भारत के संविधान के अनुच्छेद 39ए में लिखा है कि ‘राज्य सरकार को अपने लोगों को ऐसी न्याय व्यवस्था प्रदान करनी चाहिए जिससे आर्थिक तंगी की वजह से किसी को न्याय प्राप्त करने के लिए जूझना ना पड़े’। भारत में न्यायपालिका का सबसे मजबूत हिस्सा सुप्रीम कोर्ट को माना जाता है, और विडम्बना यह है कि सुप्रीम कोर्ट में न्याय पाने की गुहार के लिए आपको देश की राजधानी नई दिल्ली ही आना पड़ेगा। अब आप खुद ही सोचिए कि दक्षिण भारत या पूर्वोत्तर भारत में रहने वाले किसी सामान्य भारतीय परिवार को अगर सुप्रीम कोर्ट में न्याय की गुहार लगानी हो, तो क्या यह उसके लिए संभव हो सकेगा? इसके अलावा आए दिन बढ़ती जा रही पेंडिंग मामलों की संख्या भी भारतीय न्यायपालिका के लिए किसी सिरदर्द से कम नहीं है। ऐसे में अब देश के उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने देश के सामने अपना बेहद ही महत्वपूर्ण सुझाव रखा है जिसको लागू करने के बाद वाकई इस समस्या को काफी हद तक हल करने में मदद मिलेगी।
दरअसल, उप राष्ट्रपति नायडू शनिवार को दिल्ली में एक पुस्तक के विमोचन के दौरान मौजूद थे। इस दौरान उन्होंने कहा कि शीर्ष कोर्ट का विभाजन होना चाहिए ताकि मामलों का तेजी से निपटारा हो सके। उन्होंने न्याय मिलने में देरी पर चिंता जताते हुए संवैधानिक मामलों और अपीलों से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट को विभाजित करने का सुझाव दिया। उन्होंने मुकदमों के जल्द से जल्द निपटारे के लिए सुप्रीम कोर्ट की चार क्षेत्रीय पीठ बनाने की भी अपील की। अब उपराष्ट्रपति के सुझाव के अनुसार अगर देश में चार क्षेत्रीय पीठों का गठन किया जाता है तो इसका सबसे बड़ा फायदा दिल्ली से दूर रहने वाले लोगों को मिलेगा।
उप-राष्ट्रपति नायडू ने यह भी साफ किया कि नई व्यवस्था को लागू करने के लिए किसी नए कानून या संविधान में किसी संशोधन की जरूरत नहीं है। उप-राष्ट्रपति नायडू ने अपने भाषण में आर्टिकल 130 का जिक्र किया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट में बदलाव के लिए संविधान संधोधन की जरूरत नहीं होगी। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि प्रस्तावित व्यवस्था के लागू होने के बाद आम लोगों को इसका सबसे बड़ा फायदा होगा, हालांकि इसको लेकर सुप्रीम का रुख अब तक निराशाजनक ही रहा है। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह कई अवसरों पर कहा है कि दिल्ली के बाहर किसी भी पीठ की जरूरत नहीं है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट अगस्त 2009 कमीशन के सुझाव को भी पहले ही खारिज कर चुकी है, जिसमें संविधान पीठ को दिल्ली, चेन्नई/हैदराबाद,कोलकाता और मुम्बई में विभाजित करने की बात कही थी।
कहते हैं कि न्याय में देरी होने को भी अन्याय ही कहा जाएगा। ऐसे में किसी भी न्यायपालिका का बिना किसी विलंब के काम करना बेहद आवश्यक है लेकिन भारत में सुप्रीम कोर्ट पर अनसुलझे मामलों का लगातार बोझ बढ़ता जा रहा है। बता दें कि इसी वर्ष जुलाई में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने बड़ी तादाद में सुनवाई के लिए लिस्टेड मामलों को लेकर अपनी नाखुशी जताई थी। कोर्ट ने कहा था कि 31 जज हैं और उनके सामने 40 हजार मामले लंबित हैं। बता दें कि 1988 में सुप्रीम कोर्ट के जजों की संख्या 18 से 26 की गई थी, जिसे 2009 में बढ़ाकर 31 कर दिया गया। हालांकि, तब भी सीजेआई ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या को बढ़ाकर 31 से 37 की जानी चाहिए। एक रिपोर्ट के मुताबिक 2007 में सुप्रीम कोर्ट में 41,078 मामले लंबित थे, जिनमें तेजी से बढ़ोतरी देखी गई है। ऐसे में इसके लिए आवश्यक है कि अलग से क्षेत्रीय पीठ बनाई जाये। हालांकि देश की न्यायपालिका व्यवस्था में यह कोई नया कॉन्सेप्ट नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में पहले ही उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट की इलाहाबाद के साथ-साथ लखनऊ बेंच मौजूद है, क्योंकि राज्य की जनसंख्या ज़्यादा है और इसकी आवश्यकता भी है। इसलिए देश के सुप्रीम कोर्ट को भी चाहिए कि लोगों की भलाई के लिए वह भी आगे आए और इस व्यवस्था को अपनाने की दिशा में कोई कदम उठाए। यह देश की न्याय-व्यवस्था के लिए ही नहीं, बल्कि आम जनता के लिए भी बेहद लाभकारी कदम साबित होगा।