वर्ष 2013 में जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग कजाकिस्तान और इंडोनेशिया के दौरे पर गए थे तब उन्होंने चीन के बीआरआई परियोजना को दुनिया के सामने रखा था। तब चीन ने बताया था कि इस प्रोजेक्ट का मकसद इनफ्रास्ट्रक्चर के माध्यम से एशिया को यूरोप, अफ्रीका और मिडिल ईस्ट देशों के साथ जोड़ना होगा। चीन ने पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में काम किया और अब तक दुनिया के लगभग 126 देशों ने इस प्रोजेक्ट पर चीन के साथ मिलकर काम करने के लिए दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर भी दिये हैं। हालांकि, इस प्रोजेक्ट की आड़ में चीन की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का विषैला एजेंडा भी किसी से छुपा नहीं है। यही कारण है कि अब कुछ देशों ने खुलकर चीऩ के इस एजेंडावादी प्रोजेक्ट का विरोध करना शुरू कर दिया है और आने वाले सालों में इसकी वजह से चीऩ को 800 बिलियन डॉलर का नुकसान हो सकता है।
दरअसल, बुधवार को सिल्क रोड एसोसिएट्स और लॉ फर्म बेकर मैकेंजी ने अपनी रिपोर्ट में यह दावा किया चूंकि कई देशों में बीआरओ प्रोजेक्ट का विरोध हो रहा है, ऐसे में जिस मात्रा में चीऩ बीआरआई परियोजना में निवेश करना चाहता था, उस मात्रा में वह निवेश नहीं कर पाएगा। चीन अपनी रणनीति के अनुसार कई देशों में बीआरआई प्रोजेट के तहत लगभग 1.3 ट्रिलियन डॉलर का निवेश करना चाहता था लेकिन कुछ देशों में बढ़ रहे राष्ट्रवाद और जागरूकता ने चीऩ के एजेंडे को झटका दिया है। बीआरआई प्रोजेक्ट के खिलाफ मलेशिया, फिलीपींस और थाइलैंड जैसे देश पहले ही आवाज़ उठा चुके हैं और अफ्रीकी देशों में इस प्रोजेक्ट को काफी विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
चीन पिछले काफी सालों से अपनी इस परियोजना के चलते कई देशों को अपने ‘डैब्ट ट्रैप’ में फंसाता आया है। चीऩ अक्सर छोटे देशों को बड़े बड़े सपने दिखाकर उनकी आर्थिक क्षमता से अधिक कर्ज़ देता है और बाद में जब वह देश उन कर्ज़ो को चुकाने में असफल हो जाते हैं, तो चीन उन देशों की सम्पत्तियों को कई दशकों तक लीज़ पर लेकर उन्हें अपना उपनिवेश बनाने का काम करता है। हाल ही में मालदीव और श्रीलंका जैसे देश इसको लेकर चीन की आलोचना भी कर चुके हैं। इंडोनेशिया में नई सरकार आने के बाद उसने भी चीन की इस परियोजना से बाहर निकलने में अपनी भलाई समझी। चीन को ऑल वेदर फ्रेंड कहने वाले पाकिस्तान के अंदर से भी अब चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के खिलाफ आवाजें उठना शुरू हो गयी हैं।
ओबीओआर के उद्देश्य पर चीऩ ने कहा था कि ये दुनिया के ऐसे क्षेत्रों को जोड़ेगा जिनकी आधारभूत संरचना अच्छी नहीं है उन्हें विकसित इस योजना के जरिये विकसित करेगा। लेकिन चीऩ के इस इस महत्वाकांक्षी योजना के पीछे छुपा एजेंडा है चीन केंद्रित वैश्विक व्यवस्था के लिए जमीनी स्तर पर काम करना। चीन इस महत्वाकांक्षी परियोजना के माध्यम से मध्य, दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशिया में गरीब देशों को आर्थिक रूप से उपनिवेश बनाना चाहता है।
अफ्रीका में भी चीऩ का यही एजेंडा है। हालांकि अब अफ्रीकी देशों में चीऩ की गतिविधियों का विरोध शुरू हो चुका है। ब्रिटेन के टेलिग्राफ अख़बार ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि तंजानिया ने चीन की मदद से बनाए जा रहे एक पोर्ट प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया। वहीं केन्या ने अपने ऐसे ही एक कोयले के पावर प्लांट का निर्माण रोक दिया था। तंजानिया के शहर बागामोयो में 10 बिलियन डॉलर की लागत से बनने वाले बंदरगाह को बनाने का प्रस्ताव भी चीऩ ने रखा था। यह बनने के बाद पूर्वी अफ्रीका का सबसे बड़ा बंदरगाह होता, लेकिन तंजानिया के राष्ट्रपति जॉन मागुफूली ने चीन के प्रस्ताव को नहीं स्वीकारा। इसके बारे में टेलीग्राफ अख़बार से बात करते हुए उन्होंने इस बंदगाह के निर्माण के लिए ऑफर की गई चीनी मदद को ‘शोषण का कारक और अजीब तरह से दिया गया प्रस्ताव’ कहा था। यानि स्पष्ट है कि चीन अपने जिस एजेंडे को लेकर आगे बढ़ा था, अब उसे उसमें मात मिलती दिखाई दे रही है और इसके पूरे अनुमान हैं कि आने वाले कुछ सालों मे बाकी देश भी चीन की मंशाओं को पहचानकर अपने हितों की रक्षा करने के लिए इस देश के खिलाफ आवाज़ ज़रूर उठाएंगे।