हाल ही में लेफ्ट लिबरल के जाने-माने चेहरे और मोदी विरोधी भानु प्रताप मेहता ने सोनीपत स्थित अशोका यूनिवर्सिटी के कुलपति पद से त्याग पत्र दे दिया है। भानु प्रताप मेहता ने त्यागपत्र में उन्होंने लिखा “आज विश्व की राजनीतिक स्थिति ने पहले से स्थापित सभी मान्यताओं को जड़ तक झकझोर कर रख दिया है। मुझे लगता है कि मुझे खुद को फिर से सैद्धांतिक पुनरावलोकन करने की आवश्यकता है। इसलिए मैंने यह फैसला लिया है।“
बता दें कि आम चुनाव के परिणाम आने से पहले भानु प्रताप मेहता ने कहा था कि “पिछले पांच वर्ष में मोदी सरकार ने भारत की आत्मा के साथ खिलवाड़ किया है। और यह सरकार उन सभी मुद्दों के पक्ष में दिखी जो भारतीय नहीं है। और इस सरकार ने हर वो कदम उठाए जो लोकतंत्र के खिलाफ है।
हालांकि, अब यही भानु प्रताप मेहता उसी लेफ्ट लिबरल की लाइन में खड़े हो गए हैं जिन्हें अब यह लगता है कि अब दक्षिण पंथ के उत्थान से उनकी प्रासंगिकता समाप्त हो गयी है। मीडिया, शिक्षा जगत और सिनेमा की जानी-मानी सभी हस्तियों और इस वर्ग से जुड़े बुद्धिजीवी यह मानने लगे हैं कि अब उनके आदर्श समकालीन विश्व के लिए उपयुक्त नहीं है। जिस तरह से विश्व के अधिकतर देशों जैसे भारत,अमेरिका और आस्ट्रेलिया में दक्षिण पंथ यानी राइट विंग की पार्टी सत्ता में आई और इनकी लोकप्रियता समय के साथ बढ़ने लगी है उसे देख कर अब इन सभी कथित बुद्धिजीवी वर्ग को अपने आदर्श असंगत लगने लगे हैं। इन सभी को अब सच्चाई का सामना करना पड़ रहा है।
आज के समय में ज्यादातर युवाओं को भानु प्रताप जैसे लेफ्ट लिबरल्स के दोगलेपन का एहसास हो चुका है जिन्होंने हमारे समाज और शिक्षा जगत में दशकों से बड़े पदों पर आसीन रहते हुए केवल अपने हितों को ही पूरा किया है और अपने गलत कामों पर हमेशा पर्दा डालने का काम करते रहे हैं।
भारत में नरेंद्र मोदी और अमेरिका में ट्रम्प की चुनावी जीत ने इन सभी कथित बुद्धिजीवी वर्ग को आत्म निरीक्षण का एक मौका दिया। और इसी आत्म निरीक्षण में इन सभी को अपनी अप्रासंगिकता का ज्ञान हुआ और अब इन्हें लग रहा है कि इन्हें नए सिरे सोचने की जरूरत है।
भानु प्रताप पहले व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने अपने मन की बात को confess किया हो। उनसे पहले लेफ्ट लिबरल्स की एक समय की पोस्टर गर्ल रहीं सागरिका घोष भी ऐसा कर चुकी हैं। चुनाव परिणाम के पांच दिन के बाद 28 मई को टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख उन्होंने लिखा,”आज लिबरल्स कई मामलों में दोषी हैं, उनपर असहिष्णु निर्णयवाद, सरकार से अत्यधिक राज्य संरक्षण की मांग और एक परिवार द्वारा किये गये घोटालों को अनदेखा करने जैसे आरोप लगे। इसके लिए खुद लिबरल्स ही जिम्मेदार भी हैं।“ उन्होंने आगे लिखा,” लिबरल्स को विरोधी विचार भी सुनने चाहिए और अपने इस वर्ग के विशेषाधिकार का विरोध कर हमें कड़े कदम उठाने होंगे। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सिस्ट) जैसी राजनीति करने से हमें नुकसान ही होगा और इससे केंद्र की सत्ता और मजबूत होती जाएगी।“
इसके बाद अब विवादित पत्रकार तथा लुटियन्स के चहेते करण थापर का कॉन्फेशन सामने आया था। ये वही पत्रकार हैं जिनका परिवार गांधी परिवार के प्रति अपनी वफादारी के लिए जाना जाता है। यहाँ तक कि स्कूल में करण और संजय गांधी दोस्त भी रह चुके हैं। पिछले महिने 3 जून को प्रकाशित हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख में करण ने लिखा,”एक नयी आवाज़, एक नया दृष्टिकोण और भारतीयता की एक नई परिभाषा सामने आई है, और मोदी सिर्फ उसकी अभिव्यक्ति नहीं है, अपितु उसका मानवीयकरण भी है। इन सभी के बीच पर्टी (काल्पनिक चरित्र), मैं और मेरे जैसे सभी लोग अब खुद को निष्काषित अल्पसंख्यक सा महसूस कर रहे है।“ उन्होंने आगे लिखा,” करण और पर्टी जैसे लोग इसलिए परेशान हैं क्योंकि एक नए भारत का सृजन हुआ है और वे इसमें भागीदार नहीं हैं। इन सभी ने इतिहास के गलत पक्ष को चुन लिया है।“ वह आगे लिखते है,” यह एक स्वीकारोक्ति है क्योंकि जिन लोगों ने दशकों तक सत्ता को संस्थागत बना दिया था, तथा एक परिवार पर केन्द्रित कर दिया था अब वे इसका हिस्सा नहीं हैं। मैं अभी भी इस विचार के कैद में हूं कि नरेंद्र मोदी ने मेरे जैसे लोगों को अप्रासंगिक बना दिया है।”
बॉलीवुड में कपूर वंश के चिराग रणबीर कपूर ने भी सिने जगत के लिबरल्स पर हमला करते हुए कहा था कि उनके जैसे फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को भले ही मोदी जी का काम नहीं दिखता लेकिन आम जनता को उनका काम दिखता है।
इन सभी उदाहरण से यह सिद्ध होता है कि दशकों तक सत्ता को मीडिया, शिक्षा जगत और सिनेमा के बदौलत अपनी उँगलियों पर नचाने वाले लेफ्ट लिबरल्स अब यह स्वीकार कर रहे हैं कि अब पारिवारिक भ्रष्टाचार और सत्ता से मिले विशेषाधिकार के दिन पूरे हो चुके है। और इस कथित बुद्धिजीवी वर्ग के खोखले सिद्धांतों का युवाओं में अब कोई महत्व नहीं रह गया है। भानु प्रताप और करण थापर जैसे लोगों की पुनरावलोकन की स्वीकार्यता लेफ्ट लिबरल्स की आत्मविश्लेषण के लिए एक बड़ा कदम माना जाएगा। सिनेमा और मीडिया को तो पहले ही इस बात का अनुभव हो चुका था और भानु प्रताप के त्यागपत्र के साथ अब यह शिक्षा जगत के कथित बुद्धिजीवियों के अंदर भी यह सामने आ गया था। ऐसे में भानु प्रताप मेहता के इस कदम के बाद इस क्षेत्र के सभी बुद्धिजीवीयों को नए सिरे से सोचने की जरूरत है।