दो महीनों तक कांग्रेस अध्यक्ष ढूंढने के तमाशे का शनिवार की रात को ‘द एंड’ हो गया। कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की बैठक में एक बार फिर से सोनिया गांधी को अध्यक्ष चुन लिया गया है। आजादी के बाद पार्टी का नेतृत्व करने वाले कुल 18 नेताओं में से 14 नेहरू-गांधी परिवार से नहीं थे। लेकिन फिर भी अगर पीवी नरसिम्हा राव के बीच के पाँच साल और सीताराम केसरी के दो साल छोड़ दें तो 1978 से लेकर अब तक यानी 34 साल से गांधी परिवार के पास ही कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी रही है। गांधी परिवार के बाहर का कोई व्यक्ति अध्यक्ष बने, अब यह आने वाले कई दशकों तक असंभव ही दिखाई दे रहा है। यानी 100 साल से ज्यादा पुरानी पार्टी में TINA (There is No Alternative ) प्रभाव दिखने लगा। लेकिन कांग्रेस का यह फैसला अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारने जैसा है। देश में वर्ष 2014 से ही वंशवाद की राजनीति के खिलाफ जनता में आक्रोश है फिर भी इस बात को जानते हुए कांग्रेस ने कोई सबक नहीं लिया और फिर से गांधी परिवार को कमान सौंप दिया। जनता की मूड को देखते हुए आज यह कहा जा सकता है यह फैसला कांग्रेस की ताबूत में आखिरी कील साबित होगी।
दरअसल, लोकसभा का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी पर पूरे देश के कार्यकर्ताओं ने दबाव बना शुरू कर दिया था जिसके बाद उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और तब से यह पद खाली था। इस बीच कांग्रेस कभी भी एक जुट नहीं दिखी और कई मौकों पर कांग्रेस से विरोधी आवाजें उठने लगी थीं। ऐसे में शनिवार को कांग्रेस पार्टी की वर्किंग कमेटी की 2 बैठकों के बाद यह फैसला लिया गया कि फिर से कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी को सौंपा जाएगा यानी उन्हें अन्तरिम अध्यक्ष बना दिया गया है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने यह फैसला भले ही कांग्रेस की वजूद को बचाने और पार्टी को फिर से पटरी पर लाने के लिया किया हो लेकिन यही फैसला कमजोर हो चुकी कांग्रेस को पतन की ओर ले जाएगी।
आज के दौर में राष्ट्रीयता, देश हित, स्वर्णिम इतिहास पर गर्व और उसके पुनरुत्थान के लिए जनता आगे आ रही है, इसके साथ ही वंशवाद, भ्रष्टाचार और तुष्टीकरण का दौर समाप्त हो रहा है। ऐसे में कांग्रेस का फिर से सोनिया गांधी को कांग्रेस की गद्दी पर बैठाना बेहद घातक साबित हो सकता है। आम जनता ने वर्ष 2014 में ही वंशवाद की राजनीति को नकार दिया था। मौजूदा दौर में जनता सामान्य कार्यकर्ता के पद से उठे व्यक्ति को ज्यादा महत्व दे रही है और उसी को अपना नेता चुन रही है। कांग्रेस के इस कदम का खामियाजा आने वाले महीनों में यानी महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में देखने को मिल सकता है। कांग्रेस की इस तरह से गांधी परिवार पर निर्भरता और किसी नए चेहरे को न तलाश कर 17 वर्षों तक अध्यक्ष पद पर रही सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाए जाने से रहा-सहा वोट बैंक भी साथ छोड़ने के लिए मजबूर हो जाएंगे।
कांग्रेस का भविष्य शीशे की तरह साफ है। उत्तर भारत के बाद धीरे-धीरे दक्षिण भारत में भी उसका सफाया होता जा रहा है। पंजाब की सभी सीटें विशेष रूप से अमरिंदर सिंह ने अपने राष्ट्रवादी छवि के कारण जीते हैं। अगर कल वे पार्टी छोड़ दें, या अपना निजी दल बना लें, तो वहां कांग्रेस को कोई पानी देने वाला भी नहीं बचेगा। झारखंड पीसीसी प्रमुख इस्तीफा दे चुके हैं तो हरियाणा में हुड्डा पिता-पुत्र नाराज़ चल रहे हैं। कांग्रेस में विरोधी स्वर अब तेज़ होने लगे हैं। यह इस बार अनुच्छेद 370 पर देखने को मिला, जब कई नेताओं ने अलग राग अलापा था। इससे साफ पता चलता है कि कांग्रेस अब सिर्फ अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है।
बिखर चुके कांग्रेसी कार्यकर्ता जो देश की जनता के मूड को जानते और समझते हैं उनमें भी मायूसी होगी और वह पाला बदलने की जरूर सोच रहे होंगे। जमीनी कार्यकर्ताओं के पाला बदलने से गर्त में जा रही कांग्रेस को कोई भी नहीं बचा सकेगा और यह पार्टी अब आखिरी साँसे गिन रही है। देश की जनता को एक बार फिर से वही देखना पड़ा है जो वर्षों की परंपरा रही है लेकिन इस बार यही परंपरा कांग्रेस को ले डूबेगी।