आक्रमण किया। चार भीषण युद्ध हुए और चारों ही युद्धों में ललितादित्य का विजयश्री ने वरन किया। मोमिन बुखारा परास्त हुआ। मोमिन को परास्त कर ललितादित्य ने अपने राज्य की सीमाएं कैस्पियन सागर तक विस्तृत कर दी जो कालांतर में काराकोरम पर्वत श्रृंखला के सूदूरवर्ती कोने तक जा पहुँचा। अरबों के प्रति उनका रोष ऐसा था कि उन्हे परास्त करने के बाद वह उनके आधे सिर मुंडवाने देते थे।

उत्तर में तिब्बत से लेकर दक्षिण में द्वारका पूर्व में उड़ीसा के सागर तट तक, बंगाल इत्यादि, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक ललितादित्य ने कश्मीर राज्य का विस्तार कर लिया था। उन्होंने प्रकरसेन नगर को राजधानी बनाई थी। ललितादित्य की सेना की पर्शिया तक पहुँच चुकी थी, जो आज ईरान के नाम से जानी जाती है।

परंतु ललितादित्य केवल दिग्विजयी ही नहीं थे बल्कि वे कुशल योद्धा के साथ साथ एक भव्य निर्माण कर्ता भी थे। उनके सबसे भव्य निर्माणों में से एक था मार्तंड सूर्य मंदिर, जिसे आगे चल कर क्रूर आक्रांता और शाह मिरी वंश के सुल्तान सिकंदर बुतशिकन ने क्षत विक्षत कर दिया। अपने खंडित स्थिति में भी भव्यता परिपूर्ण यह मार्तंड सूर्य मंदिर के बारे में सोचकर हम चकित होते हैं की वास्तव में ये मंदिर कितना भव्य रही होगी। फिल्म हैदर का गीत ‘बिस्मिल बिस्मिल’ अगर आपने देखा है तो आपने कश्मीर के मार्तंड सूर्य मंदिर के खंडहर को अवश्य देखा होगा।

ये हमारा दुर्भाग्य है कि जिस योद्धा ने भारतभूमि को विदेशी आक्रांताओं के आक्रमणों से मुक्त रखा, जिस योद्धा ने कश्मीर और भारत के गौरव को विश्व भर में प्रचारित किया, उसके बारे में हम आज भी अनभिज्ञ हैं। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि हमें आज भी हेर्मन गोएट्ज जैसे विदेशी इतिहासकारों से अपने इतिहास की पुष्टि करानी पड़ती है, जिन्होंने कल्हण की राजतरंगिनी के लोकरीतियों की पुष्टि भी की थी।

ये कथा थी शौर्य और साहस की, सम्मान और संस्कार की, रण-कौशल और कूटनीति की और कथा वीर ललितादित्य मुक्तपीड की । ऐसी ही और कथाएँ लेकर मैं आता रहूँगा अंटोल्ड हिस्ट्री के आगे के संस्करणों के साथ।

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