चीन का आर्थिक उदय: कभी भारत से भी पीछे रहने वाला चीन कैसे बना आर्थिक महाशक्ति

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PC: usfunds.com

चीन का नाम सुनते ही विश्व की एक बड़ी महाशक्ति का ध्यान आता है जिसने अमेरिका के वर्चस्व को चुनौती दिया। आज चीन (China) विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और जिस विकास दर से वह आगे बढ़ रहा है ऐसा लग रहा है कि वह जल्द ही विश्व का सबसे ताकतवर देश बन जाएगा। एक समय में चीन (China) और भारत विकास दर के मापकों पर एक समान ही थे, लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि चीन ने एक लंबी छ्लांग लगाई और आज अमेरिका को चुनौती दे रहा है।

यह बात द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की है। युद्ध समाप्त हो चुका था और अमेरिका निष्पक्ष रूप से विश्व का नेतृत्व करना चाहता था लेकिन साम्यवादी सोवियत संघ से बराबर की चुनौती मिल रही थी। चीन (China) में भी क्रांति अपने ज़ोरों पर थी। वहां भी दो गुटों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष जारी था। विश्वयुद्ध युद्ध की समाप्ति पश्चात् यह समस्या उत्पन्न हुई कि नानकिंग सरकार के अधिकृत प्रदेशों पर चुंगकिंग की कुओमितांग सरकार का आधिपत्य हो जिसके मुखिया च्यांग काई शेक थे या येनान प्रांत की साम्यवादी सरकार जिसके मुखिया अध्यक्ष माओत्से तुंग थे। दोनों ही नानकिंग पर नियंत्रण के लिए आगे बढ़े। अतः चीन में पुनः गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई, लेकिन सफलता साम्यवादी सरकार को मिली और माओत्से तुंग की अध्यक्षता में सरकार बन गयी। च्यांग काई शेक की कुओमितांग सरकार फारमोसा द्वीप (ताइवान) में सिमट कर रह गई। अमेरिका ने चीन की साम्यवादी सरकार को मान्यता न देकर फारमोसा स्थित राष्ट्रवादी सरकार को चीन की सरकार के रूप में मान्यता दी और अपना संबंध बनाए रखा।

चीन (China) में साम्यवाद की यह शुरुआत थी। साम्यवादियों ने अपनी तय आर्थिक-सामाजिक नीतियों को लागू किया। इस उद्देश्य के लिए चीन की प्रशासन ने सोवियत आर्थिक मॉडल को अपनाया, जो आधुनिक क्षेत्र में राज्य के स्वामित्व, कृषि में बड़ी सामूहिक इकाइयों और केंद्रीकृत आर्थिक नियोजन पर आधारित था। आर्थिक विकास के लिए सोवियत मॉडल प्रथम पंचवर्षीय योजना 1953-57 लागू किया गया। बता दें कि सोवियत अर्थव्यवस्था में, मुख्य उद्देश्य उच्च आर्थिक विकास दर हासिल करना था। 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना के बाद पहले दो दशकों में जीडीपी उत्पादन और प्रति व्यक्ति आय में भारी वृद्धि हुई। 1953-1978 के बीच 6% की वार्षिक औसत विकास दर रहा लेकिन चीन को लगा कि यह काफी नहीं है। और दिसंबर 1978 में कम्युनिस्ट पार्टी की 11 वीं केंद्रीय समिति के तीसरे सत्र में चीन ने अपने अस्थिर आर्थिक स्थिति से अधिक स्थिर सुधारों पर कम किया। इस आर्थिक क्रांति को लाने का श्रेय डांग श्याओपिंग को दिया जाता है उन्होंने वर्ष 1978 में जिस आर्थिक क्रांति की शुरुआत की थी। इन्हीं सुधारों की शुरुआत होने से चीन भविष्य में विकास दर में वृद्धि के लिए आधार तैयार किया। डांग श्याओपिंग ने जब आर्थिक सुधारों को 1978 में शुरू किया था तो चीन का दुनिया की अर्थव्यवस्था में हिस्सा महज 1.8 फ़ीसदी था। चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए पहले इस बात को तय किया कि कहां विदेशी निवेश लगाना है और कहां नहीं। क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देने में मदद करने के लिए विदेशी पूंजी को चीन में प्रवेश करने की अनुमति दी गई थी।

यह तय करते ही चीन में विश्व के अन्य देशों के निवेश के लिए द्वार खुल गया और फिर एक के बाद एक लगातार निवेश हुए। इसके लिए उसने विशेष आर्थिक क्षेत्र का निर्माण किया और विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए चीन ने दक्षिणी तटीय प्रांतों को चुना। इस बदलाव से कम्युनिस्ट समाजवादी राजनीतिक माहौल ही बदल गया क्योंकि यह माओ के साम्यवाद से ठीक उल्टा था। इस बदलाव से चीन ने अपने ऊपर से सोवियत आर्थिक मॉडल को ही उतार फेंका और फिर अपनी अर्थव्यवस्था में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को अपनी ज़रूरतों के अनुसार शुरू किया। अगर आंकड़ों की बात करें तो चीन की जीडीपी में वर्ष 1978 से 2016 के बीच 3,230 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। इसी दौरान 70 करोड़ लोगों को ग़रीबी रेखा से ऊपर लाया गया और 38.5 करोड़ लोग मध्य वर्ग में शामिल हुए। चीन का विदेशी व्यापार 17,500 फ़ीसदी बढ़ा और 2015 तक चीन विदेशी व्यापार में दुनिया की अगुवा बनकर सामने आया। डांग श्याओपिंग अक्सर टू-कैट थिअरी का उल्लेख किया करते थे कि जब तक बिल्ली चूहे को पकड़ती है तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वो सफ़ेद है या काली। इसी का परिणाम था कि 1979 से 2010 तक, चीन (China) की औसत वार्षिक जीडीपी वृद्धि दर 9.91% थी, जो 1984 में 15.2% के ऐतिहासिक उच्च स्तर पर पहुंच गई थी। इन सुधारों के बाद चीन एक ऐसा देश बन गया, जहां एक कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था के माध्यम से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सफल संचालन हो रहा है।

इन सुधारों का लक्ष्य निर्यात का तेजी से विस्तार करने के साथ-साथ परिवहन, संचार, कोयला, लोहा, इस्पात, भवन निर्माण सामग्री और विद्युत शक्ति में होने वाली कमियों को दूर करना था। इन सुधारों में सबसे सफल सुधार नीति कृषि में थी। सरकार द्वारा 1979 में पहाड़ी या शुष्क क्षेत्रों में गरीब ग्रामीण इकाइयों के लिए उत्पादन की अनुबंध जिम्मेदारी प्रणाली शुरू की गयी थी ताकि उनकी आय में वृद्धि हो सके। इस व्यवस्था ने किसानों को उत्पादन लागत कम करने और उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन किया। इसकी शुरूआत के तुरंत बाद ही कई कृषि इकाइयों ने अपनाया था। शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों में भी मुक्त बाजार स्थापित करने के लिए आधिकारिक प्रोत्साहन दिया गया। इन सुधारों से किसानों को स्थानीय बाजारों में अपनी उपज बेचने की अनुमति मिली और सामूहिक खेती से ऊपर उठकर पारिवारिक खेती शुरू हुई।

एक साम्यवादी देश से इस तरह का आर्थिक सुधार अकल्पनीय था। अगर हम सन 1960 की बात बात करे, तो चीन का आर्थिक हालात, भारत से भी खराब था।

साठ दशक में चीन (China) की आर्थिक स्थिति भारत से नीचे थी और फिर इन सुधारों के कारण  धीरे धीरे ऊपर उठते हुए वर्ष  1985 तक ये भारत के बराबर आ चुका था। यानि वर्ष 1985 तक भी भारत और चीन की आर्थिक स्थिति एक जैसे ही थे।

पर उसके बाद चीन ने कुछ और सुधार करते हुए उन क्षेत्रों पर निवेश किया जहां उस समय की मांग रही। साथ ही साथ उसने अपने शिल्पायन और कृषि दोनों को बढ़ावा देना प्रारम्भ किया।

1980 के बाद चीन(China) अपने देश में बढ़ती हुई जनसंख्या का भरपूर उपयोग किया और श्रम के सस्ता रहने से विदेशी कंपनियां भी निवेश करने को दौड़ पड़ी।

आज चीनी अर्थव्यवस्था विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है। शंघाई की चमक विश्व के सबसे विकसित देशों के शहरों को टक्कर देती है, सुधारवादी नीतियों के लागू होने के बाद असमानता बढ़ी है लेकिन इस दौरान बड़ी संख्या में लोग गरीबी से बाहर भी निकले हैं, सैन्य क्षमता और वैश्विक स्तर उनकी धमक बढ़ी है। चीन की अर्थव्यवस्था इस समय नॉमिनल जीडीपी के अनुसार अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसका नॉमिनल जीडीपी 10 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक है जोकि विश्व की तीसरी व चौथी अर्थव्यवस्थाओं जापान व जर्मनी के जीडीपी के कुल जीडीपी से भी अधिक है।

1990 में विश्व अर्थव्यवस्था में चीन की अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी 2 प्रतिशत से भी कम थी जोकि 2018 में बढ़कर 18.69 प्रतिशत हो गयी। इस समय दुनिया के 80 प्रतिशत एयरकंडीशनर, 70 प्रतिशत मोबाइल फ़ोन और 60 प्रतिशत जूते चीन में बनते हैं। विश्व बैंक के डेटा के अनुसार वैश्विक कपड़ा निर्यात में चीन की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत से भी ऊपर है। मैन्युफै़क्चरिंग सेक्टर, जिसे पूंजीवादी मूल्य उत्पादन का सबसे प्रमुख क्षेत्र माना जाता है। इस क्षेत्र में चीन दुनिया का अग्रणी देश बन चुका है। इस प्रकार चीन ने मैन्युफै़क्चरिंग में 110 वर्षों से चले आ रहे अमेरिका के नेतृत्व को पछाड़ दिया है। दुनिया के कुल कच्चे स्टील के उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा चीन का है। मार्क्सवादी भूगोलशास्त्री डेविड हार्वी ने यह दिखाया है कि वर्ष 2011 और 2013 के बीच चीन में सीमेंट की जितनी खपत हुई वह अमेरिका द्वारा बीसवीं सदी में सीमेंट की कुल खपत का डेढ़ गुना है। इसके अतिरिक्त खदान व सेवा क्षेत्रों में भी चीन ने हाल के दशकों में तेज़ी से विकास किया है। आज दुनिया की कुल आर्थिक वृद्धि का 28.1 प्रतिशत चीन की बदौलत है। 1952 में, चीन की जीडीपी 30 बिलियन अमेरिकी डॉलर थी, जबकि 2018 में, इसकी जीडीपी 13.61 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गई, 452.6 गुना की वृद्धि हुई। 1978 में, चीन की जीडीपी दुनिया में 11 वें स्थान पर थी, जबकि 2010 में, यह जापान को पछाड़कर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई और तब से यह दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनी हुई है। अपनी आर्थिक शक्तिमत्ता के विस्तार के अनुरूप चीन अपनी सैन्य शक्ति का ज़बरदस्त विकास कर रहा है। सैन्य सम्बन्धी ख़र्च की दृष्टि से चीन दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर आता है। पिछले दशक के दौरान चीन ने अपनी सैन्य शक्ति का आधुनिकीकरण करने पर विशेष ज़ोर दिया है। अब शी चिनफिंग चीनी राष्ट्र के पुनरुत्थान का सपना सामने रख रहे हैं जिसमें चीन के आर्थिक मजबूती के साथ दुनिया के मंच पर उसे एक महाशक्ति के रूप में स्थापित करने की बात भी शामिल है।

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