रोज़ की तरह मैं बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी जा रहा था, तभी मेरी नजर एक बूढ़े व्यक्ति पर पड़ती है जो काफी परेशान नजर आ रहे थे। मैं उनके पास जाता हूं और उनसे पूछता हूं कि बाबा आप क्या हुआ इतनी परेशानी में क्यों हैं? वो बूढ़ा व्यक्ति दर्द भरी आवाज में कहता है,‘मैं इस दवा को कबसे ढूंढ रहा हूं लेकिन मुझे ये दवा नहीं मिल रही। मेरे बेटे को बुखार है, उसकी आंख में चोट भी लगी है और दर्द से कराह रहा है। मैंने डॉक्टर को दिखाया था। आप देखो बिटिया ये दवा कहां मिल सकती है जो डॉक्टर ने लिखी है।’ मैं सोच में पड़ गया कि डॉक्टर ने ऐसी कौन सी दवा लिख दी है कि कहीं नहीं मिल रही है। उनकी उम्र 60 वर्ष के करीब लग रही थी और उनकी आर्थिक स्थिति भी मुझे कमजोर लग रही थी। मैंने उनसे कहा आप मुझे दीजिये मैं खुद इस दवाई को लेकर आता हूं। परन्तु मुझे वो दवा नहीं मिली, हर दूकानदार कहता ये दवा यहां नहीं मिलेगी। जब मैंने बाबा से और पूछ ताछ की तब मुझे पता चला कि डॉक्टर ने एक दुकान का नाम बता कर दवा वहीं से लेने को कहा था। परन्तु उन्हें वो दुकान मिली नहीं, लगता है कि वो यहां नए हैं तभी उन्हें इतनी परेशानी हो रही थी। मैं उनके कहे अनुसार उसी दुकान पर गया और मुझे दवा तुरंत मिल गयी। वो बेहद खुश हुए कि अब उनके बेटे को आराम मिल जायेगा लेकिन दवा की कीमत सुनकर वो काफी उदास हुए पर करते भी क्या जैसे तैसे अपने जेबों में रखे पाई पाई को जुटाया और दवा ली। परन्तु मेरे मन में उठ रहे सवालों ने मुझे उनसे नंबर मांगने को मजबूर किया और मैंने उनसे कहा जब आप अगली बार जायें तो मुझे भी अपने साथ लेकर चलें आपको सस्ती दवाएं दिलवाने में मदद करूंगा। वो इसके बाद अपने घर की ओर चल दिए।
इसके बाद जब अगली बार मैं उनके साथ गया और डॉक्टर ने जो दवाएं लिखी मैंने उनसे कुछ सवाल किये कि ये दवा कहां और कैसे मिलेंगी तो डॉक्टर ने उसी दुकान पर जाने के लिए कहा। मैंने सख्त लहजे में कहा कि इससे संबंधित और कोई दवा लिखिए जिसका साल्ट और कम्पोजीशन एक ही हो और वो सस्ते दाम में बाबा को मिल जाए आप इतनी महंगी दवा क्यों लिख रहे हैं। इसपर डॉक्टर के चेहरे का रंग उड़ गया। और उसे लगा ये तो कहीं मेरी जांच करने या मेरे लिए कोई मुश्किल न खड़ी कर दे और तुरंत उसने दवा बदल दी और सस्ती दवा लिखी जो आसानी से मेडिकल की दुकान पर मिल भी गयी।
इस घटना से मुझे इस बात का एहसास हुआ कि अगर शिक्षित लोग डॉक्टर से इसपर जानकारी मांगे तो वो डर जाते हैं और फिर इससे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग पर भी वित्तीय दबाव नहीं पड़ता।
वहीं एक और बात जो मुझे समझ आई वो यह कि डॉक्टर और मेडिकल दुकानों के बीच साठगांठ कितना बड़ा है। हालांकि, ये केवल बनारस या किसी एक स्थान पर ही नहीं सीमित है। भारत के हर कोने में एक न एक ऐसा मामला देखने को मिल ही जाएगा।
गरीब तबके के मरीज दूर दूर से अस्पताल में उपचार के लिए आते हैं। उन्हें बाहर की महंगी दवाइयां लिख दी जाती हैं लेकिन जब वो उस दवा के लिए जरुरी पैसे नहीं इकट्ठा कर पते तो कई बार मरीजों की जान पर बन आती है। मेडिकल की दुकानों के खास डॉक्टरों की ये सांठगांठ गरीबों के जीवन को और दुखदायी और कमजोर बना रहा है। डॉक्टर्स ऐसी दवाइयां लिखते हैं जिसपर कम लागत में सौ से तीन सौ प्रतिशत मुनाफा कमाया जाता है। इसके एवज में डॉक्टर फार्मेसी दुकानों से एक मोटी रकम कमीशन के तौर पर लेते हैं। कहीं कहीं तो इसके लिए बाकायदा एक स्टाफ की तैनाती भी की जाती है, जो आने वाले मरीजों को यह बताता है कि दवाइयां उस मेडिकल स्टोर से ही लेनी है।
ये आज के समय में ऐसा गंभीर विषय है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आये दिन हमारे देश में कोई न कोई बीमार होता है या एक्सीडेंट का शिकार होता और वो बड़ी उम्मीदों से डॉक्टर के पास जाता है परन्तु कुछ डॉक्टर्स उनकी मज़बूरी का फायदा उठाने में जरा भी नहीं झिझकते।
इस बता को हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री अच्छे से समझते हैं तभी तो लंदन में ‘भारत की बात, सबके साथ’ कार्यक्रम के दौरान पीएम मोदी ने डॉक्टरों के कदाचार को लेकर बयान दिया था और कहा था कि डॉक्टरों और दवा बनाने वाली कंपनीयों के बीच साठगांठ की वजह से ही भारत में जेनेरिक दवाइयों का स्टोर खोलने का निर्णय लिया गया है।
आपको जानकार हैरानी होगी कि कई बार डॉक्टर उसी कम्पोजीशन की दूसरी दवा लेने से मना करता है और ऐसा कहकर वो मरीज को डरा देते हैं कि दूसरी दवाई लेने से साइड इफ़ेक्ट्स होंगे और मरीज अपनी अज्ञानता के कारण डॉक्टर की कही बातों को पत्थर की लकीर मान लेता है। और डरना लाजमी भी है हेल्थ को लेकर भला कौन लापरवाही करना चाहता है। एक छोटी सी बीमारी या इन्फेक्शन के लिए भी डॉक्टर अपने फायदे के लिए मरीज को लगभग एक दर्जन दवा लिख देते हैं, जिसकी कीमत नौ से 10,000 रुपये तक पहुंच जाती है। दवाओं की लिस्ट में तीन से चार प्रकार के टॉनिक भी शामिल होते हैं, जिसे मरीज को तीन से चार माह तक खाना पड़ता है। टॉनिक के अलावा मरीज को प्रोटीन पाउडर भी लिखा जाता है, जिसकी कीमत बहुत अधिक होती है। डॉक्टर द्वारा लिखी गयी सारी दवाएं कुछ खास दुकानों पर ही मिलती हैं। लिखी गयी दवाओं को खरीदने में नौ से 10,000 रुपये का खर्च आता है। वहीं यही दवा जेनेरिक में 1500 से 2,000 रुपये में मिल जाती।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक रिपोर्ट ने भी भारत में इलाज सुविधाओं पर सवाल खड़े किए हैं। इस रिपोर्ट में यह कहा गया था कि स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने वाले लोग भी अपनी आय का 10 फीसद से ज्यादा हिस्सा इलाज पर खर्च कर देते हैं। संगठन की विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट 2018 के अनुसार, भारत में लगभग 23 करोड़ लोगों को 2007 से 2015 के दौरान अपनी आय का 10 फीसदी से अधिक पैसा इलाज पर खर्च करना पड़ा। यह संख्या ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की संयुक्त आबादी से भी अधिक है। भारत में लगभग 60 प्रतिशत किसान है और अगर वह अपनी आय को सिर्फ दवाओं पर ही खर्च कर देंगे तो बाकी खर्च कहाँ से चलेगा।
इसकी सिर्फ एक ही वजह है और वह है डॉक्टरों और दवा बनाने वाली कंपनी तथा उसे बेचने वाले स्टोर के बीच की साठगांठ।
लेकिन क्या आप जानते हैं आप डॉ. की लिखी सस्ती दवाएं भी खरीद सकते हैं। जी हां, आपका डॉक्टर आपको जो दवा लिखकर देता है उसी साल्ट की जेनेरिक दवा आपको बहुत कम दामों में मिल सकती है। महंगी दवा और उसी साल्ट की जेनेरिक दवा की कीमत में कम से कम पांच से दस गुना का अंतर होता है। कई बार जेनरिक दवाओं और ब्रांडेड दवाओं की कीमतों में 90 प्रतिशत तक का भी फर्क होता है।
जेनेरिक दवाएं बिना किसी पेटेंट के बनाई और वितरित की जाती हैं। हां, जेनेरिक दवा के फॉर्मुलेशन पर पेटेंट हो सकता है लेकिन उसके मैटिरियल पर पेटेंट नहीं किया जा सकता। इंटरनेशनल स्टैंडर्ड से बनी जेनेरिक दवाइयों की क्वालिटी ब्रांडेड दवाओं से कम नहीं होती, ना ही इसका असर कुछ कम होता है। जेनेरिक दवाओं की डोज, उनके साइड-इफेक्ट्स सभी कुछ ब्रांडेड दवाओं जैसे ही होते हैं। अंतर बस यह होता है कि ब्रांडेड दवाओं की पब्लिसिटी इंटरनेशनल लेवल पर की जाती है, वहीं जेनेरिक दवाइयों के प्रचार के लिए कंपनियां पब्लिसिटी नहीं करती।
जहां पेंटेट ब्रांडेड दवाओं की कीमत कंपनियां खुद तय करती हैं, वहीं जेनेरिक दवाओं की कीमत को निर्धारित करने के लिए सरकार का हस्तक्षेप होता है। जेनेरिक दवाओं की मनमानी कीमत निर्धारित नहीं की जा सकती। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक, डॉक्टर्स अगर मरीजों को जेनेरिक दवाएं प्रीस्क्राइब्ड करें तो विकसित देशों में हेल्थ पर खर्च 70 पर्सेंट और विकासशील देशों में और भी अधिक कम हो सकता है।
देश के मेडिकल रेग्युलेटर मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) ने वर्ष 2016 में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (प्रोफेशनल कंडक्ट, एटीकेट एंड इथिक्स) रेग्युलेशन, 2002 की इससे संबंधित धारा 1.5 में बदलाव कर डॉक्टरों के लिए जेनेरिक दवाई लिखने के लिए अनिवार्य किया था। अगर डॉक्टरों ने प्रिस्क्रिप्शन में सिर्फ सस्ती जेनेरिक दवाए लिखने की उसकी गाइडलाइन का पालन नहीं किया तो उन्हें कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है।
उदाहरण के लिए बुखार और दर्द की एक दवा पैरासिटामॉल है। यह इसका जेनेरिक नाम है। इसे अलग-अलग कंपनियां अलग-अलग नाम से बेचती हैं। एमसीआई का कहना है कि डॉक्टर अपने पर्चे पर केवल पैरासिटामॉल लिखें। किसी खास कंपनी के ब्रांड वाली दवा न लिखें। लेकिन फिर भी अपने फायदे के लिए कई डॉक्टर मरीजों की आर्थिक स्थिति भी नहीं समझते और भारी भरकम बिल थमा देते हैं। इससे बचने का केवल एक ही उपाए है और वह है अपने आप को शिक्षित करना और साथ साथ दूसरों को भी बताना कि कैसे वह अपने मेडिकल बिल को कम कर सकते है। रोटी, कपड़ा और मकान इंसान की बुनियादी जरूरतें भले ही हैं, लेकिन अच्छी हेल्थ और उसे बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है। हम आपसे भी यह उम्मीद करते है कि आप भी ऐसी किसी भी प्रकार की जानकारी जरूरतमंदों से जरूर साझा करेंगे।