बिहार में NRC को लेकर जेडीयू और भाजपा में ठनी, कहीं ये बन न जाए दो दलों के बीच ब्रेकअप का कारण

नीतीश कुमार बिहार

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बिहार में अगले वर्ष यानि 2020 में विधानसभा चुनाव होने वाला है, सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी गोटी सेट करने में लगे हैं। वोटरों को लुभाने का दौर भी जारी है। अवसरवाद के पर्याय बन चुके नीतीश कुमार इस बार चुनाव में क्या रणनीति अपनाते हैं यह देखने वाली बात होगी। परन्तु बीते कुछ समय से जिस तरह से तीन तलाक बिल, अनुच्छेद 370 कश्मीर से हटाए जाने जैसे मुद्दे पर उनकी पार्टी ने भाजपा के खिलाफ अपना स्टैंड सामने रखा है उससे तो यही लगता है भाजपा और जेडीयू के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। अब इन दोनों दलों के बीच तनाव को एनआरसी ने और बढ़ावा दिया है। ये तनाव अगर यूं ही बढ़ता रहा तो एनआरसी इन दोनों दलों के बीच ब्रेकअप का प्रमुख कारण बन सकता है।

दरअसल, असम के बाद अन्य राज्यों में एनआरसी लागू करने की मांग बढ़ने लगी है और इसमें बिहार भी शामिल है। राज्य में भाजपा के नेता मांग कर रहे हैं कि बिहार में भी असम की तर्ज पर एनआरसी लागू हो क्योंकि यहाँ भी अवैध बांग्लादेशियों की संख्या बढ़ती जा रही है। वहीं दूसरी ओर, नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड इसके खिलाफ है। इस मुद्दे पर पार्टी का कहना है कि बिहार में एनआरसी की जरूरत नहीं है।

बिहार में भाजपा के जो मंत्री एनआरसी का समर्थन कर रहे हैं उनमें पहला नाम बिहार सरकार में भाजपा कोटे से मंत्री विनोद सिंह का है जो खुले तौर पर एनआरसी का समर्थन कर रहे हैं। उनका कहना है कि बिहार में 40 लाख बांग्लादेशी घुसपैठिये रह रहे हैं, जिनकी पहचान जरूरी है। विनोद कुमार सिंह एनआरसी के मुद्दे पर आंदोलन कर चुके हैं और वे इसको देश की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा बताते हैं। इनके अलावा बीजेपी के वरिष्ठ नेता और बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव ने भी संकेत दे दिए हैं कि वो एनआरसी लागू करने के समर्थन में हैं। वहीं बीजेपी नेता रहे हरेंद्र प्रताप एनआरसी के मुद्दे पर मुखर हैं और उन्होंने आजादी के बाद से अब तक की जनगणना का अध्ययन कर ‘बिहार पर मंडराता खतरा’ नाम की किताब भी लिखी है। इस किताब में उन्होंने यह बताया है कि बांग्लादेशी घुसपैठीए किस प्रकार पूर्णिया जिले में बढ़ते जा रहे हैं।

राज्यसभा सांसद प्रोफ़ेसर राकेश सिन्हा ने अपने ट्विटर हैंडल पर एक पोल शुरू किया था कि क्या बिहार के सीमांचल में एनआरसी होना चाहिए। उनका तर्क है कि घुसपैठ एक तरह का मौन आक्रमण है जो कि बिहार के कुछ ज़िलों ख़ासकर अररिया, पूर्णिया, कटिहार और किशनगंज में साफ़ दिखता है जिसके कारण वहां का सामाजिक वातावरण और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र भी कमज़ोर हुआ है।

जैसे ही असम में एनआरसी की लिस्ट आयी थी उसके बाद जनता दल युनाइटेड के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने कहा था कि ग़लत तरीक़े से कराए गए एनआरसी के कारण आज लाखों लोग अपने ही देश में विदेशी हो गए हैं और इतने जटिल विषय को बिना सूझ-बूझ के लागू करना और वह भी केवल राजनीतिक फ़ायदे के लिए इसका निश्चित रूप से परिणाम ग़लत होगा।’ एनआरसी पर जेडीयू के प्रधान महासचिव केसी त्यागी ने कहा कि ‘सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी का गठन सिर्फ असम के लिए किया था इसलिए इसे बिहार या अन्य राज्यों में फैलाने की जरूरत नहीं है।’ दोनों दलों के बीच इस वाकयुद्ध से स्पष्ट है जेडीयू और बीजेपी के बीच तनाव और ज्यादा बढ़ गया है लेकिन अफ़सोस कि बात यह है कि इस बार दोनों दलों के बीच की इस खटास को कम करने के लिए पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली भी नहीं हैं। अरुण जेटली ने हमेशा बिहार में एनडीए को इस तरह के संकटों से उबारने में मदद की है।  भाजपा के साथ किसी भी मोर्चे पर एकजुट राय बनाने से लेकर उसके साथ जुड़े रहने तक में अरुण जेटली की भूमिका काफी खास रही है। वर्ष 2017 में भाजपा और जदयू का गठबंधन कराने वाले अरूण जेटली ही थे। इसके अलावा लालू यादव को चारा घोटाला में सज़ा दिलवाने में भी अरुण जेटली की भूमिका चाणक्य जैसी रही थी। यह जेटली ही थे जिन्होंने दिग्गज भाजपा नेता प्रमोद महाजन को विश्वास में लेकर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनवाया था। नीतीश कुमार भी अरुण जेटली की बात मानते थे। जब बीजेपी और जेडीयू के बीच 2015 में काफी तनाव थे तब भी अरुण जेटली और नीतीश कुमार की दोस्ती बरकरार थी। एक तरह से अरुण जेटली बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच ब्रिज का काम करते थे। ऐसे में जिस तरह से राज्य में दोनों पार्टियों के बीच तनाव है उससे तो यही लगता है कि आज जेडीयू को अरुण जेटली की कमी काफी खल रही होगी क्योंकि भाजपा के बिना बिहार के विधानसभा चुनावों में जाना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।

ये बात नीतीश कुमार भलीभांति समझते हैं तभी खुलकर वो भाजपा के खिलाफ अपना रुख जाहिर नहीं करते लेकिन उनकी पार्टी जानबूझकर कुछ न कुछ ऐसा कर रही है जो भाजपा के सहयोगी दल होने के नाते जेडीयू को शोभा नहीं देता। यही नहीं नीतीश कुमार और उनकी पार्टी का आत्मविश्वास भी अब हिलने लगा है। इस बात का अंदाजा पार्टी के नए नारे ‘ठीके तो हैं नीतीश कुमार’ से लगाया जा सकता है जिसे बाद में आलोचनाओं के बाद जेडीयू ने बदल भी दिया। जिस तरह का आत्मविश्वास वर्ष 2015 में जेडीयू के अंदर था वो वर्तमान समय में पार्टी से गायब नजर आ रहा है। अब जेडीयू एनआरसी का विरोध कर रही है ताकि वो मुस्लिम मतदाताओं को लुभा सके। और भाजपा जेडीयू के इस रुख के खिलाफ है, ऐसे में एनआरसी भाजपा और जेडीयू के बीच ब्रेकअप का बड़ा कारण बन सकता है और इससे नीतीश कुमार के फिर से बिहार का मुख्यमंत्री बनने के सपने को बड़ा झटका लग सकता है।

गौरतलब है कि राज्य में भाजपा खुद को समय के साथ मजबूत कर चुकी है और राजद और कांग्रेस लोकसभा चुनाव के बाद से अप्रासंगिक हो गये हैं। ऐसे में बिना भाजपा के निक्कू का मुख्यमंत्री बनना संभव नहीं। स्पष्ट है इस ब्रेकअप से किसी को सबसे ज्यादा अगर नुकसान होने वाला है तो वो हैं नीतीश कुमार।

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