लगता है ममता बनर्जी के लिए मुसीबतें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही। डॉक्टरों का विद्रोह खत्म हुए अभी छह महीने भी नहीं बीते कि अब ममता सरकार को राज्य के चाय बागानों में काम करने वाले कामगारों के आक्रोश का सामना करना पड़ रहा है।
कुछ अफसरों ने नाम न छापने की शर्त पर हिंदुस्तान टाइम्स को बताया कि चूंकि राज्य सरकार के श्रम विभाग ने पिछले कुछ वर्षों से अधर में लटके चाय बागानों के 4500 से ज़्यादा कामगारों को उनका वेतन नहीं दिया गया है, इसलिए राज्य सरकार के सामने मुसीबत आ पड़ी है। कहने को तो इन कामगारों के परिवारों को बंद पड़े उद्योगों के अंतर्गत मिलने वाली वित्तीय सहायता के अनुसार 1500 रुपये प्रति माह मिलने चाहिए, परंतु इन्हें अब यह सहायता भी नहीं दी जाती।
बता दें कि पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में लगभग साढ़े चार लाख मजदूर काम करते हैं। बागानों में काम कर रहे मजदूर और मजदूर संगठन लंबे समय से मांग कर रहे हैं कि उन्हें भी न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के तहत मजदूरी मिले। इसके लिए लोकसभा चुनावों से पहले भी काम ठप कर चुके हैं। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार 2015 चाय बागानों में काम कर रहे मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी सलाहकार कमेटी का गठन किया था। कमेटी में 29 लोगों को शामिल भी किया गया। तब से लेकर पिछले साल तक 10 से ज्यादा बैठके हो चुकी हैं लेकिन मामला जस का तस है।
जिन बागानों में ये समस्या आन पड़ी है, वे हैं अलीपुरद्वार जिले में स्थित मधु, ढेकलापाड़ा और बंदापानी बागान, जलपाईगुड़ी जिले में स्थित रेड बैंक एवं सुरेन्द्रनगर बागान और दार्जिलिंग जिले में स्थित पानिघाट बागान। ये बागान पिछले कई वर्षों से बंद है, जिसके कारण यहाँ काम कर रहे कामगारों को काफी समस्याओं का सामना कर पड़ रहा है। उत्तर बंगाल में ही करीब 12 चाय के बागान बंद पड़े हुये हैं। मधु चाय बागान के एक कामगार के अनुसार, ‘पिछले पाँच महीनों से मेरे बच्चों और मुझे बस उतना ही खाना मिलता है, जितना हमें कोई दे जाये। अक्सर ये चावल, नमक और पानी ही रहता है’।
वामपंथियों की सरकार को अपदस्थ हुये आठ वर्षों से ज़्यादा हो चुके हैं, परंतु स्थिति अभी भी जस की तस है। इससे परेशान होकर पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में काम करने वाले मजदूर ने सड़कों पर उतरने का निर्णय कर लिया है। न्यूनतम वेतन की मांग को लेकर उन्होंने केंद्र और प्रदेश सरकार को 19 अगस्त तक का समय दिया था लेकिन एक बार फिर उनकी मांगों पर कोई सुनवाई नहीं हुई।
वर्तमान व्यवस्था के अनुसार पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों को राशन के अलावा 176 रुपए प्रतिदिन के हिसाब दिया जा रहा है। इसके बदले उन्हें प्रतिदिन 27 किलो चायपत्ती तोड़नी होती है। टारगेट पूरा न होने पर पैसे भी काट लिए जाते हैं। मजदूर संगठनों का आरोप है कि प्रदेश सरकार तय मजदूरी दर में भी धांधली कर रही है।
चाय मजदूरों के लिए काम कर रहे संगठन ज्वाइंट फोरम के संयोजक जेबी तमांग ने गांव कनेक्शन नामक पोर्टल से अपनी बातचीत के दौरान कहा, “पहले बागान मालिक राशन उपलब्ध कराते थे, लेकिन अब राज्य सरकार पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) के तहत प्रत्येक परिवार को महीने में 35 किलो चावल दो रुपए किलो की दर से उपलब्ध करा रही है।”
उन्होंने आगे ये भी कहा, ” पिछली बार जो समझौता हुआ था उसके अनुसार न्यूनतम मजदूरी 289 रुपए तय हुई थी। इसमें से 132.50 रुपए का नकद भुगतान होना था। बाकी के 157 रुपए राशन, मेडिकल, जलावनी लकड़ी और अन्य सुविधाओं के बदले में थे। इसमें राशन का हिस्सा 24 रुपए का है। जबकि बागान मालिक नौ रुपए ही दे रहे हैं।”
केंद्रीय श्रम संगठन सीटू के संयोजक जियाउल आलम चाय बागानों में काम कर रहे मजदूरों की आवाज लंबे समय से उठाते रहे हैं। उन्होंने बंगाल सरकार को निशाने पर लेते हुये बताया, “प्रदेश सरकार न्यूनतम वेतन देना ही नहीं चाहती। सरकार ने जबकि इसके लिए वादा किया था। बागानों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति बहुत खराब है। अब न्यूनतम मजदूरी व्यवस्था से कम कुछ भी कबूल नहीं किया जाएगा।”
ममता ने भले ही चाय बागान के मजदूरों के बारे में लंबे चौड़े वादे किए हों, पर सच्चाई तो कुछ और ही बता रही है। वर्ष 2017 में आई एक रिपोर्ट चाय बागानों में काम कर रहे मजदूरों की दुर्दशा की कहानी बयां करती है। इस रिपोर्ट की मानें तो 2002 से 2014 के बीम अकेले पश्चिम बंगाल के बागानों में कुपोषण और भूख से 1000 से ज्यादा बागान मजदूरों की मौत हो चुकी है। इस दौरान जहां 23 बागान बंद हो गये तो वहीं एक लाख से ज्यादा मजदूर बेरोजगार भी हुए हैं।
अल्पसंख्यक तुष्टीकरण में ममता सरकार इतनी अंधी हो चुकी है कि अब उन्होंने मूलभूत समस्याओं पर भी ध्यान देना बंद कर दिया है। पहले डॉक्टरों के विरुद्ध हो रही हिंसा पर तानाशाही रुख, और अब चाय बागानों के कामगारों की दुर्दशा पर मौन व्रत धारण करना ममता के लिए बिलकुल भी सही नहीं है। यदि ममता बनर्जी अब भी नहीं नहीं चेती, तो इसके लिए उन्हें 2021 के चुनाव में जनता कड़ा सबक भी सिखा सकती है।