रोमिला थापर एक वामपंथी इतिहासकार हैं तथा उनके अध्ययन का मुख्य विषय “प्राचीन भारत का इतिहास” रहा है। रोमिला थापर का जन्म 30 नवंबर 1931 को लखनऊ में हुआ था। पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज से एएल बाशम के मार्गदर्शन में 1958 में डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की। वह 1983 में भारतीय इतिहास कांग्रेस की जनरल प्रेसिडेंट और 1999 में ब्रिटिश अकादमी की कॉरेस्पोंडिंग फेलो चुनी गई थीं। क्लूज पुरस्कार (द अमेरिकन नोबेल) पाने के साथ उन्हें दो बार पद्म विभूषण पुरस्कार की पेशकश की गई, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार करने से मना कर दिया।
यह उन्हीं कथित बुद्धिजीवियों में से एक हैं जिहोंने इतिहास को अपने राजनीतिक पूर्वाग्रहों व औपनिवेशिक विचारधाराओं के लिए एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया। पुराने घटनाक्रमों का वही विश्लेषण स्वीकार किया गया जो साम्यवादी और वामपंथी इतिहासकारों को पसंद थे। उनकी मूल स्थापनाएं ही विकृत तथ्यों से भरी थी और इन्होंने प्राचीन भारत के ऐतिहासिक घटनाक्रमों को व्यवस्थित रूप से कभी पेश नहीं क्या। रोमिला थापर हों या इरफान हबीब या रामशरण शर्मा या उनके जैसे अनेक वामपंथी विचारक प्राचीन इतिहास के श्रोता की विश्वसनीयता का मखौल उड़ाने से कभी नहीं चूकते थे।
रोमिला थापर उन इतिहासकारों में से एक है जिन्होंने इस देश की अगली पीढ़ी के लिए एक ऐसा इतिहास लिखा और अपने साथी इतिहासकारों से भी लिखवाया कि आज के युवा अपने देश की कम और आक्रांताओं का इतिहास ज्यादा जानते है। इन सभी ने एक ऐसे इतिहास को लिखा जिसे पढ़ने के बाद अगली पीड़ी हीन भावना से ग्रसित हो और उसे रामायण और महाभारत एक कहानी लगे।
यह एक सोची समझी साजिश के तहत जानबूझकर लिखा गया और इसमें से सबसे प्रमुख थी रोमिला थापर जिन्होंने भारतीय इतिहास की धज्जियां उड़ाते हुए परिकाल्पनिक सिद्धांतों को सिद्ध करने कोशिश की जिसका वास्तविकता से कोई संबंध ही नहीं था। आइए ऐसे ही कुछ उनके परिकल्पनाओं को देखते है।
इतिहास में कई झूठे सिद्धांत को अब भी पढ़ाया जा रहा है। उसी में से एक है – आर्यन इन्वेजन थ्योरी। इस थ्योरी के अनुसार ”आर्य भारत में बाहर से आये हैं।“ इस थ्योरी को अंग्रेजो ने औपनिवेशिक काल में फैलाया था ताकि भारतीयों को बांटा जा सके। आर्य आक्रमण सिद्धांत एक बहुत ही चालाकी से अभ्यासक्रम में डाला गया सफेद झूठ है। इस सिद्धांत का गलत उपयोग आज भी कई राजनीतिक पार्टियां करती हैं। इसे पुख्ता करने के लिए रोमिला थापर और उनके साथियों ने जी जान लगा दी और इन सभी की इतनी बड़ी लॉबी थी कि इसे Medieval और Ancient History एनसीईआरटी (old version) में भी पढ़ाया जा रहा है, जिसे पढ़कर देश मे प्रशासनिक अफसर और बुद्धिजीवी खड़े होते है। हालांकि, यह भी एक मनगढ़ंत कहानी ही है। जिसे कई बड़े इतिहासकर और वैज्ञानिक नकार चुके है।
इसके बाद आते है उनके इस सिद्धांत पर कि वैदिक काल में विशिष्ट अतिथियों के लिए गोमांस का परोसा जाना सम्मान सूचक माना जाता था। रोमिला थापर ने अपनी किताब में यह साफ लिखा है। लेकिन यह सफ़ेद झूठ है। किसी भी वेद में यह नहीं लिखा है जिसे यह वामपंथी इतिहासकार इतने दावे के साथ लिखते आये है।
वामपंथी इतिहासकारों की दृष्टि में छठीं कक्षा के बच्चों को यह पढ़ाना बहुत आवश्यक लगता है कि आर्य बाहर से आये थे और वैदिककाल में गोमांस खाया जाता था जबकि ऋग्वेद में गौ को ‘अघन्या'(न मारने योग्य) कहा गया है।
रामायण, महाभारत को काल्पनिक बताने वाली रोमिला थापर यही नहीं रुकती। महाभारत के बारे में उन्होंने भी कई झूठ लिखे हैं। “शकुंतला” में रोमिला थापर बताती हैं कि पांडव दुर्वासा की संतान थे। जबकि महाभारत के अनुसार पांडव, कुरु राजवंश के राजा पांडु के पुत्र थे। वह दावा करती है कि प्राचीन हिंदू महिलाओं ने परंपरा के अनुसार मेहमानों के साथ विवाहेतर यौन संबंध बनाए थे।
यह भारत जैसे देश में ही हो सकता है जिसमें एक धर्म के बारे में इतनी झूठी बाते वह भी बिना प्रमाण के लिख दी जाती हैं और कोई इसका खंडन भी नहीं करता है।
रोमिला थापर ने अपनी कई किताबों में मध्यकालीन इतिहास के बारे लिखा है और इन किताबों में मुलिम आक्रांताओं के बर्बरीक हमलों पर शब्दों के खेल से पर्दा डाला. उन्होंने लिखा है,
महमूद गजनवी केवल धन लूटने आया था, क्योंकि उसे साम्राज्य-विस्तार करना था। इसके लिए फौज चाहिए थी। फौज के लिए धन चाहिए था। उसका उद्देश्य केवल अपने राज्य का विस्तार था, न कि किसी मंदिर का विध्वंस करना उसका उद्देश्य था। फिर भारत से काफी धन लूटकर उसने गजनी में मस्जिद, और हाँ, एक लाइब्रेरी भी बनवाई!
अब रोमिला थापर द्वारा लिखे इस इतिहास को पढ़कर आप भी महमूद गजनवी को दोषी नहीं मानेंगे बल्कि आपके मन में सहानुभूति और जागृत होगी
तब तो सचमुच महमूद के साथ भारत में भारी अन्याय हुआ! रोमिला जी के अनुसार कि गजनवी द्वारा भारत पर बार बार चढ़ाई के बाद भी भारत की काफी तरक्की हुई। अब यह तो सभी को पता ही है कि महमूद गजनवी ने भारत में क्या क्या अत्याचार किये थे और कैसे देश को यहां तक कि मंदिरों में लूट मचाई थी, लेकिन रोमिला थापर ने उन अत्याचारों को ऐसे पेश किया जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
इसके अलावा यह वही इतिहासकार है जिन्होंने यह मानने से मना कर दिया था कि अयोध्या में राम मंदिर था। इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर गलत जानकारी देकर अयोध्या मामले को उलझाने का काम वामपंथी विचारधारा के इतिहासकारों ने सबसे अधिक किया है।
रोमिला थापर, बिपिन चन्द्रा, प्रो.धनेश्वर मंडल, शीरीन मौसवी, डीएन झा, आर एस शर्मा, प्रो. सुप्रिया वर्मा आदि सभी इतिहासकारों ने माहौल खराब करने की कोशिश के चलते ऐसा किया और इसमें इनका निजी स्वार्थ भी शामिल था। वह स्वार्थ पूरा भी हुआ। जिसके तहत ये कई सालों तक ‘इतिहास अनुसन्धान परिषद’ में कई पदों पर ‘आसीन’ भी रहे। इन्हें वहां से कई प्रकार के ‘प्रोजेक्ट’ मिले। जिनमें से कुछ को तो इन्होंने ‘आज तक’ पूरा नहीं किया। आराम से सरकार का पैसा लेते रहे और इस बीच अपनी-अपनी यूनिवर्सिटियों के पठन-पाठन से भी दूर रहे और वहाँ से भी सरकार का पैसा डकारतें रहे।
मशहूर पत्रकार ‘अरुण शौरी’ ने अपनी किताब ‘एमिनेंट हिस्टोरियन’ में साफ-साफ़ लिखा है- अयोध्या मुद्दा बहुत पहले ही सुलझ गया होता, यदि उसमें मिले खुदाई के अवशेषों को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर देखा गया होता। परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नही हुआ।
वहीं एएसआई के क्षेत्रीय निदेशक (उत्तर क्षेत्र) रहे ‘श्री के के मोहम्मद’ ने मलयालम में लिखी अपनी आत्मकथा ‘नज्न एन्ना भारतीयन’ (मैं एक भारतीय) में सीधे तौर पर ‘रोमिला थापर’ और ‘इरफ़ान हबीब’ पर बाबरी मस्जिद विवाद को गलत ढंग से पेश करने का आरोप लगाते हुए लिखा है, “1976-1977 में जब प्रो. बी लाल की अगुवाई में वहां पर खुदाई हुई थी, तो उसमें भी वहां मंदिर के साक्ष्य पाए गए थे।“
अंग्रेज़ो के जाने के बाद उनके द्वारा फैलाए गये झूठे तथ्यों को सच बनाने की कोशिश में लगे ऐसे कहानिकार आखिर कैसे सफल हो गए और भारत जैसे सांस्कृतिक देश में अपनी जड़े इतनी मजबूत कर ली कि भारत की शिक्षा प्रणाली इनके हत्थे चढ़ गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत की आने वाली पीढ़िया अपने देश की वास्तविकता से ही कट गयी और वह अँग्रेजी पद्धति पर ही आश्रित हो गए।
इसकी प्रमुख वजह कांग्रेस और जवाहरलाल नेहरू की साम्यवादी सोच रही है। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी और कांग्रेस पार्टी का गुणगान करने के लिए वामपंथी और उनके चाटुकार इतिहासकारों को ही आधिकारिक रूप से भारत का इतिहास लिखने का दायित्व सौंपा।
इसके बाद रोमिला थापर, प्रोफेसर डी. एन. झा, प्रो. बिपनचंद्र, प्रो. हरबंस मुखिया जैसे इतिहासकारों ने एक आभिजात्य वर्ग की टोली बनाई और फिर बाकी राष्ट्रवादी इतिहासकारों को दरकिनार कर खुद को ही भारत के इतिहास का ज्ञाता मानने लगे। यही नहीं इस्लाम को जितना सराहा उतना ही हिंदुओं को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
इन सभी ने मिल कर भारत की शिक्षा प्रणाली पर ही अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया, इसके साथ ही भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् पर भी कब्जा जमा लिया। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के प्रमुख पदों पर वामपंथी गुट के किसी के ही अधिकारियों को बैठाया दिया था। अरुण शौरी ने इस बारे में अपनी पुस्तक एमिनेंट हिस्टोरियन में लिखा है “भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् जैसे प्रतिष्ठित संस्था पर इन लोगों का कब्ज़ा निश्चित ही बहुत बुरी बात थी। इन इतिहासकारों का बड़ा अपराध रहा कि ये सच को दबाने और झूठ को उजागर करने में हमेशा आपसी साझेदारी निभाई। ये केवल पक्षपाती इतिहासकार ही नहीं है, ये अव्वल दर्जे के भाई-भतीजावादी भी हैं। ये सभी आपस में एक-दूसरे के किताबों का प्रशंसा कर महान बन गए और ढोंग रचाते रहे”।
वहीं, नोबल पुरस्कार विजेता वी. एस. नायपाल ने लंदन-स्थित एक पत्रकार फारूख ढोंडी को यहां तक कहा कि प्रसिद्ध वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर एक ‘फ्रॉड’ है।
इन सभी ने एक ऐसे भारत की कल्पना की जहां केवल हार थी और इस हार से देश के युवाओं को हीन भावना से ग्रसित कर दिया। ये वामपंथी इतिहासकार लॉर्ड मैकाले के बताए पाथ पर ही चले जिसका एक ही मकसद भारत के लोगों को भारत की संस्कृति से दूर करना था जिसका प्रमाण भी मिलता है जब मैकाले ने अपने पिता को लिखे एक पत्र में इस बात का जिक्र किया।
आज इन सभी इतिहासकारों की सच्चाई अब सभी के सामने आ चुकी है और अब जरूरत है कि भारत सरकार अपने शिक्षा प्रणाली में सुधार कर इन सभी छद्म इतिहासकारों के लिखे इतिहास को हटाए और राष्ट्रवादी इतिहासकारों को मौका देकर भारत का ऐतिहासिक संस्कृति को पुनर्जीवित करे।