आर्यन इंवेजन थ्योरी मनगढ़ंत कहानी के अतिरिक्त कुछ नहीं
इतिहास तथ्यों पर आधारित होता है न की पूर्वाग्रहों पर। लेकिन हमारे देश में इतिहास पूर्वाग्रहों पर अपने सुविधा के अनुसार ही लिखा गया है। इतिहासकारों ने पहले ही निष्कर्ष निकाल लिया, इसके पश्चात तथ्यों को उस निष्कर्ष के अनुसार तोड़मरोड़ कर लिखा। स्वतन्त्रता से पहले अंग्रेज़ो ने इस कला को आरंभ किया था जो आज भी लॉर्ड मैकाले से प्रभावित इतिहाकारों और पत्रकारों में व्याप्त है। इतिहास में कई ऐसी कल्पनाएं उल्लेखित हैं जो बिना तथ्यों के ही सिर्फ पूर्वाग्रहों पर लिख दी गयी हैं। उनमें से एक आर्य ‘आक्रमण सिधान्त’ या ‘आर्यन इंवेजन थ्योरी’ सबसे अधिक प्रचलित है
आर्यन इंवेजन थ्योरी के अनुसार उत्तर भारत के लोग यानि “आर्य” यूरोप-ईरान से आए हैं और उन्होंने 1500 ईसा पूर्व भारत भूमि पर आक्रमण कर इसे अधिग्रहण किया। लेकिन बीते 5 सितंबर को आधिकारिक रूप से इस मनगढ़ंत सिधान्त को अप्रासंगिक सिद्ध कर दिया गया। हरियाणा के राखीगढ़ी में मिले कंकालों के डीएनए सैंपलों से पता चला है कि भारत के निवासियों का “आर्य” के जीन से कोई संबंद्ध नहीं है। परंतु क्या आपको पता है कि इस अन्वेषण से यह भी सिद्ध हो गया कि भारतीय इतिहास की मूल मानी जाने वाली सिंधु घाटी सभ्यता से बड़ी सभ्यता सरस्वती घाटी सभ्यता है?
यह कहानी है भारत के इतिहास के सबसे बड़े साजिश की, एक ऐसे मनगढ़ंत सिधान्त या कहानी की जिसने भारतीयों को 19वीं सदी में ही बांट दिया तथा यह कहानी है भारत की सबसे बड़ी नदी और सभ्यता की जिसका अस्तित्व वामपंथी इतिहासकारों ने कभी माना ही नहीं।
‘आर्यन इंवेजन थ्योरी’ का जन्म यूरोप में हुआ, जहां लोग स्वयं को सबसे सर्वोच्च प्रजाति का मानते थे। अगर यह कहें कि जर्मन ने इसे जन्म दिया और अंग्रेजों ने इसे बड़े स्तर पर उपयोग किया तो यह मिथ्या नहीं होगा। ‘आर्यन’ या ‘आर्य’ शब्द का अर्थ होता है एक भद्र मानव। इस शब्द का उल्लेख ऋग वेद में भी मिलता है। अर्थात किसी भी श्रोत पाण्डुलिपि या पुरातत्व, में आर्य के कहीं से भी किसी विभिन्न प्रजाति के होने का प्रमाण नहीं मिलता।
लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों और यूरोपीय देशों ने विश्व में अपने वर्चस्व को कायम करने के लिए भाषायी आधार पर प्रजातियों को बांटना आरंभ किया और इससे यह निष्कर्ष निकाला कि वह श्रेष्ठ हैं तथा उसी से मानव विकसित हुआ और फिर अन्य महाद्वीपों पर फैला। सबसे पहले इस सिधान्त को मैक्स मुलर ने जन्म दिया था वह भी बिना किसी तथ्य के। उन्होंने आर्य को प्रजाति और संस्कृत को आर्यों की भाषा घोषित कर दिया। साथ ही आर्यों के शरीर की परिभाषा देकर स्वयं दक्षिणी एशिया के निवासियों की प्रजाति की घोषणा करने लगे।
इस कल्पना को साबित करने के लिए एक मनगढ़ंत सिधांत का आविष्कार किया गया और उसे नाम दिया गया ‘आर्यन इंवेजन थ्योरी’ यानि “आर्य” नाम की प्रजाति ने भारतीय उपमहाद्वीप के मूल निवासियों पर आक्रमण किया तथा विकसित प्रणाली जैसे खेती करने के गुण, वेद पुजा करने की विधि आदि अपने साथ ले कर भारतीय उपमहाद्वीप पर आए। आर्यन इंवेजन थ्योरी को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने वाले इतिहासकर ए.एल. बाशम अपनी किताब ‘ए वंडर दैट वाज इंडिया’ में लिखते हैं, ‘दूसरे मिलेनियम में भारत आने वाले आर्यनों का समूह काव्य रचना करने में प्रवीण हो चुका था जिसे देवों को खुश करने के लिए लिए जाता था।’ उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘आर्य अपने साथ पितृसत्तात्मक परिवार, घोड़े, रथ आदि को अपने साथ ले कर आए।’ ऐसे ही कई अंग्रेजी और अंग्रेजी विचार रखने वाले वामपंथी इतिहासकारों ने भी अंग्रेजों की चाटुकारिता करने के लिए अपनी-अपनी किताबों में लिखा कि मूल निवासीयों पर विजय प्राप्त करने वाले आर्यों ने घोड़े के साथ तैयार रथ, अपनी वैदिक संस्कृति, जाति व्यवस्था और संस्कृत भाषा को भारत में मिला दिया।
अंग्रेजी नेतृत्व ने कैसे इस थ्योरी का उपयोग कर देश को बांटा ?
अंग्रेजी नेतृत्व ने आर्यन इंवेजन थ्योरी का उपयोग कर भारत को बांटने का काम लॉर्ड मैकॉले को दिया। लॉर्ड मैकॉले ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ अपने प्रभाव का उपयोग कर ‘आर्य आक्रमण सिधान्त’ देने वाले मैक्स मुलर की मदद ली और ऋग्वेद का अनुवाद करा कर भारत के मूल निवासियों में से उत्तर भारतीयों को “आर्य प्रजाति” सिद्ध करने की कोशिश की। मैकॉले का यह षड्यंत्र सफल हो गया। मैकाले के साथ-साथ भारत के ही कई इतिहासकर इस षड्यंत्र का हिस्सा बने और देश को आर्यों और द्रविड़ों में सिर्फ विभाजन ही नहीं किया बल्कि भरतीयों के मस्तिष्क में एक हिन भावना भी पैदा करने में सफल रहे जिससे आज की पीढ़ी भी उबर नहीं पायी है। उन्होंने मिथक प्रचार किया कि ‘आर्यों’ ने द्रविड़ों पर आक्रमण किया जो हड़प्पा के आसपास के क्षेत्र के ‘मूल’ निवासी थे और उन्हें दक्षिण तक खदेड़ा। बाद में जब किसी पुरातात्विक या आनुवांशिक डेटा ने इस दावे को पुष्ट नहीं किया, तब उन्होंने स्थानांतरगमन सिधान्त का प्रस्ताव रखा जिसके अनुसार पश्चिम से प्राचीन ईरानी लोग हड़प्पा क्षेत्र में आए और अपनी वैदिक संस्कृति साथ लाए। साथ ही इन इतिहासकरों ने यह मानने से भी अस्वीकार कर दिया कि वेदों में उल्लेखित सरस्वती नदी का अस्तित्व भी था।
रोमिला थापर, इरफान हबीब और उनके साथी इतिहासकार इसी काल्पनिक सिद्धान्त को अपनी किताबों में लिख कर दशकों तक देश के विद्यार्थियों को भ्रमित करते रहे। इन वामपंथी इतिहासकारों ने इस सिद्धांत से भारत की सभ्यता का उद्भव भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर का बताया और वैदिक प्रथाओं को एक विदेशी प्रथा के रूप में दिखाया। इससे दक्षिण भरतीयों में यह संदेश गया कि आर्यों ने मूल निवासियों पर हमला किया जिसके कारण द्रविड़ों को पलायन कर सुदूर समुद्र तक जाना पड़ा। यही सिधान्त फिर बाद में जाकर भाषायी आधार पर भारत में राज्यों के विभाजन का कारण बना। आर्यन इंवेजन थ्योरी का उपयोग कर आधुनिक भारत में राजनीतिक दलों द्वारा उत्तर बनाम दक्षिण के रूप में दिखाने का प्रयास किया गया। डीएमके और अन्नाद्रमुक जैसी पार्टियों ने स्वतन्त्रता के बाद दशकों तक क्षेत्रवादी राजनीतिक की ओर लोगों को बांटते रहे हैं। पेरियार जैसे लोगों ने तो द्रविड़ों के लिए अलग देश बनाने की मांग कर दी थी। आर्य आक्रमण सिधान्त आज भी प्रचलित है तो केवल वामपंथी इतिहासकारों की सेना के कारण जो देश की शिक्षा प्रणाली के सभी स्तरों पर आसीन है। स्वतन्त्रता के बाद भी जवाहर लाल नेहरू ने अंग्रेजों के चाटुकारों को ही भारत का इतिहास लिखने का दायित्व दिया।
भ्रामक तथ्यों पर आधारित ‘आर्यन थ्योरी’ का सत्य अब उजागर हो चूका है
लेकिन बीसवीं शताब्दी में जैसे-जैसे पुरातत्व के सुबूत मिलते गए, विशेष रूप से सिंधु और सरस्वती घाटियों में, उससे यह स्पष्ट होता गया कि प्रस्तावित तारीख के आसपास यानि 1500 ईसा पूर्व किसी भी व्यक्ति या समूह ने भारत पर आक्रमण या पलायन नहीं किया था। साथ ही यह भी सिद्ध गया कि अधिकतर पुरातात्विक शहर क्षेत्र सिंधु नदी के आस-पास नहीं अपितु लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के किनारों पर बसा है। हड़प्पा सभ्यता की 2600 बस्तियों में से वर्तमान पाकिस्तान में सिन्धु तट पर मात्र 265 बस्तियां हैं, जबकि शेष अधिकांश बस्तियां सरस्वती नदी के तट पर मिलती हैं। अभी तक हड़प्पा सभ्यता को सिर्फ सिन्धु नदी की देन माना जाता था, लेकिन अब नये शोधों से सिद्ध हो गया है कि भारत की सभ्यता सिंधु सभ्यता नहीं सरस्वती सभ्यता है। इस प्रमाण के साथ मेजर जनरल जीडी बक्शी ने अपनी किताब ‘द सरस्वती सिविलाइजेशन’ में भी बताया है। इस किताब को गरुड़ प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।
मानव विज्ञान यानि एंथ्रोपोलॉजी ने भी सैकड़ों कंकालों का परीक्षण कर लगभग 1500 ईसा पूर्व भारत में किसी भी नए मानव के प्रवेश की संभावना को खारिज कर दिया है। हड़प्पा संस्कृति के कई तत्व वैदिक संस्कृति से मिलते हैं जैसे अग्नि, मातृ-देवी, पेड़ और जानवरों की पूजा, तेल के दीपक, लाल वर्णक, शंख का उपयोग, पानी के माध्यम से अनुष्ठान, शुद्धि और सबसे महत्वपूर्ण, योग तथा ध्यान। इसलिए, आर्यन इंवेजन थ्योरी द्वारा स्थापित सांस्कृतिक विराम सिद्ध नहीं होता है। इस सिधान्त में सरस्वती नदी को भी आर्यों के कथित आगमन से कम से कम 400 वर्ष पहले 1900 ईसा पूर्व के आसपास गायब होना या सूखना दिखाया गया था जबकि सरस्वती को वैदिक काल के भजन में “पराक्रमी, पहाड़ से समुद्र तक बहने वाली नदी के रूप में पूजा करते थे।” साथ ही वेदों में भी सरस्वती का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद के ‘नदी सूक्त’ में सरस्वती का इस प्रकार उल्लेख है कि-
‘इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया‘।
जैसे-जैसे विज्ञान विकसित होता गया वैसे-वैसे हमारे इतिहास की सत्यता स्थापित होती गई। अब नए-नए तथ्य सामने आ रहे हैं जिससे संभावनाओं के नए द्वार खुलते जा रहे हैं और भ्रामक तथ्यों पर आधारित ‘आर्यन इंवेजन थ्योरी’ का सत्य अनावृत हो चुका है।
आर्यन इंवेजन थ्योरी’ के काल्पनिक होने पर विज्ञान ने भी सहमति दे दी
इसी क्रम में 5 सितंबर को सिंधु-सरस्वती घाटी सभ्यता की विरासत के सत्य होने और ‘आर्यन इंवेजन थ्योरी’ के काल्पनिक होने पर विज्ञान ने भी सहमति दे दी। अमेरिकी साइंटिफिक जनरल ‘सेल’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक सरस्वती-सभ्यता के मानव का आर्यनों के जीनोम में समानता नहीं है। यह रिपोर्ट हरियाणा के राखीगढ़ी से मिले एक नरकंकाल के अध्यन्न के आधार पर ली गई है। बता दें कि पुणे के डेक्कन कॉलेज ऑफ आर्कियोलॉजी के प्रोफेसर वसंत शिंदे की अगुआई वाली टीम ने 2015 में राखीगढ़ी के मिट्टी के टीलों को खुदवाना शुरू किया। बस्ती से करीब एक किलोमीटर दूर 4,500 वर्ष पुराने कंकाल मिले थे। इसे लेकर वैज्ञानिकों ने अवशेषों का डीएनए टेस्ट किया था। डीएनए टेस्ट से पता चला है कि यह रिपोर्ट प्राचीन आर्यन्स की डीएनए रिपोर्ट से मेल नहीं खाती है। ऐसे में यह प्रमाणित होता है कि आर्यों के बाहर से आने का सिधान्त ही मिथ्या है। इसके अलावा इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शिकार करना, खेती और पशुपालन भारत के मूल निवासियों ने अपने आप सीखा था। इस रिपोर्ट को तैयार करने वाली टीम के प्रमुख प्रोफेसर वसंत शिंदे ने इकॉनमिक टाइम्स से कहा, यह पेपर्स में इस तरफ इशारा करते हैं कि आर्यन हमले और आर्यन्स के बाहर से आने दावे निराधार हैं। इसके अलावा यह भी साफ है कि शिकार-संग्रह से आधुनिक समय के सभी विकास यहां के लोगों ने स्वयं किए थे।’
रिपोर्ट में तीन बिंदुओं को मुख्य रूप से दर्शाया गया है। पहला, प्राप्त कंकाल दक्षिण एशिया के निवासियों का था। दूसरा, 12 हजार साल से एशिया का एक ही जीन रहा है। भारत में विदेशियों के आने की वजह से जीन में मिश्रण होती रही। तीसरा, भारत में खेती करने और पशुपालन करने वाले लोग बाहर से नहीं आए थे। हड़प्पा सभ्यता के बाद आर्यन बाहर से आए होते तो अपनी संस्कृति साथ लाते। राखिगढ़ी के इस रिसर्च से स्पष्ट होता है कि सिंधु-सरस्वती घाटी की सभ्यता और अभी रह रहे लोगों का जीनोम एक ही है।
जेनेटिक शोधकर्ता नीरज राय ने कहा कि हमारे शोध में किसी भी मध्य एशिया के पूर्वजों के डीएनए का मिलान नहीं हुआ है। इससे पता चलता है कि राखीगढ़ी के रहने वाले लोगों का मध्य एशिया के लोगों से कोई संबंध नहीं है। आर्य नामक कोई प्रजाति नहीं थी। सरस्वती और वैदिक संस्कृति लगभग एक थी और भारत में अधिकांश लोग, उत्तर के या दक्षिण के, उसी संस्कृति के वंशज हैं।
अब जबकि आर्यन इंवेजन थ्योरी अप्रासंगिक और झूठा साबित हो चुका है, तब सनौली में खोजे गए 4,000 वर्ष पुरानी कब्रगाह और अन्य अवशेष पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। बता दें कि सनौली में पुरातात्त्विक स्थल का उत्खनन पहली बार 2018 में शुरू हुआ था जिसे जनवरी 2019 में फिर से आरंभ किया गया है। इस क्षेत्र में हड़प्पाकाल का सबसे बड़ा रथ पाया गया है। वर्ष 2018 की खुदाई में यहां तीन रथ प्राप्त हुए थे। इसके अतिरिक्त यहां पुरातात्विक महत्व की तलवारें, हथियार, भोज्य पदार्थ आदि मिले हैं और इन सभी के शोध से हमारी सभ्यता यानि सरस्वती सभ्यता कहीं और अधिक पुरानी सिद्ध होगी।