अपने आप को पशुओं के अधिकारों का संरक्षक कहने वाले पेटा यानि ‘पीपल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स’ एक बार फिर चर्चा में है। यूं तो पेटा दुनियाभर में पशुओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली संस्था के रूप में जानी जाती है, लेकिन कई बार यह संस्था अपने दोहरे मापदण्डों के लिए विवादों को निमंत्रण दे चुकी है। पेटा कई बार अपने पशु-प्रेम की आड़ में हिन्दू-विरोधी एजेंडा को बढ़ावा देती आई है। वैसे तो पेटा हर धर्म के ऐसे त्यौहारों पर टिप्पणी करता है, जो किसी न किसी तरीके से पशुओं के अधिकारों का हनन करते हैं, लेकिन जब बात हिन्दू धर्म के त्यौहारों की आती है, तो पेटा अपनी एजेंडावादी मानसिकता के चलते ऐसे मामलों में कुछ ज़्यादा ही दिलचस्पी दिखाता है।
पेटा ने ईद-उल-अजहा के मौके पर भी कुछ ट्विट्स कर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश की। पेटा इंडिया ने एक ट्वीट किया और लिखा कि ‘मुंबई के एक बूचड़खाने में ईद के त्यौहार के मद्देनजर हजारों पशुओं को लाया गया है। हमें यह देखने को मिला जिसे जानकार आपको हैरानी होगी’।
https://twitter.com/PetaIndia/status/1160084071784972288?s=20
इसके अलावा पेटा ने एक और ट्वीट किया जिसमें उन्होंने सभी मुसलमानों से बिना खून बहाए ईद मनाने की अपील की।
Our Muslim vegetarian and vegan friends share how they observe a #BloodlessEid #EidAdhaMubarak pic.twitter.com/7AUScKRPFY
— PETA India (@PetaIndia) August 12, 2019
गौर करने वाली बात यह है कि पेटा ने यहां सिर्फ मुसलमानों से अपील करके सब भगवान भरोसे छोड़ दिया और कुछ ट्विट्स करके अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया। लेकिन जब बात हिंदुओं के त्यौहारों की आती है तो पेटा ज़्यादा तीव्रता के साथ अपना अभियान चलाता है। उदाहरण के तौर पर तमिलनाडू में हिंदुओं द्वारा मनाए जाने वाले जलीकट्टू त्यौहार के खिलाफ पेटा ने सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी जमकर हल्ला मचाया था। वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने जल्लीकट्टू पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया था और इसमें ‘एनिमल वेलफेयर बोर्ड ऑफ इंडिया’ और पेटा इंडिया की सबसे बड़ी भूमिका थी। इसके बाद जब वर्ष 2016 में केंद्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर दोबारा से जलीकट्टू के आयोजन को मंजूरी दी थी, तो वह पेटा ही था जिसने सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट में इस अधिसूचना के खिलाफ याचिका दायर की थी। परिणाम स्वरूप सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के अधिसूचना जारी करने के मात्र 5 दिन बाद ही उस अधिसूचना पर रोक लगा दी।
इसके अगले साल यानि वर्ष 2017 में राज्य सरकार ने अपने क़ानूनों में बदलाव करते हुए जल्लीकट्टू के आयोजन को वैध करार दिया, जिसके खिलाफ एक बार फिर पेटा सुप्रीम कोर्ट में गया लेकिन अब की बार पेटा को कोर्ट से निराशा हाथ लगी, और कोर्ट ने राज्य सरकार के कानून पर रोक लगाने से साफ मना कर दिया। इसके बाद नवंबर 2017 में पेटा की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से अपने कानून पर दोबारा विचार करने को कहा और वर्ष 2018 में इस पूरे मामले पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पेटा के आग्रह पर ही एक संविधान पीठ का गठन करने की घोषणा की।
यानि जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध लगवाने के लिए पेटा ने जी-तोड़ मेहनत लगा दी, लेकिन जब बात ईद के मौके पर पशुओं के अधिकारों के हनन की आती है तो यही पेटा मात्र एक ट्वीट से अपना पल्ला झाड़ने का काम करती है। अगर गौर किया जाये तो पेटा ने ईद के मौके पर दी जाने वाले मासूम जानवरों की बलि के खिलाफ इतने बड़े पैमाने पर कभी कोई अभियान नहीं चलाया। हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब पेटा ने इस तरह अपने दोहरे मापदण्डों को जाहिर किया हो। अमेरिका में आयोजित होने वाले बुल-राइडिंग कार्यक्रम को लेकर भी पेटा का दोहरा मानदंड सामने आया था। एक तरफ जहां पेटा जल्लीकट्टू पर रोक लगाने के लिए एडी चोटी का ज़ोर लगा रहा है, तो वहीं अमेरिका में उसी प्रकार के आयोजन ‘बुलराइडिंग’ पर रोक लगाने के लिए उसने इस तरह से कानूनी रास्ता अख्तियार करने की नहीं सोची।
इन्हीं दोहरे मानदंडों की वजह से भारत में पेटा पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी कई बार उठ चुकी है। पेटा जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन हिंदुओं के खिलाफ जमकर अपना एजेंडा चलाते हैं, लेकिन जब दूसरे धर्मों की बात आती है तो ऐसी संस्थाएं एक्शन के नाम पर सिर्फ कुछ ट्विट्स करने का काम करती हैं। अगर वाकई पेटा को पशुओं के अधिकारों की चिंता है तो उसे बिना धर्म की परवाह किए सभी मामलों पर खुलकर अपनी राय रखनी चाहिए। लेकिन ईद के मौके पर मासूम जानवरों के अधिकारों के हनन के खिलाफ मात्र एक ट्वीट करने से फिर एक बार पेटा ने अपने आप को एक्सपोज किया है।